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Wednesday, October 5, 2011

प्रेमचंद को हम आज भी बहुत कम जानते हैं : लाल बहादुर वर्मा


प्रेमचंद : प्रासंगिकता के सवाल

>> 31 July 2009


प्रेमचंद आज किन अर्थों में और किसके लिए प्रासंगिक हैं? हिंदी में बहस अब जनवाद से छूटकर स्त्री, दलित, आदिवासी जैसे महत्वपूर्ण विमर्शों पर केंद्रित हो गई है। इन विमर्शों के अपने सरोकार और दायरे हैं जिनके आधार पर पूर्व के ‘गढ़ों-मठों’ की विवेचना चालू है और उन पर सवाल उठाए जा रहे हैं। इस विवेचन-पुनर्पाठ के केंद्र में भारतीय किसान की ‘महागाथा’ लिखने वाले प्रेमचंद भी जब-तब आते रहे हैं। देश में बहुसंख्यक किसान ‘दलित’ हैं लेकिन संभवतः प्रेमचंद ने सामंती व्यवस्था में किसान को ‘किसान’ ही समझा, दलित नहीं। शायद इसीलिए दलित विमर्शकारों का मानना है कि वह ‘सामंतों के मुंशी’ हैं या उन्होंने ‘दलितों का लुंपेनाइजेशन’ किया है। दूसरी ओर स्त्री विमर्श के नजरिए से भी प्रेमचंद की ‘धनिया’, ‘झुरिया’, ‘जालपा’, ‘मालती’, ‘गोविंदी’ में मुक्ति की आकांक्षा, छटपटाहट, विद्रोह दिखाई नहीं देता। प्रेमचंद ने जिस भारतीय किसान को अपनी महागाथा के केंद्र में रखा उसकी आज की जीवन स्थितियां कहीं ज्यादा जटिल, त्रासद और यातनापूर्ण हो गई हैं। प्रेमचंद के किसान ने जीवन से पलायन का रास्ता नहीं चुना था, आज का किसान हाशिए का ऐसा निरीह प्राणी है जिसकी नियति में सिर्फ आत्महत्या लिखी है। प्रेमचंद का किसान सामंतों की गुलामी को अभिशप्त था, आज का किसान मल्टीनेशनल कंपनियों के खाद, बीज और राज्य की नीतियों के चलते आत्महंता हो रहा है। आशय यह कि किसान जीवन के यथार्थ भी पूरी तरह से बदल चुके हैं। अब सवाल यह है कि महिला के रूप में ‘आधी-आबादी के निकल जाने और दलित के रूप में एक विशाल आधार के खो जाने के बाद प्रेमचंद के पास बचता क्या है? उनके संबोधन, आह्वान का शेष कौन है? क्या खाया-अघाया सामंत और सवर्ण!!लेकिन ऐसा नहीं। तो फिर किनके लिए प्रासंगिक रह गए हैं प्रेमचंद? क्या प्रेमचंद में ऐसी संभावना शेष है जो आज के भारतीय किसान के हक की आवाज बन सके? प्रस्तुत है एक परिचर्चा-

प्रेमचंद को हम आज भी बहुत कम जानते हैं : लाल बहादुर वर्मामूल प्रश्न यह है कि हम प्रेमचंद को कितना जानते हैं। प्रेमचंद बेहद सरलीकरण के शिकार हैं- जैसे, उपन्यास सम्राट, गांव का चितेरा, आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी आदि। मैं समझता हूं कि यह एक अश्लील सरलीकरण है। हकीकत यह है कि प्रेमचंद को हम आज भी बहुत कम जानते हैं। आज की समस्याएं चाहे वह नारीवाद हो या दलित विमर्श, इनके लिए प्रेमचंद को प्रासंगिक मानना एक बचकानी अपेक्षा है। प्रेमचंद का सबसे प्रासंगिक और उत्साहजनक पक्ष उनकी विकासोन्मुखता और उनके सार्विक सरोकार हैं। यह उनके साहित्य से ज्यादा साहित्येतर लेखन में परिलक्षित होते हैं। इसलिए प्रेमचंद को हिंदी का कथा सम्राट मानने से हिंदी का भला नहीं होने वाला। उन्हें सामंतों का मुंशी कहना भी एक तरह का सरलीकरण है। प्रेमचंद एक बेहद जेनुइन और साहसी लेखक हैं। उन्होंने अपने जीवन में जो जोखिम उठाए वह आज के लेखकों के लिए भी संभव नहीं। उनके लेखन और व्यक्तिगत जीवन में अंतर कम है।

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वे विश्वदृष्टि सम्पन्न लेखक हैं : परमानंद श्रीवास्तवप्रेमचंद अपने समय में जितने महत्वपूर्ण थे उससे कहीं अधिक हमारे समय में महत्वपूर्ण हैं। गोदान का नायक होरी है, लेकिन धनिया जैसी नायिका उस पर भारी पड़ती है। होरी कायर है, वह सबसे डरता है। राय साहब के पांव तले उसका सिर पड़ा है। लेकिन धनिया पुलिस जुल्म को सीधे चुनौती देती है। वह महाजन को भी फटकारती है और होरी की कायरता पर भी कड़ी आपत्ति करती है। प्रेमचंद, मेहता की प्रेमिका के रूप में मालती को दिखाते हैं। जब तक वह फैशनेबुल लगती है तब तक प्रेमचंद उसे मधुमक्खी कहते हैं। लेकिन उसका रूप बदल जाता है, वह समाजसेवा में लग जाती है क्योंकि वह चिकित्सक है। गांव में जाना, प्रसव कराना, बच्चों का स्वास्थ्य परीक्षण करना, ये सब उसके नए काम हैं। फिर निर्मला जैसे उपन्यास को मैं एक हद तक स्त्रीवादी या फेमिनिस्ट मानता हूं। जब सौतेले बेटे को लेकर उसके वृद्ध पति निर्मला पर संदेह करते हैं तो निर्मला कहती है कि अगर मैं जानती कि यह लड़का मुझे और तरह से चाहता है तो मैं उसके लिए कुछ भी कर सकती थी। जहां तक दलितों का प्रश्न है, घीसू और माधव भी धार्मिक अंधविश्वास और लोकरीति को कफन में नकारते हैं। फिर रंगभूमि का नायक सूरदास है, वह भी दलित है। जब उससे कहा जाता है कि तुम्हारा घर जला दिया जाएगा तो क्या करोगे, उसका जवाब होता है कि मैं फिर बनाउंगा, सौ बार जलाया जाएगा तो सौ बार बनाउंगा। तो यह है प्रेमचंद का जीवट। वे विश्वदृष्टि सम्पन्न लेखक हैं और आज भी हमारे लिए सार्थक हैं। एक कालजयी लेखक हर समय हमारा समकालीन होता है।

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उतने ही प्रासंगिक, जितने पहल थे : चमन लाल
प्रेमचंद निश्चय ही आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने वे पहले थे या शायद पहले से भी ज्यादा. दो लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्याएं उन्हें आज भी किसानों के दुःख दर्द, साथ ही स्त्रियों और दलितों के दुःख दर्द को उकेरने वाले लेखक के रूप में हमारे सामने लाती हैं.


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हिंदी में दलित विमर्श का बीजारोपण करने वाले पितामह : शिवमूर्ति
प्रेमचंद दलित विमर्श में भी आते हैं। वह हिंदी में दलित विमर्श का बीजारोपण करने वाले पितामह हैं। इसके साथ ही नारी विमर्श भी प्रेमचंद के उपन्यासों से लेकर उनकी कहानियों में फैला हुआ है। चाहे वह धनिया हो या झुरिया या रंगभूमि की नायिका, जो सूरदास के संघर्ष में शामिल होती है। हम तो यह चाहते हैं कि प्रेमचंद की प्रासंगिकता जितनी जल्दी हो सके खत्म हो जाए अर्थात-दलितों और स्त्रियों की दशा सुधर जाए, मजदूरों का शोषण समाप्त हो, दमन समाप्त हो और इसके साथ-साथ प्रेमचंद की प्रासंगिकता समाप्त हो जाए। लेकिन शोषण अपने रूप बदल-बदल कर अब भी समाज में मौजूद है इसलिए प्रेमचंद अब भी प्रासंगिक हैं। जहां तक सवाल है प्रेमचंद को सामंतों का मुंशी और दलितों का लुंपेनाइजेशन करने वाला बताने की तो ऐसे लोगों को सन् 30-35 का जमाना अपने दिमाग में रखना चाहिए कि उस समय हिंदी समाज के गांव की स्थिति क्या थी। यदि यह ध्यान में रखकर विचार करेंगे तो उन्हें प्रेमचंद से शिकायत नहीं होगी।


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प्रेमचंद की हर स्त्री पात्र अपने तरह से संघर्ष कर रही : नमिता सिंह
प्रासंगिकता के प्रश्न हमारे यहां भ्रमित करते हैं। लोग यह समझते हैं कि प्रेमचंद ने जिन विषयों पर लिखा, उन्हीं पर लिखना आज उनकी प्रासंगिकता है। उदाहरण के लिए, प्रेमचंद को ग्रामीण जीवन का लेखक कहा जाता है, इसलिए जो लेखक ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि पर लेखन कर रहा है, माना जाता है वह प्रेमचंद की परंपरा का निर्वहन कर रहा है। प्रासंगिकता का यह अर्थ कतई नहीं है। प्रेमचंद के लेखन का समय राष्ट्रीय आंदोलन का समय था। वह उभरते हुए बुर्जआ पूंजीवाद, उभरती हुई आक्रामक दलित चेतना और नई बन रही स्त्री चेतना का समय था। प्रेमचंद अपने समय को बारीकी से पढ़ते हुए उसे विश्लेषित कर रहे थे। नए समाज की संरचना कैसी होगी इसकी पड़ताल करते हुए उसे अपने लेखन का विषय बना रहे थे। इस रूप में प्रेमचंद एक संपूर्ण लेखक के रूप में हमारे सामने आते हैं। और उनकी प्रासंगिकता के यही अर्थ हैं। कर्मभूमि में मध्यवर्गीय स्त्रियां, उच्च वर्गीय रानी रत्ना और मजदूर वर्ग की दलित स्त्रियां जैसे सलोनी काकी और मुन्नी अपने-अपने तरह से संघर्ष कर रही हैं। वे परंपरागत स्त्री की तरह मूक और दीन-हीन नहीं हैं। मालती का चरित्र गोदान में प्रेमचंद एक आधुनिक स्त्री के रूप में गढ़ते हैं जो अपनी अस्मिता के प्रति सजग है और जिसके लिए विवाह ही अंतिम लक्ष्य नहीं है। मिस पद्मा के रूप में प्रेमचंद आधुनिकता के दूसरे विकृत रूप को भी अंकित करते हैं। सेवा सदन में सुमन और भोली जैसे पात्रों के माध्यम से आर्थिक स्वावलंबन के प्रश्न उठाते हैं। निर्मला में अनमेल विवाह और दहेज की विभीषिका से उत्पन्न परिस्थितियों का भी चित्रण करते हैं। ये सभी प्रश्न अपने समय के साथ जुड़े हुए हैं। आज भी जो प्रश्न सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्तर पर कथा साहित्य में उठाए जा रहे हैं वे ही साहित्य में प्रेमचंद की प्रासंगिकता को बनाए रखेंगे।

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सवाल का पोल : क्या आज प्रेमचंद प्रासंगिक हैं
परिणाम : हां 64.7% नहीं 17.6% कह नहीं सकते 17.6%

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