|
'दलित साहित्य के बिना साहित्य की बात संभव नहीं' | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
50 वर्ष पहले दलित साहित्य कहीं नहीं था पर आज दलित साहित्य के बिना साहित्य की बात नहीं की जा सकती है. बल्कि मैं कहूँगा कि आज मुख्यधारा दलित और स्त्री साहित्य की ही है. कोई भी सम्मेलन, कोई भी बहस इन दोनों चीजों के बिना नहीं हो सकती. वहाँ या तो दलित साहित्य होगा या फिर स्त्री साहित्य. दलित साहित्य का इतिहास काफी पुराना है. भक्ति काल से अगर देखें तो उस वक्त भक्ति साहित्य था और संत साहित्य था. भक्त कवियों में सूरदास जैसे लोग थे. ये अभिजात्य थे. शहर के बीच या मंदिरों में रहते थे. संत साहित्य समाज के बाहर के लोग थे. इनमें ज़्यादातर लोग चमार, भंगी, रंगरेज इस तरह के लोग हैं. भक्ति साहित्य में स्त्री कोई नहीं है पर संत साहित्य में स्त्रियाँ भी हैं, मुसलमान हैं, दलित हैं. यह सामूहिक साहित्य था और केवल हिंदी में ही नहीं बल्कि मराठी और तमिल में भी था. यह मुख्यधारा के साहित्य के समानांतर था पर इसे मान्यता नहीं दी गई. बल्कि आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने तो यह तक कह दिया कि कबीर के पास न तो भाषा है और न व्याकरण है और न इनके पास कोई सुदृढ़ वैचारिक आधार है, सब सुनी-सुनाई बातें हैं. उन्होंने तो कबीर के साहित्य को साहित्य ही नहीं माना था. उनके लिए तुलसीदास ही सर्वश्रेष्ठ थे. उनका साहित्य ही सर्वोपरि था. बदलती परिभाषाएं आज स्थितियाँ बदल गई हैं. आज हालत यह है कि तुलसी को कोई नहीं पूछ रहा है. देश और दुनिया में आज सबसे ज़्यादा काम कबीर पर हो रहा है.
तो ऐसा नहीं है कि दलित साहित्य आज की चीज़ है. आज के दौर ने और उससे पहले ज्योतिबा फूले और अंबेडकर के काम ने इसे एक वैचारिक आधार दिया है पर इसका इतिहास काफ़ी पुराना है. ज्योतिबा फूले की किताब ग़ुलामगीर के बारे में कहा जाता रहा है कि अगर एंगेल्स ने उसे पढ़ लिया होता तो अपनी बहुत सी मान्यताओं को वो दोबारा से समझने का प्रयास करते. लोकतंत्र में सिर्फ़ एक जाति और वर्ग का ही वर्चस्व नहीं होता है. दूसरी जातियों और वर्गों को भी अवसर मिलता है और इस वजह से देश में दलित साहित्य फला-फूला है. विविधता किसी भी विचार और साहित्य को ज़िंदा बनाती है और दलित साहित्य का इस दिशा में भारतीय साहित्य को योगदान है. साहित्य- विचार और रचनात्मकता मराठी दलितों में तो बाकायदा साहित्य लेखन की परंपरा रही है. हमारे यहाँ उत्तर भारत में राजनीति पहले है और साहित्य बाद में.
कुछ दलित लेखक मुख्यधारा में आए हैं और काम कर रहे हैं. हाँ एक सवाल ज़रूर है कि वैचारिक रूप से तो यह साहित्य काफी अच्छा है पर रचनात्मकता के हिसाब से देखें तो कमज़ोर है, इसमें कमियाँ हैं. एक अच्छा दलित उपन्यास हिंदी में शायद एक या दो होंगे. कहानी संग्रह पाँच-छह हो सकते हैं. लिख सब रहे हैं पर उपन्यास विधा जहाँ पहुँच गई है, वहाँ ये बचकाने लगते हैं. अब चिंता यह है कि हम लोग जिस तरह की रचनाधर्मिता से निकलकर आए हैं उसकी तुलना में यह काफ़ी पीछे लगता है. पर उसी समय यह भी शंका होती है कि कहीं हम भी रामचंद्र शुक्ल की ही भाषा तो नहीं बोल रहे हैं. यह द्वंद्व बना हुआ है. अस्पृश्यता दलित साहित्य को लेकर भी है. आज विश्वविद्यालयों में चार दिन का सम्मेलन कबीर के लेखन पर हो सकता है पर उसी विश्वविद्यालय के अध्यापक आज के दलित साहित्यकार को मान्यता देने से मना कर देते हैं, उसके साहित्य को स्वीकार नहीं करते हैं. यह एक बड़ी चुनौती है. क्या है दलित साहित्य नाटक के मंच पर स्त्री का चरित्र अगर कोई पुरुष निभा रहा होता है तो वह वैसा प्राकृतिक प्रभाव कभी भी नहीं ला सकता है जैसा कि एक स्त्री ख़ुद दे सकती है. यही साहित्य में है. साहित्य में जो दलितों के बारे में प्रेमचंद ने लिखा, नागार्जुन ने लिखा, अमृतलाल नागर ने लिखा, वो बहुत अच्छा और सटीक है पर सहानुभूति की उपज है. इसमें वो तो नहीं हो सकता था जो दलित का अनुभव है.
इसी तरह स्त्री की कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें स्त्री ही समझ सकती है और वही उन्हें समझा सकती है. सच्चे अर्थों में सामने रख सकती है. जो दलित समुदाय के लोग ख़ुद लिखें वो है दलित साहित्य क्योंकि उनकी पीड़ा को उनसे ज़्यादा कोई ग़ैर दलित नहीं समझ सकता है. चुनौतियाँ दलित साहित्य में आज सबसे बड़ी चुनौती अपनी बात को कहने की है. मैं हमेशा से कहता हूँ कि दलितों और स्त्रियों का कोई इतिहास नहीं है. जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वो तो सवर्णों और पुरुषों का है. उसमें दलित कितना मालिक के लिए वफ़ादार था. कितना मालिक के कहने पर उसने बस्तियाँ जलाईं, कैसे उसने मालिक की जगह अपने सीने पर गोली खाई...ये इतिहास है. स्त्री कितनी पतिव्रता थी, निष्ठावान थी, हमारे लिए सती हो जाती थी, कैसे उसने राजवंश को बचाने के लिए अपने बच्चे की बलि दे दी....ये स्त्री का इतिहास है. यानी ये इनका नहीं, इनकी वफ़ादारी का इतिहास है. दरअसल इतिहास उनका होता है जो अपने फैसले ख़ुद लेते हैं. ये दलित और स्त्री अपने फैसले नहीं ले सकते थे. तो सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यह है कि दलित अपनी स्थिति को देखें. उसे लोगों के सामने लाएं. अपना इतिहास लिखें. हालांकि इसके लिए उन्हें प्रतिशोध और प्रतिस्पर्धा दोनों का सामना करना पड़ेगा. (पाणिनी आनंद से बातचीत पर आधारित) | इससे जुड़ी ख़बरें 'एक निर्मल वर्मा तो आज भी जीवित हैं' 24 अक्तूबर, 2006 | पत्रिका आज़ादी के छह दशक बाद हिंदी साहित्य 12 अगस्त, 2006 | भारत और पड़ोस जूतों के साथ होती है भाषा की मरम्मत 01 अगस्त, 2006 | भारत और पड़ोस 'किताबें कुछ कहना चाहती हैं' 29 जनवरी, 2006 | पत्रिका 'लेखक को मानवता का साथ देना चाहिए' 27 दिसंबर, 2005 | पत्रिका मूढ़ी बेचकर साहित्य साधना 24 जून, 2005 | पत्रिका 'प्रेमचंद दलित लेखन के विकल्प नहीं' 29 जुलाई, 2005 | पत्रिका जातिवाद से मुक्त लेखक रहे हैं प्रेमचंद 31 जुलाई, 2004 | भारत और पड़ोस | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
| |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
Tuesday, October 4, 2011
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment