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Wednesday, October 5, 2011




आलोचना में रचना का सुख



भाषा, कथ्य, विचार, चयन, विश्लेषण, प्रस्तुति, कैनवास हर दृष्टि से अद्भुत है वरिष्ठ आलोचक प्रभाकर श्रोत्रिय की
पुस्तक ‘कवि परंपरा- तुलसी से त्रिलोचन’। पुस्तक में प्रभाकर श्रोत्रिय ने हिंदी के 21 प्रतिनिधि कवियों को अपनी आलोचना दृष्टि से विश्लेषित कर उनका लेखा-जोखा बड़ी संजीदगी और गहराई से प्रस्तुत किया है।
पुस्तक की भूमिका में लेखक लिखते हैं ‘हिंदी का चरित्र दरबारी नहीं है, यह उस आदमी की जमीन है, जो चौपालों, उत्सवों, बात-बात में कविता से बड़ा सहारा पाता है… अपनी भाषा और जन का रंगारंग स्वभाव न समझने वाले लोगों ने आज कविता की जो ‘हदें’ खींच दी हैं उन्हें इस ‘बेहद’ आदमी की चिंता भी करनी चाहिए। कविता को आपस का मामला बना कर कब तक जिंदा रखेंगे आप?’
सबसे पहले प्रतिनिधि कवियों के चयन की बात करें। आलोचक आलोचना की स्टाक मार्केट में ऊंची बोली वाले शेयरों से प्रभावित नहीं है। तुलसी, कबीर, सूर, प्रसाद, निराला, महादेवी, मुक्तिबोध् तो स्वाभाविक चयन हैं परंतु बाकी के कवि जैसे प्रकृति में रचे-बसे पंत, अतीत से वर्तमान और भविष्य को पारिभाषित करते मैथलीशरण गुप्त, लोक जीवन के चितेरे भवानी प्रसाद मिश्र, महीन- जहीन रेशम सी कविताओं के कवि नरेश मेहता, आलोचकों द्वारा ढेर किए गए धर्मवीर  भारती, कवि के रूप में बहुत कम चर्चित रामविलास शर्मा, राष्ट्रीय धरा के कवि होने के कारण उपेक्षित माखनलाल चतुर्वेदी जैसे कवियों को शामिल कर आलोचक ने अपनी विशिष्ट दृष्टि और एजेंडे का परिचय दिया है।
आज बाईट का जमाना है यानि आपसे टेलीविजन चैनल कहते हैं एक पंक्ति में या कुछ शब्दों में टिप्पणी करें। अगर चंद शब्दों में हिंदी के इन महारथी कवियों को विश्लेषित करना हो तो शायद ही पुस्तक में दिए शीर्षकों से बेहतर कुछ ढूंढा जा सकेगा। जैसे कबीर-तोड़ने और रचने की समझ, सूरदास-भीतर नैन बिसाल, प्रसाद-विरोधें का सांमजस्य, नागार्जुन-जनता की लहरों पर सवार, मुक्तिबोध्-कवि के युद्ध , निराला शक्ति के विरुद्ध  शक्ति-साध्ना। क्या यह आपको हिंदी के प्रतिनिधि कवियों को समर्पित पांच-सात शब्दों की कविता नहीं लगती?
पुस्तक की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता आलोचना की नब्ज पर लेखन का हाथ है। यह आलोचना स्वतंत्रा होते हुए भी कवियों के संबंध् में अब तक आलोच्य पाठ को केंद्र में रख उन्हें आंकती है और अपनी गहन संवेदन दृष्टि से प्रखरता के साथ संदर्भित कवि को समुचित परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती है। वे आलोचकों द्वारा कबीर की समाज-सुधरक और विरोध् की छवि के केन्द्र में रहे अध्यात्म की उपेक्षा किये जाने पर वे लिखते हैं- ‘उनका सामाजिक कथ्य, उनका विद्रोह अध्यात्म में गूंथा हुआ है और विद्रोह में अध्यात्म यह ताना-बाना है। इसे अलग- अलग करने पर उनकी चादर ही तार-तार हो जाती है।’
कबीर की रचनाओं की भावभूमि का सम्यक विश्लेषण कोई अपवाद नहीं। इसी तरह हिन्दी कविता आलोचना को नए सिरे से परिभाषित करने वाले आलेख अज्ञेय, धर्मवीर  भारती, नरेश मेहता आदि के संबंध् में है। उन्होंने मुक्तिबोध् को कलावादी कह कर अवमूल्यन करने वालों की जहां खबर ली है वहीं ‘जनता की लहरों पर सवार’ नागार्जुन का जीवंत चित्रा प्रस्तुत किया है। पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता अनुपात में आलोचना या प्रशंसा है। यह विशेषता मैथलीशरण गुप्त, धर्मवीर  भारती, शिवमंगल सिंह सुमन, त्रिलोचन के संबंध् में विशेष रूप से परिलक्षित होती है।
पुस्तक आलोचना की है परन्तु रचना का सा सुख देती है। कहीं डायरी की तरह चीजों को दर्ज करती, कहीं गहरा प्रभाव छोड़ने वाली कविताओं को उदृत  करती, कहीं संस्मरण सुनाती, कहीं रामचन्द्र शुक्ल की तरह पंक्तिया उदृत  करने वाली पंक्तियों की श्रृंखला देती, कहीं उर्दू की रवानी देती तो कहीं बोलियों की जीवंतता। आलोचना की यह पुस्तक हिन्दी कविता आलोचना को पुनः परिभाषित करेगी ऐसा विश्वास है। दिनकर, धूमिल, बच्चन, श्रीकांत वर्मा जैसे कवियों की अनुपस्थिति कुछ सवाल जरूर उठाती हैं, परन्तु यह ऐसी पुस्तकों की सीमा भी हो सकती है।
अनिल जोशी
अक्षरम ,अप्रैल जून 2008

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