निराला केर दुइ पाती आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के नाम ! ( १९२३ ई. )M
यै पत्र अवधी पत्र-साहित्त कै धरोहर हुवैं। १९२३ ई. की जानी कौनी घड़ी मा लिखा गा रहे है! इनसे ई बात जानी जाय सकत है कि वहि समय गद्य मा खड़ी बोली कै धूम-धड़ाका न रहत तौ का जनीं केतना लेखन अवधी मा आइ जात! यई निराला पढ़ीस केर अवधी कबिताई का सराहत रहे, खुदौ पत्र लिखिन, मुल जाने कौन वजह रही कि खुद अवधी मा कविताई नाहीं किहिन! करते तौ नीक रहत! बहरहाल निराला केर ई दुई पाती हमरे सामने अहैं:
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[ १ ]
महावीर प्रसाद द्विवेदी को
“मतवाला” कार्यालय।
बालकृष्ण प्रेस,
२२, शंकरघोष लेन,
कलकत्ता, २७/१०/१९२३
श्री १०८ कमलचरणनमां
विजया क असंख्य भूमिष्ठ
प्रणाम।
बाबा
लिखा रहै, कतों जाब। मुलो जाब नहीं भा। हियैं रहि गयन। कलकत्ते की पूजा दीख। ८-मी के दिन बाबू मैथिलीशरण ते भेट भै, राय कृष्णदास के साथ आये रहैं। ३/४ दिन कउनव माड़वारी की कोठी मं [ मँ ] रहे रहैं। स्वभाव के तो बड़े अच्छे हैं। एक एक ‘अनामिका’ दूनो जनेन का दीन। तब पढ़ि कै सुनावा। प्रसन्न खूब भे। कहेन पहिलेहे रचना बड़ी अच्छी जानि परी मुलो छंद समुझ मं [ मँ ] नहीं आवा। हम कहा, हमरी समुझ मं [ मँ ] यहि छंद ते तुम्हरे वीरांगना के अनुवाद के छंद मं [ मँ ] बहुत थ्वारै फर्क है; वह बेतुका कवित्व छंद है औ यहि मां कतों कवित्व छंद की ३/४, कतों १/२, कतों १/३ लाइन आवति है। महादेव बाबू हमरे परिचय मं [ मँ ] तुम्हार संबंध जोरेन तौ मैथिलीशरण कहेन कि हमका तौ वई बनायन हैं। यही तना की बहुतेरी बातैं होती रहीं। हमारि इच्छा है, अनामिका एक दईं तुमका पढ़ि कै सुनाई।
‘मतवाला’ की कविता औ समालोचना पढ़ि कै लिख्यो। भूल कतों होति होई तो सुधारब। ‘निराला’ की कविता मं [ मँ ] कहां का करैक चही, लिख्यो। यह सम्मति हमरेहे लगे रही।
आशा है अच्छे हौ औ घर मां अच्छी भलाई है। चि० कमला किशोर कस हैं,कानपुर कब जइहौ, घरवालेन क मलेरिया छूट की नहीं, सब लिख्यो।
दास
सूर्य्यकान्त त्रिपाठी
हम रहित हियैं हैं [ है ] । चहै समन्वय के पते पर लिख्यो चाहे मतवाला के पते पर चिट्ठी हमका मिलि जाई।
दास
सूर्य्यकान्त
[ पता : ]
Shreeman
Pandit Mahavir Prasad ji
Dwiwedi maharaaj
Daulatpur ( Raebareli )
[ पत्र दौलतपुर से जुहू कलां, कानपुर भेजा गया। ]
[ २ ]
महावीर प्रसाद द्विवेदी को
६/११/२३
श्री चरणेषु—
कृपापत्र पढ़ा। मतवाला कै संख्या दीख। सरस्वती संपादक के नोटन मं [ मँ ], न समुझि सकेन, भूलै काहे नहिंन। कारण लिखि देत्यो तो समुझि जाइत। अबै तो मतवाला की समालोचना के पुष्ट कारण ते भूलै जानि परत है।
सरस्वती सम्पादक के विषय मं [ मँ ] लिखै बैठेन तो हमहूँ ५/६ पृष्ठ लिखि डारा। मुलो पीछे जब जाना कि तुम्हारा समय अकारण नष्ट होई तब फारि डारा। याकन कहा, ‘द्विवेदी जी का प्रत्यक्ष नहिंन तो का भा सरस्वती ते परोक्ष सम्बन्ध तो है; उइ अपनी बिदाई मं [ मँ ] यह बात स्वीकार करि चुके हैं। अतएव सरस्वती का पक्ष उइ लेबे करिहैं। औ वहिका वई बनायन है [ हैं ] तो अपने रहत उइ वहिकै उल्टी समालोचना देखि सकत हैं?’ कुछो होय हमका युक्ति ते काम। बात युक्तिपूर्ण होई तो चित्त मं [ मँ ] बैठि जाई, न होई, अलग ह्वइ जाई।
हम जो रामायण पाठ आदि मं [ मँ ] बनियई क भाव राखा होब – अर्थात् लोग हमका अच्छा कहैं औ हम नामी ह्वइ जाई – बड़े सच्चरित्र साधु महापुरुष कहाई – हे राम हम तुम्हार नाव लेइत है बदले मं [ मँ ] तुमहूँ कुछ दियव, तो जउन यहु ह्वय रहा है यहु ठीक है। यही तना का विपरीप [ विपरीत ] फल मिलत है। औ लोग प्रकृति का एक अध्याय पढ़ि कै समुझै वाली बहुती बातै पाय सकत हैं।
— दास सूर्य्यकान्त।
[ साभार : निराला की साहित्य साधना-३/ संकलन: राम विलास शर्मा/ पृष्ठ: २७५-२७६ / राजकमल प्रकाशन ]
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