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Monday, October 3, 2011



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किसलय सी कोमल काया {गीत} सन्तोष कुमार "प्यासा"

>> बृहस्पतिवार, २९ सितम्बर २०११


क्यूँ विकल हुआ हिय मेरा 
क्यूँ लगते सब दिन फीके 
हर छिन कैसी टीस उठे 
अब साथ जागूं रजनी के
जब से वह किसलय सी 
कोमल काया मेरे मन में छाई 
संयोग कहूँ या प्रारब्ध इसे मैं
वो पावन पेम मिलन था इक पल का 
मिटीजन्मो की तृष्णा सारी
इक स्वप्न सजा सजल सा
इस सुने से जीवन में मेरे 
मचली प्रेम तरुणाई 
जब से वह किसलय सी 
कोमल काया मेरे मन में छाई 
न परिचित मै नाम से उसके 
न देश ही उसका ज्ञात है
पर मै मिलता हर दिन उससे
वोतो मनोरम गुलाबी प्रातः  है
निखरा तन-मन मेरा बसंत बहार जैसे
ये कैसी चली पुरवाई  
जब से वह किसलय सी 
कोमल काया मेरे मन में छाई 

बदल गया है देश {कविता} सन्तोष कुमार "प्यासा"

>> रविवार, ११ सितम्बर २०११

भला विचारा कभी,
हम क्या थे और क्या हो गये
स्वार्थ की प्रतिस्पर्धा ऐसी जगी
परहित भूल, अलमस्त हो खो गये !
न फिक्र की समाज की,
किसी के दुःख से न रहा कोई वास्ता
फंसकर छल कपट के जुन्गल में
बहाया अपनों का लहू, चुना बर्बादी का रास्ता 
तिल भर सौहार्द न बचा ह्रदय  में 
भला किसने रचा ये परिवेश
तुम खुद बदल गये हो
और कहते हो बदल गया है देश !
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मनुष्य सदैव से अपनी गलतियों को छुपाने के लिए दूसरों पर दोषारोपण करता आया है,
परन्तु वर्तमान की आवश्यकता गलतियों  का परित्याग एवं विकाशन है, किन्तु ये विडम्बना ही है की वो इस वास्तविकता का साक्षात्कार करने से स्वयं को बचा रहा है ! 

  
  
 

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