यदि हिंदी छोड़ किसी और भाषा की बात होती तो शायद उपर्युक्त शीर्सक देने की आवश्कता ही नहीं पड़ती| प्रश्न यह उठता है ,आखिर ऐसा क्यों ? वो इसलिए- अन्य देशों में,वहां की राष्ट्रभाषा के साथ ऐसा नहीं हुआ होगा,जो ६५ वर्षो से हमारी हिंदी के साथ हो रहा है| अपने ही देश में हिंदी अपनी पहचान खो रही है|इसके अपने ही इसे हीन दृष्टि से देखते हैं | आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? जिम्मेदार कौन है? न जाने ऐसे कितने ही विवादग्रसित,अनसुलझे प्रश्न मस्तिष्क में अकस्मात् कौंध जाते हैं|
आज भी हिंदी में उच्च स्तरीय ज्ञान,विज्ञान की पुस्तकों का अभाव विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालयों में है| जिस भाषा में हम हिन्दुस्तानी अच्छी तरह समझ,पढ़,लिख और अपने विचारों का आदान-प्रदान बड़े ही आसानी से कर सकते है;जिसके आधार पर हम भारतीय कामयाबी की बुलंदियों को पार कर,विश्व के हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवा सकते हैं,आखिर सरकार ऐसी भाषा में शिक्षा प्रदान करवाने में झिझकती क्यों है? हमारी सरकार को हम हिन्दुस्तानियों को हिंदी सिखाने के लिए और कितने वर्षों की महुलत चाहिए?
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