'उपलब्ध' आलोचना का कच्चा माल है।'अनुपलब्ध' आलोचना का मौलिक तत्व है। आलोचना में जनतंत्र का विकास तब होता है जब आलोचना 'अनुपलब्ध' की तरफ ध्यान देती है। परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य में ले जाती है। परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य की जरूरत होती है। संकीर्ण विचारों को अतीत की जरूरत होती है। जो आलोचना मूलगामी परिवर्तनकामी विचारों को भविष्य में ले जाती है वह आलोचना में जनतंत्र का विकास करती है साथ ही हाशिए के लोगों के साहित्य को भी सामने आने का अवसर देती है। आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ है सामाजिक परिवर्तन के मूलगामी विचारों को भविष्य को सौंपना। हिन्दी आलोचना इस अर्थ में अधूरी है। इसने रेडीकल विचारों को भविष्य को सौंपने की बजाय अतीत के हवाले कर दिया है। हम नए विचारों की पुष्टि प्राचीन प्रमाणों से करते हैं। अभी भी पुराने से वैधता न मिले तो उसे हम स्वीकार नहीं करते। पुराना अभी भी वैध है,प्रामाणिक है। नए को प्रामाणिकता हासिल करनी है तो पुराने की शरण में लौटे। नए की जमीन वर्तमान है और उसका विकास भविष्य में होता है। हमें देखना होगा हमारी नयी आलोचना भविष्य की ओर जाती है अथवा अतीत की ओर। हिन्दी आलोचना की प्रधान चिन्ता है अतीत को अर्जित करने की। भविष्य को खोजना उसका लक्ष्य नहीं रहा है। सभी किस्म के रेडीकल विचारों के लिए भविष्य की जरूरत होती है,वैसे ही जैसे सभी किस्म की संकीर्ण राजनीति के लिए अतीत की जरूरत होती है। रेडीकल विचारों को भविष्य के लिए सौंपने का अर्थ है आलोचना में आत्मालोचना का विकास करना।
हिन्दी में आत्म-समीक्षा कम लिखी गयी है। आलोचकीय साहस और सहिष्णुता का अभाव है। आलोचना में आत्म-समीक्षा ,साहस और सहिष्णुता के अभाव से ही अहं पैदा होता है। हमारी आलोचना की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह अपने को संपूर्ण मानती है,संपूर्ण आलोचना के नाम पर आलोचना में अप्रासंगिक लेखन की बाढ़ आई हुई । आलोचना आज किताब के बाजार प्रमोशन स्कीम का हिस्सा हो गयी ै। किताब के लिए बाजार तैयार करना बुरी बात नहीं है। किंतु इसी को एकमात्र आलोचना कहना सही नहीं है। आलोचना में जनतंत्र का आधार है लोकतंत्र की हमारी सही समझ। लोकतंत्र की सही समझ ही आलोचना में लोकतंत्र के विकास का रास्ता खोलती है।
हिन्दी आलोचना में 'संतुलन' पर कम 'सिध्द' करने पर ज्यादा जोर है। आलोचना 'सिध्द' करने का औजार नहीं है,वकील का तर्क नहीं है।बल्कि सृजन है। आलोचना कैसी होगी ? उसकी प्रकृति कैसी होगी? इस सवाल का जबाव साहित्य की धारणा से जुड़ा है। हम अभी तक साहित्य की धारणा  को परंपरागत साहित्य की धारणा के दायरे के बाहर नहीं ला पाए हैं। 'साहित्य' और 'जनप्रिय साहित्य' का अंतर आज भी प्रचलन में है। इसका क्लासिक उदाहरण है नागार्जुन और फिल्म गीतकार शंकर शैलेन्द को लेकर हमारा दोहरा रूख। सवाल उठता है क्या शैलेन्द्र के गीत हिन्दी साहित्य परंपरा का हिस्सा हैं ? यदि नहीं तो क्यों ? क्या किसी गीतकार की रचनाओं का फिल्मों से अथवा ऑडियो इण्डस्ट्री के द्वारा प्रसारण उसकी साहित्यिक-कलात्मक गुणवत्ता को खत्म कर देता है ? क्या इसी आधार पर भक्ति-आंदोलन के कवियों की रचनाओं ,रामचरित मानस जैसे महाकाव्य को साहित्य से बहिष्कृत किया जा सकता है ? क्या प्रेमचंद के गोदान उपन्यास को फिल्माने के कारण साहित्य से निकाला जा सकता है ?इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या मीडियम के आधार पर कृति को देखें अथवा कृति के आधार पर उसका मूल्यांकन करें ? कृति महत्वपूर्ण है। अंतर्वस्तु महत्वपूर्ण है, विधा महत्वपूर्ण है। मीडियम या शैली या वर्गीकरण महत्वपूर्ण या निर्णायक नहीं
हैं।
आज साहित्य और जनप्रिय साहित्य के भेद को खत्म करने की जरूरत है।मीडिया,मासमीडिया, संचार , जनसंचार,साइबर संचार आदि के भेद को खत्म करने की जरूरत है। इनमें चल रही अन्तर्क्रियाओं को पहचानने की जरूरत है,इससे आलोचना और साहित्य दोनों समृध्द होंगे। यदि किसी गीतकार के फिल्मी गीतों का कैसेट संकलन आता है तो उसे कृति के रूप में लिया जाना चाहिए। इसी तरह किसी लेखक का नेट पर अथवा अखबार में अच्छा लेख छपता है तो वह गद्य साहित्य का हिस्सा होना चाहिए। यही स्थिति अन्य विधाओं की है। आज साहित्य से पापुलर साहित्य को अलग रखने का तर्क बेमानी है। इसी तरह पापुलर गद्य और साहित्यिक गद्य में अंतर नहीं किया जाना चाहिए। उल्लेखनीय है आधुनिक गद्य की शुरूआत पापुलर गद्य लेखन से ही हुई थी। भारतेन्दु की हिन्दी नयी चाल में तब ही ढली जब बाजारू पत्रिका का
 जन्म हुआ। बाजारू पत्र-पत्रिका अथवा इलैक्ट्रोनिक मीडिया में जन्मे विधारूपों और प्रयोगों का वही महत्व है जो किसी साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित चीजों का है। उल्लेखनीय है 'जनप्रिय' और 'साहित्यिक' में आदान-प्रदान होता रहा है जिसकी हमने अनदेखी की है।
पापुलर साहित्य और पापुलर संस्कृति ने बाकायदा साहित्य-संस्कृति से ग्रहण किया है,पापुलर संस्कृति में साहित्य और संस्कृति को लेकर किसी भी किस्म के पूर्वाग्रह नहीं हैं। किंतु साहित्य में पापुलरसाहित्य और पापुलरकल्चर को लेकर पूर्वाग्रह बने हुए हैं। इन्हें तोड़ने की जरूरत है।
 हमारी आलोचना का अधिकांश हिस्सा आज भी एकायामी है, हम मार्क्सवाद के आगे बढ़ ही नहीं पाए हैं। अन्य आलोचना स्कूलों जैसे संरचनावाद, रूपवाद , अस्तित्ववाद, उत्तर संरचनावाद आदि के तो हमारे यहां दर्शन दुर्लभ हैं।  हमने आलोचनात्मक वैविध्य से मुंह फेर लिया है।आलोचना को हमने शिक्षक की दासी बना दिया। वह उसके यहां कैद है। हम अन्तर्विषयवर्ती आलोचना से डरते हैं।
अन्तविषयवर्ती आलोचना पध्दति में प्रवेश का अर्थ है आलोचना का कायाकल्प, आलोचना को फतवे,निर्णयात्मकता और केटेगराइजेशन के पुराने ढ़ांचे से बाहर निकालना। हमारी आलोचना में शब्द स्फीति ज्यादा है आलोचना कम है। लोकतंत्र तो उससे भी कम है। हिन्दी आलोचना आज भी आलोचना ख्यातनामा आलोचकों के यहां बंधक है। इस तरह की आलोचना अपनी शक्ति और उपलब्धियों पर अपने हाथों अपनी पीठ ठोंकती रही है। 'ख्यातनामा' आलोचकों ने जिस व्यक्ति की प्रशंसा या निंदा कर दी वह महान् और घटिया है। जिसके बारे में कुछ भी नहीं बोला वह बोगस है। कूड़े के ढ़ेर पर फेंकने लायक है। आज कृति अपनी शक्ति के बल पर नहीं आलोचक की प्रशंसा के आधार पर स्वीकार और अस्वीकार की जाती है। आलोचना में लोकतंत्र चंद आलोचकों से नहीं बनता। आलोचना की शर्त है कि सटीक और सही अवधारणा में लिखा जाए। हमें सटीक लेखन से परहेज है। हमने कम लिखने का आदर्शीकरण किया है।
हिंदी में बड़े ही फूहड़ ढ़ंग से जनतंत्र में प्रचलित राजनीतिक कोटियों और अवधारणाओं का मानक के रूप में यांत्रिक इस्तेमाल होता है। आलोचकों ने जनतंत्र के दैनन्दिन क्रिया-कलापों के साथ साहित्यालोचना का रिश्ता इस कदर नत्थी किया है कि इससे आलोचना की विदाई हो गयी है। आलोचना की भाषा राजनीतिक भाषा में तब्दील हो गयी। इस तरह के प्रयासों में कोई ईमानदार कोशिश भी रही हो,किंतु समग्रता में देखें तो आलोचना की क्षति हुई है। आलोचना में जनतंत्र का अर्थ राजनीतिक जनतंत्र की कोटियों और अवधारणाओं का यांत्रिक प्रयोग नहीं है।
आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ अनालोचनात्मक ढ़ंग से सब कुछ स्वीकार कर लेना नहीं है।सबको संतुष्ट करना नहीं है। आलोचना में लोकतंत्र का अर्थ है आलोचना में आत्मालोचनात्मक विवेक पैदा करना। आलोचना की अवधारणाओं का सही प्रयोग करना। आलोचना के बृहत्तर सैध्दान्तिक प्रश्नों को उठाना। साहित्य और जीवन में सही और गलत का बोध पैदा करना। साहित्य और आलोचना को पारदर्शी बनाना। उसके आंतरिक तत्वों को ज्यादा लोचदार और पारदर्शी बनाना,पाठक को शिरकत का अवसर देना, असहमति को जगह देना। साहित्य और आलोचना के प्रति अभिरूचि पैदा करना। कृति ,कृतिकार और पाठक के बीच जनतांत्रिक संबंध बनाना।
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