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Monday, October 3, 2011




इतने श्याम कहाँ से लाऊँ [श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष] – राजीव रंजन प्रसाद

समय नें कब नहीं पुकारा? समय आज भी चीखता है कि उसे चाहिये कृष्ण। पुकार प्रतिध्वनित भी होती है और चीख कर लोप भी हो जाती है। कान्हा मूरत भर रह गये हैं और हमनें उन्हे सामयिक मानना भी छोड दिया है। जैसे अब कोई कंस नहीं, किसी वासुदेव को कैद नहीं या किसी देवकी की कोख नहीं कुचली जाती। डल झील सुलगती है, असाम के जंगल बिलखते हैं, तमिलनाडु का अपना राग है, दिल्ली की जिन्दगी में घुली दहशत या कहें घर घर मथुरा जन जन कंसा इतने श्याम कहाँ से लाउँ? उस रात जब कान्हा को सिर पर उठाये वसुदेव नें उफनती जमुना पार की थी तो आँखों में युग परिवर्तन का सपना रहा होगा। अधर्म पर धर्म की विजय होनी ही चाहिये। कालिया के फन कुचले जाने की आवश्यकता थी, कंस की तानाशाही व्यवस्था परिवर्तन चाहती थी लेकिन आज...  आगे पढ़ें... →

"जब समय दोहरा रहा हो इतिहास्" [लेखिका नासिरा शर्मा की पुस्तक पर चर्चा] - खुर्शीद हयात

तहखाने की सीढी पर बैठी नासिरा शर्मा की तहरीरे बरसती चान्दनी में मुझ से बाते कर रही हैं, और यह भी सच है कि हर ज़िन्दा तहरीरे बोलती है। अपने समय से बहुत आगे का सफर तय करती है। शब्द साहित्य की ज़मीन पे अलग-अलग सतरंगी लिबास पहन कर सफर करते है, सफर जीवन का प्रतीक होता है, और शब्दो की प्यास मे ज़िन्दगी की अलामत छिपी होती है। चला बात करब...नासिरा शर्मा से बरसत चान्दनी म.. अन्धेरे तहखाने की पत्थर सीढिया और हाथों की हथेलियो पर, अपना मासूम सा, सूरज की सतरंगी किरणो जैसा, चेहरा लिये अन्धेरे मे कुछ तलाश कर रही है नासिरा शर्मा की निगाहें। शब्द जब किसी की निगाहें बन जायें तब शब्द एक दूसरे की आंखो में आंखे डाल कर बाते करते है। आगे पढ़ें... →

चर्चित लेखिका चित्रा मुद्गल से मधु अरोड़ा की बातचीत [साक्षात्कार]

10 दिसम्बर, 1944 को चेन्नई में जन्मी चित्रा मुद्गल वर्तमान हिन्दी साहित्य में एक सम्मानित नाम हैं। मुंबई से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर चित्रा जी छात्र जीवन से ही ट्रेड यूनियन से जुड़ कर शोषितों के लिये कार्यरत रही हैं। अमृतलाल नागर और प्रेमचन्द से प्रभावित चित्रा जी को लिखने की प्रेरणा मैक्सिम गोर्की के प्रसिद्ध उपन्यास "माँ" को पढ़ने के बाद मिली। अब तक वे कई लघुकथायें और चार उपन्यास - "आवाँ", "गिलिगद्दू", "एक जमीन अपनी" व "माधवी कन्नगी" लिख चुकीं हैं। इसके अतिरिक्त उनके बाल-कथाओं के पाँच संग्रह भी प्रकाशित हैं। चित्रा मुद्गल को विभिन्न पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है जिनमें "आवाँ" के लिये २००० का इंदु शर्मा कथा सम्मान तथा २००१-०२ का उत्तरप्रदेश साहित्य भूषण प्रमुख हैं। प्रस्तुत है लेखिका चित्रा मुद्गल से मधु अरोरा की बातचीत:-  आगे पढ़ें... →

सच्‍ची घटनाएं कभी अच्‍छी कहानियों का मसाला नहीं बनतीं [कहानी विधा पर एक विमर्श] - सूरजप्रकाश

प्रेम चंद नें कहानी के प्रमुख लक्षणों को बताते हुए लिखा है “कहानी एसी रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है।उसके चरित्र, उसकी शैली तथा उसका कथाविन्यास सभी उसकी एक भाव को पुष्ट करते हैं। उपन्यास की भाँति उसमें मानव जीवन का संपूर्ण वृहत रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता न उसमें उपन्यास की भाँति सभी रसों का सम्मिश्रण होता है, वह एसा रमणीक उद्यान नहीं जिसमें भाँति भाँति के फूल-बेल बूटे सजे हुए हैं, बल्कि वह एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है। कहानी की मूलभूत विषेशता पर प्रेमचंद का कहना है कि ...  आगे पढ़ें... →
सोमवार, ३ अक्तूबर २०११ / LABELS: 

छत्तीसगढ़ में दशहरा की विचित्र परंपराएं [विशेष आलेख] - प्रो. अश्विनी केशरवानी

दशहरा भारत का एक प्रमुख लोकप्रिय त्योहार है। इसे देश के कोने कोने में हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। वास्तव में यह त्योहार असत्य के उपर सत्य का और अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। श्रीराम सत्य के प्रतीक हैं। रावण असत्य के प्रतीक हैं। विजय प्राप्त करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है और हमें शक्ति मां भवानी की पूजा-अर्चना...

निपूती भली थी [लघुकथा] - आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली। अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया। अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आँखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली। उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए. तीसरे...

बापू तुम फिर से आओ [कविता] - डॉ. अमिता कौंड़ल

बापू तुम फिर से आओ अहिंसा के पुजारी कहलाये तुम और सत्य को बना लाठी बापू, स्वतन्त्रता संग्राम चलाया था तुमने पर जानते हो बापू, उसी स्वतन्त्र भारत में आज, सत्यनिष्ठा पराधीन हुई और भ्रष्टाचार आज़ाद है पथ पथ पर हिंसा है बापू, आगजनी उत्पात है इक लंगोटी और लाठी में तुम कितने संतुष्ट थे बापू, पर अथाह सम्पति पाने पर भी मानव कितना...

मैथिली शरण गुप्त [बाल शिल्पी अंक-23] - डॉ. मोहम्मद अरशद खान

प्यारे बच्चों, "बाल-शिल्पी" पर आज आपके डॉ. मो. अरशद खान अंकल आपको "विरासत" के अंतर्गत राष्ट्र कवि मैथिली शरन गुप्त से परिचित करा रहे हैं। तो आनंद उठाईये इस अंक का और अपनी टिप्पणी से हमें बतायें कि यह अंक आपको कैसा लगा। - साहित्य शिल्पी ==================== मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झाँसी के चिरगाँव में...

पता नहीं कब शीशा टूटे [कविता] - प्रभुदयाल श्रीवास्तव

बेटा गया पिसाने आटा कब वापस आये किसी धूर्त की गोली से न स्वर्ग सिधर जाये| उसकी महनत के ईंधन से चूल्हा जलता है उसके तन मन संदोहन से ही घर चलता है वह न हो तो घर भूतों का डेरा हो जाता अंधियारे में घर का कोना कोना खो जाता है आशीश उसे दुनियां की नज़र न कग जाये| रामायण में खंजर है बंदूक कुरानों में कोतवाल भी नहीं सुरक्षित हैं अब थानों...

असमा सूत्तरवाला के ऑडियो सी.डी. का विमोचन [साहित्य समाचार] - दीप्ति शर्मा

कथा यू.के. ने लंदन की कोकण एड् फ़ाउण्डेशन के मंच पर भारतीय मूल के उद्योगकर्मी परिवार (टी.आर.एस.) की असमा सूत्तरवाला के ऑडियो सी.डी. का विमोचन कार्यक्रम आयोजित किया। विमोचन करते हुए काउंसलर ज़किया ज़ुबैरी ने कहा, “कम्यूनिटी की सेवा असमा की रूह में गहरे तक पैठी हुई है। असमा ने मुंबई की अपनी ज़िन्दगी में देखा कि झोंपड़-पट्टियों में...
सोमवार, २६ सितम्बर २०११ / LABELS: 

खेल [ग़ज़ल] - गौरव शुक्ला

फूलों का खेल है कभी पत्थर का खेल है इन्सान की जिन्दगी तो मुकद्दर का खेल है बहला के अपने पास बुला कर, फरेब से नदिया को लूटना तो समन्दर का खेल है हम जिसको ढूँढते हैं जमाने में उम्र भर वो जिन्दगी तो अपने ही अन्दर का खेल है हर लम्हा हौसलों के मुकाबिल हैं हादसे दोनों के दरमियान बराबर का खेल है कहते हैं जिसको लोग धनक,और कुछ नहीं...
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जीवन परिचय...

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आयो कहाँ से घनश्याम...यायावरसप्ताह का कार्टून
   
प्रस्तुति: अभिषेक तिवारी
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