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आलोचना:स्व-पराजय के चक्र में न पड़े
Posted फ़रवरी 27, 2011 by jayantijain in Art of Living, Articles, Self-Healing, Spirituality, Stress Management, success. Tagged: अवचेतन मन, असफलता, आलोचना, क्षमता, जीने की कला, जीवन प्रबन्धन, टिप्पणी, तनावमुक्ति, मनोवृती, Beliefs. 7s टिप्पणियाँ
आलोचना एक राक्षस है।स्वयं को हानि पहंचाने वाले कृत्य करना स्व-पराजय है। हम सामान्यतः ईष्र्या के कारण दूसरों की बुराई कर स्वयं को हराते है। किसी की बुराई कर अपना समय खराब न करें। अपनी ऊर्जा बचाएँ।दूसरों की बुराई करने मंे अपना बुरा करते है। आलोचना करना स्व-पराजय के चक्र में उलझना है। जीवन बहुत कीमती है। दूसरो की बुराई करना फालतू लोगों का, ईष्यालू लोगों का काम है।
हमारे पास जीवन का ध्येय है, उसको पूरा करने का ही समय नहीं है। अनावश्यक टीका-टिप्पपणी में अपने को खर्च न करें। गांठ का खाना व बुराई में ऊर्जा खर्च करना उचित नहीं है। बुराई कर हम अपने व्यक्तित्व को प्रक्षेपण करते है। हम अपनी तस्वीर दिखाते है। हमारे पूर्वाग्रह उसमें बडी भूमिका निभाते है। हमें दूसरें में बुराई निरपेक्ष नहीं दिखती है। बुराई के क्रम में हमें कई बार दूसरे उपयोग कर लेते है। दूसरे अपना उद्देश्य पूरा करते है। डेल कारनेगी ने आलोचना को एक राक्षस की संज्ञा दी है। यह एक ऐसा राक्षस है जो स्वयं को ही खाता है।
बुराई सुनना व बुराई करने के क्रम में न पड़े। इससे नकारात्मकता उपजती है व जीवन में अन्धेरा बढ़ता है। इससे समय ,मन,तन,व धन की हानि है। नकारात्मक आलोचना हानिप्रद है जबकि सकारात्मक आलोचना आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है। आलोचना करने से व्यक्ति अपनी निगाह में गिर जाता है। इससे उसका आत्म गौरव घटता है। प्रकाश को देखो। सकारात्मक रहें। रचनात्मक रहें , स्वयं को हर कहीं खर्च न करें। जीवन में गुणवत्ता महत्वपूर्ण हैं। उसें सार्थक बनाएँ। सफलता के पथिक स्व-पराजय के चक्र में नहीं पड़ते ।
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” पर-निंदा कुशल बहुतेरे “।