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Friday, January 28, 2011

समाज ,साहित्य ,साहित्यकार और मार्क्सवाद


मार्क्सवादी या मार्क्सवादी आलोचना ,साहित्य या साहित्यकार की पूर्ण निरपेक्ष स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करते | आखिर ऐसा क्यों? आइये इस प्रश्न का समाधान मार्क्सवाद के आचार्यों की उक्ति में ढूंढें!




विश्व साहित्य के उद्भव और विकास का सिंहावलोकन के पश्चात् मार्क्स ने सिद्धांत बनाया कि मानव मस्तिष्क की अन्य सभी उपजों के सामान  साहित्य भी अंततः समाज के आर्थिक संबंधों ,उत्पादन के संबंधों से निर्दिष्ट होता है |


मार्क्सवादी आलोचना का बीज मार्क्स का यह कथन है कि मनुष्य का दैनंदिन जीवन उसकी चेतना द्वारा निर्द्धारित नहीं ,वरन इसके विपरीत मनुष्य कि चेतना उसके सामजिक जीवन द्वारा निर्द्धारित होती है |





















एंगेल्स का कहना है :-"मैं निर्विवाद रूप से इस बात को मानता हूँ कि अन्य क्षेत्रों की भांति विचारों के क्षेत्र में भी आर्थिक विकास का सर्वप्रधान हाथ रहता है | हाँ ,यह अवश्य है कि यह प्रभाव विचार-जगत के अपने नियमों और उसकी अपनी मर्यादा के अनुसार ही पड़ता है |"                                                                                                              

लेनिन  व्यक्तिवादियों पर निशाना साधते हुए कहा  था  :-"महाशय व्यक्तिवादी ,हम आपको बतला देना चाहते हैं कि आप निरपेक्ष स्वतंत्रता की जो बात करतें हैं ,वह सरासर पाखण्ड है |ऐसे समाज में जो धन की शक्ति पर आधारित हो ,जिसमें विशाल जनता कंगाल हो और मुट्ठीभर अमीर लोग मुफ्त की रोटी उड़ाते हों ,सच्ची स्वतंत्रता संभव ही नहीं |
महाशय लेखक, क्या आप अपने पूंजीपति प्रकाशक से स्वतंत्र हैं?क्या आप अपने पूंजीपति पाठक-वर्ग से स्वतंत्र हैं, जो  आपसे उपन्यासों और चित्रों में अश्लीलता कि मांग करता है? पूर्ण निरपेक्ष स्वतंत्रता पूंजीवादी या आरजकतावादी वाग्जाल मात्र है |किसी समाज में रहना और फिर उसी से स्वतंत्र होना असंभव है |पूंजीवादी लेखक ,कलाकार ,अभिनेत्री कि स्वतंत्रता वस्तुतः एक नकाब है ,जो इस सत्य को छिपाता है कि लेखक ,कलाकार या अभिनेत्री को पूंजीपति वर्ग का आश्रय प्राप्त है |हम समाजवादी इस नकाब को उघाड़ फेंकते हैं -वर्गहीन कला या साहित्य प्राप्त करने के लिए नहीं (वह तो साम्यवादी समाज में संभव होगा ) वरन इसलिए कि हम ऐसे साहित्य के मुकाबले में जो अपनी स्वतंत्रता का पाखण्ड फैलता है ,लेकिन वस्तुतः पूंजीपति वर्ग पर आश्रित है ,एक सच्चे अर्थों में स्वतंत्र साहित्य खड़ा करना चाहते हैं ;जो साफ़ तौर पर ,बिना किसी छिपाव-दुराव के जनता का पक्ष ग्रहण करता है |यह साहित्य इसलिए स्वतंत्र होगा कि जो नए-नए सशक्त लेखक इसकी ओर आकर्षित होंगे,वह लोभ अथवा सामाजिक पद कि दृष्टि से नहीं वरन समाजवाद के प्रति आस्था और जनता के प्रति सहानुभूति के विचार से |यह साहित्य इसलिए स्वतंत्र होगा कि इसकी उपयोगिता जीवन से हारी-थकी एक अभिजात वर्ग कि नायिका या तुंदिल ,अपनी अकर्मण्यता से ऊबे हुए 'दस हजार उच्चवर्गीय 'लोगों के लिए नहीं बल्कि उन लाखों और करोड़ों लोगों के लिए होगी जो हमारे देश की सर्वश्रेष्ट संतानें हैं ,उसकी शक्ति हैं ,उसकी आशा हैं |"
                          
                      निष्कर्ष के तौर पर यह स्थापित करना गलत न होगा की समाज का प्रभाव साहित्यकार पर पड़ता है ,और साहित्यकार का प्रभाव समाज पर;यह सामान्य तथ्य है ,जिसे स्वीकारोक्ति देने में किसी भी स्तर के  बुद्धिजीवी को आपत्ति नहीं होगी |
वस्तु-जगत ही मनुष्य की चेतना का मूलाधार है ,उससे स्वतंत्र और निरपेक्ष वह कुछ भी नहीं | इस बात को यदि सरल रूप में कहें तो कहेंगे कि परिस्थितियां मनुष्य की चेतना को गढ़तीं हैं |अतः साहित्यकार की चेतना को भी परिस्थितियां ही गढ़ती हैं | जिस समाज का वह प्राणी होता है ,जिन परिस्थितियों में वह पलता-बढ़ता ,उठता-बैठता ,सोता-जगाता ,पढ़ता -लिखता ,सीखता -सिखाता ,तथा जीवकोपार्जन करता है ,उनसे प्रभावित हुए बिना उसका साहित्य नहीं रह सकता | साहित्यकार चाहे या ना चाहे ,परिस्थितियां उस पर प्रभाव डालेंगी ही ,सामयिक समाज- रचना  की छाप,उस पर पड़ेगी ही | यही तथ्य जन साधारण पर भी लागू होती है | जन साधारण साहित्यकार हो या  ना हो,परन्तु सामाजिक है | इस नाते वह भी परिस्थितियों के हाथों का कठपुतली मात्र है |