दलित चिंतकों और लेखकों को अपने भीतर भी झांकने की जरूरत
पिछले दो दशकों में दलित साहित्य आंदोलन को जिस उंचाई की ओर बढ़ना चाहिए था,वैसा नहीं हो सका। इसके बाहरी, भीतरी कई कारण हैं। बाहरी कारण तो स्पश्ट रूप से सभी को दिखाई दे रहा और इस पर बहुत तीव्र गति से प्रतिरोध भी षुरू हो गया है,किन्तु भीतरी कारणों पर खुलकर चिंतन-मनन और चर्चा करने के लिए आज भी दलित चिंतक, साहित्यकार तैयार नहीं। वे आज भी शुर्तुगमुर्गी प्रवृत्ति अपनाकर बैठे हुए हैं। यही कारण है कि एक ओर बाहरी तत्व हावी हो रहे हैं और दूसरी ओर नासमझ, मूरख एवं महत्वहीन लोगों की तूती बोल रहीं है। ऐसे लोगों ने न केवल दलित साहित्य के आंदोलन को कुंद किया है, बल्कि ब्राह्णणों एवं ब्राह्मणवादियों के हाथों उसे गिरवी रखने का षडयंत्र तक रच डाला है। इन्हीं लोगों के पर निकल आए हैं। असल में वे इस सशक्त आंदोलन को जिनके लिए मैंने बीस वर्ष पहले लिखा था कि‘‘रोकना है मुश्किल इस सैलाव को‘‘ छिन्न-भिन्न करने में लगे हुए हैं। इस पर विचार कर समाधान ढूंढने की आवश्यकता है।
यूं तो दलित आंदोलन के विविध पक्षों की एक लम्बी एवं सशक्त परंपरा है, लेकिन पिछले 24 वर्ष पहले हिन्दी दलित साहित्य में जो तूफान उठा था और जिसके उफान से ऐसा लग रहा था कि ब्राह्णणवाद की दीवारें दरकने लगीं हैं, वह मानों एक दम शांत पड़ गया। इसके कारणों पर दलित चिंतक एवं साहित्यकारों को चिंतन-मनन करना ही पड़ेगा।
इन दिनों दलित साहित्य आंदोलन को लेकर जोर-षोर से चर्चा चल पड़ी है। चिंतको एवं साहित्यकारों ने बहस छेड़ दी है कि पीछे की परंपरा से बहुत कुछ छूट गया है। महापुरूषों ने भी बहुत कुछ छोड़ दिया है। क्यों? कैसे? कब छूट गया। उस पर शोध भी होने लगे एवं तथ्य भी जुटाए जाने लगे हैं। बड़ी अच्छी बात है, भूलों को सुधार कर सबक सीखने की नितांत आवश्यकता है। लेकिन बिडंबना यह भी है कि जो लोग इन मुद्दो को उठा रहे हैं, वे स्वयं भी इसी प्रकार की गलतियों को दोहरा रहे हैं। उन्होंने भी जानबूझ कर प्रसिद्धि पाने की होड़ में बहुत से महत्वपूर्ण तथ्यों को छोड़ दिए हैं।
‘‘जपू जी‘‘ यानि नाम जपने की परंपरा एक बहुत ही खतरनाक परंपरा है। यह ब्राह्णणवादियों की परंपरा है, हमारी नहीं। चाहे हमारे महापुरूष हो या चिंतक दानों के नाम को लेकर कोई माला जपे तो यह खतरनाक है। ‘जपू जी‘ की जगह महापुरूषों एवं चिंतकों द्वारा दिए गए विचारों पर अमल करने की जरूरत है। आज भी हमारे लेखक जब दलित साहित्य के आंदोलन के इतिहास पर आलेख लिखने बैठते हैं तो बिना सबकुछ जाने-समझे अपने ईर्द-गिर्द रहने वालो के नामों का उल्लेख कर छुट्टी कर देते हैं। यह केवल एक प्रकार की साजिश ही नहीं, बल्कि मूर्खता है। किन्तु जब दलित साहित्य के चिंतक भी अपने तोता रटतु चेलों की सह पर दलित साहित्य आंदोलन के नींव डालने वालों के नामों को दरकिनार करने लगें तो असामाजिक तत्वों को सेंध लगाने में आसानी तो होगी ही।
जैसा कि मैंने पहले कहा कि दलित आंदोलन के विविध पक्षों की जिसमें साहित्यिक आंदोलन भी शामिल है, एक लम्बी एवं सशक्त परंपरा रहीं है। कोई आसमान से टपक कर अचानक महापुरूष नहीं बन गया । उन्हें महापुरूष बनाने में हमारे पूर्वजों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसे नकारना बहुत बड़ी भूल होगी और आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी। वास्तव में आदिकाल, मध्यकाल के साहित्य में और लोक साहित्य में दलित साहित्य की सतत परंपरा रहीं है। लगभग सभी भारतीय भाशाओं में चकित कर देने वाले उदाहरण भरे पडे़ हैं। बस षोध द्वारा उसे उद्घाटित की जरूरत है। एकांगी होकर एक भाशा तक दलित साहित्य के सशक्त आंदोलन को सीमित कर देना यह और कुछ नहीं ब्राह्णणवादियों की साजिश ही है।
वर्तमान समय में दलित साहित्य आंदोलन की बीच चिंतकों एवं लेखकों ने सोची समझी नीति के तहत जोड़-घटाव का तरीका अपना लिया है। यह आत्मघाती साबित होगा। इसके लक्षण भी दिखाई देने लगे हैं। अपनी-अपनी ढपली, अपना-अपना राग छोकर समवेत स्वर में गाना पडे़गा, तभी आंदोलन की धार तेज होगी।
छद्म प्रपंच की परंपरा ब्राह्णणवादी परंपरा है। यह दलित संस्कृति की परंपरा तो कतई ही नहीं। भेड़िया से बचना है तो खुद भेड़िया बनकर नहीं भेड़िया और लोमड़ी की गुणों को अपनाना हमारी संस्कृति में शामिल नहीं हमें तो समतामूलक गुणों को ही अपनाना पड़ेगा। चार लोगों का गुट बनाकर अंधेर नगरी में चैपट राजा बनने से पूरे समाज का भला तो नहीं, बल्कि अहित ही होगा।
एक ओर यह बात भी की जाती है कि इतिहास का दस्तावेज बनाना चाहिए। जब पूरे इतिहास को उद्घाटित किया जाता है तो हाय-तौबा मचाकर सच्चाई को दबा दिया जाता है। अब वक्त आ गया है कि सबकुछ सामने रखकर सच्चा एवं मजबूत इतिहास लिखा जाए न कि झूठ-फरेब पर आधारित झूठा इतिहास। हमें दोहरी नीति को त्यागना ही पड़ेगा।
दलित साहित्य में द्विजों की घुसपैठ पर ‘बयान‘ पत्रिका का विषेशांक निकलना शुभ संकेत हैं। लेकिन इसी घुसपैठ को रोकने के लिए दो दशक पहले मैंने ‘‘हॅंसे थे वे‘‘षीर्शक से कविता लिखी थी जिसे ‘बयान‘ पत्रिका में इस वक्त प्रकाशित किया गया। दलित साहित्य और दलित लेखक संघ को लेकर जो राजनीति शुरू हुई उस समय मैंने अपने लगभग सभी दलित लेखक भाईयों को चेताया था। मैंने कहा था कि महत्वहीन लोगों को शामिल किया जाएगा तो सब कुछ महत्वहीन हो जाएगा। मुझे नहीं मालूम किस हीन भावना से ग्रसित होकर लोगों ने मेरे विचारों की उपेक्षा ही नहीं की बल्कि हर दृश्टि से उसे दर-किनार करने का प्रयत्न भी किया। आज वर्षों बाद मेरी बातों को नहीं मानने का दुष्परिणाम दिखाई दे रहा है। लोग पत्रों द्वारा अपनी सफाई और भड़ास निकाल रहे हैं। यदि अभी भी लेखक-चिंतक ‘‘कूप मंडुकता‘‘ से बाहर नहीं निकले तो ‘‘जूता-चप्पल फैंक संस्कृति‘‘ का विस्तार होता जाएगा। पिछले दो दशकों में बिखरे रहकर भी दलित लेखकों-चिंतकों ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई हे। यह नाकाफी है,आवश्कता है 24 वर्ष पीछे उठे तूफान की तरह सभी उठ खड़े हों और इसे संगठित रूप प्रदान करें, क्योंकि षडयंत्रकारी हर दृष्टि से सशक्त है।
अंत में मेरी यही राय है कि ‘मैदान खाली होगा तो उसमें घास-फूस, कांटे उग ही आऐंगे‘जो किसी काम के न होंगे बल्कि कष्ट ही पहुंचाएंगे। इसलिए आवश्कता है दलित साहित्य के इस मैदान में अच्छे-अच्छे पेड़-पौधे लगाए जाएं जो उपयोगी फल-फूल प्रदान कर सकें। सशक्त साहित्यिक आंदोलन से ही इस देश का दलित-पिछड़ा समाज मुक्ति एवं स्वतंत्रता को प्राप्त करेगा और स्वावलंबी बन पाएगा।
प्रो0 शत्रुघ्न कुमार
25-रणजीत सिंह ब्लाक
खेल गांव, नई दिल्ली-49
मो0- 09811243423
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