Dalit Lekhak Sangh दलित लेखक संघ (Dalit Writers Forum)
IMPORTANT NOTICE: Meeting to discuss unification of the two Dalit Lekhak Sanghs and deciding future course of action will be held on 9th July 2011 (2nd Saturday).
Venue: Samta Baudh Vihar, Opposite Pragati Apartments, Paschim Vihar (Club Road) If you plan to come by the Delhi Metro, get down at Madipur or Paschimpuri (East) Metro Station and take a cylce rickshaw. If you are coming from Ring Road, please take the Punjabi Bagh Club Road. The venue is one KM from Ring Road on the Club Road. (Link to Map of the area)
This website will keep you updated with the latest information related to the DLS.
आवश्यक सूचना : शानिनार 9 जुलाई को 11.00 बजे दोनों दलित लेखक संघ के एकीकरण और भविष्य की रुपरेखा पर खुली चर्चा है जिसमें आप सादर आमंत्रित है।
स्थान: समता बौध विहार, प्रगति अपार्टमेन्ट के सामने (क्लब रोड) पश्चिम विहार (दिल्ली मेट्रो से आने वाले मादीपुर या पश्चिमपुरी ईस्ट मेट्रो स्टेशन पर उतर कर साइकिल रिक्शा ले सकते हैं. रिंग रोड से आने के लिए पंजाबी बाग़ क्लब वाली रोड लेकर सीधे आ सकते हैं - १ किलोमीटर दूर है.) आप से अनुरोध है कि अन्य किसी तारीख के बारे में अफवाहों वा भ्रमित करने वाली सूचनाओं पर ध्यान ना दें. इस वेब्साईट से दलेस की नवींतम जानकारी आपको मिलती रहेगी.
स्थान: समता बौध विहार, प्रगति अपार्टमेन्ट के सामने (क्लब रोड) पश्चिम विहार (दिल्ली मेट्रो से आने वाले मादीपुर या पश्चिमपुरी ईस्ट मेट्रो स्टेशन पर उतर कर साइकिल रिक्शा ले सकते हैं. रिंग रोड से आने के लिए पंजाबी बाग़ क्लब वाली रोड लेकर सीधे आ सकते हैं - १ किलोमीटर दूर है.) आप से अनुरोध है कि अन्य किसी तारीख के बारे में अफवाहों वा भ्रमित करने वाली सूचनाओं पर ध्यान ना दें. इस वेब्साईट से दलेस की नवींतम जानकारी आपको मिलती रहेगी.
1st July 2011
Statement Regarding Falsely Held Elections.
हम कुछ लोग जो अपने आप को बाबा साहब के सिपाहीमानते हुए दलित आंदोलन और दलित साहित्य के लिए काम कर रहे है, पिछले एक-ढेड साल से दोनों दलित लेखक संघों को पहले व्यक्तिगत और फिर बाद में सामूहिक रुप से एक मंच पर लाने का प्रयास कर रहे थे। दोनों लेखक संघों के एकीकरण का प्रयास करने के हमारे कुछ ठोस कारण थे। जिनमें प्रमुख रुप से दोनों लेखक संघ एक ही नाम से यानि दलित लेखक संघ के नाम से काम कर रहे थे। इसके कारण दलित लेखक भी दो समूहो में बँट गए। किसी भी लेखक संघ के कार्यक्रम होने पर खुले तौर पर वे उनमें भाग नही ले पा रहे थे व अपनी सक्रिय भागीदारी नही निभा पा रहे थे। इन दो समूहों के वर्चस्व की लडाई में दलित साहित्य पर काम होना काफी कम होकर आपस की राजनीति व एक दूसरे की छिछालेदारी ज्यादा हो रही थी।
साहित्यकारों में उपजातीयता के बीज दिखाई पडने लगे थे . इससे भी ज्यादा नुकसान यह हो रहा था कि दलित साहित्य में दलित साहित्य की प्रतिक्रियावादी ताकते अम्बेडकर व बुद्ध के खिलाफ जहर उगलने लगीं। विशेष रूप से यह देखा गया कि दलित महिला अस्मिता, उनके मुद्दे और उनके लेखन को नकार कर ये ताकतें तेजी से एकत्र हो दलित साहित्य के अस्तित्व पर ही हमले करने लगी। इस कुंठित और सनकपूर्ण विचारधारा को फलने-फूलने का खूब अवसर मिल रहा था जिसके कारण हमारी जगहँसाई के साथ हमारे दलित साहित्य पर गंभीरता से बात होनी कम हो रही थी। क्योंकि आपस में दो धडों बँटे हुए है इसलिए इनके विरोध में एक संयुक्त स्वर में आवाज नही उठा पा रहे थे। इसलिए हम लोग दोनो लेखक संघ के एकीकरण के प्रयास कर रहे थे। हमारे युवा लेखकों को मंच एवम प्रोत्साहन भी नही मिल रहा था जिससे दलित साहित्यकारो की नई पीढी को उभरने का मौका नही मिल रहा था।
इसी एकीकरण के प्रयास को और गति देने के लिए हमारे दलेस में 29 मई को कार्यकारिणी की सभा रखी गई जिसमें सर्वसम्मति से तय हुआ कि हमारी तरफ से एकीकरण के प्रयास और तेज किए जाए क्योकि विमल थोराट ग्रुप से सुदेश तनवर और अरुण गौतम प्रयास में मदद कर रहे थे। मैं खुद एक बार दोनों लेखक संघ के एकीकरण के लिए विमल थोराट से मिलने कुछ दिन पहले गई थी। डा.रामचंद्र भी वहां थे। विमल थोराट से दो-ढाई घंटे की सार्थक बातचीत हुई जिसमें उन्होने अपने दलित लेखक संघ से त्यागपत्र देने की बात करते हुए मुझे भरोसा दिया कि हम शीघ्र ही मिलकर इकट्ठे बैठेगे और बात करेगे. अगले दिन 7 मई को सुबह उनके दलेस की मिटिंग थी जिसमें विमलजी ने अपना इस्तीफा दे दिया। इसमें कोई शक नही कि विमल को यहाँ तक तैयार करने मेरे साथ सुदेश तनवर का भी हाथ था।
उसी दिन 7 मई को ही शाम को हमारी भी मिटिंग थी जिसमें मैने सुदेश तनवर की सूचना 'विमलजी ने दलेस से इस्तीफा दे दिया है' की सूचना अपने ग्रुप दलेस को दी तो कर्मशील जी ने मेरे प्रयास का ताली बजाकर बधाई दी। पर बाद में डा. रामचंद्र से पता चला कि उन्होने ११ जून ११ को चुनाव रख लिए है और डा.तुलसी राम को अध्यक्ष और डा.रामचंद्र को महासचिव बनाने का निर्णय ले लिया है। मुझे यह जानकर बहुत धकका लगा पर आशा कि एक किरण फिर भी बची थी, और वह थे सुदेश तनवर। वे एकीकरण कि प्रक्रिया में पूरी तरह से अब भी जुड़े हुए थे.
उस दिन यानि 7 मई को हमारे ग्रुप की मिटिंग में केवल सात लोग ही आये थे जिनमें तीन लोग पहली बार आए थे। उस दिन काव्य गोष्ठी के आयोजन पर बातचीत हुई और यह भी तय हुआ कि उस दिन दलेस के चुनाव की प्रक्रिया आरम्भ करने पर भी चर्चा होगी। 13 मई की काव्य गोष्ठी पाँच बजे थी। क्योकि मै और कुछ लोग दोनों लेखक संघ को करीब लाने का प्रयास कर रहे थे तो दलेस के अध्यक्ष और उनके कुछ साथियो को शायद मेरा यह काम नागावार लग रहा था। वो मुझे अपने राह का काँटा मान रहे थे, इसलिए उन्होने मेरे खिलाफ मोर्चा खोलते हुए दलेस के एक फांऊडर मेबर के घर इकट्ठा होकर नयी कार्यकारिणी की रुपरेखा बना ली इसकी जानकारी मुझे बाद में शीलबोद्धि से मिली। डा.तेजसिंह जी से बात करने पर पता चला कि इस साजिश में ये लोग उन्हे भी शामिल करने के लिए बुलाना चाहते थे पर उन्होने साफ मना कर दिया।
13 मई को दलेस के अध्यक्ष ने काव्यगोष्टी में आए मेहमानों के ही सामने जिसमे माननीय मलखान सिंह व माताप्रसाद जी भी शामिल थे, उनके सामने ही दलेस की कमियां गिनाते हुए शीलबोद्धि द्वारा टाईप करके लाई हुई नयी कार्यकारिणी की सूची काव्यगोष्ठी में अचानक प्रस्तुत कर सबके सामने पढ दी और उसे पारित करने के लिए भी कहा। हैरानी इस बात की थी, दलेस के महासचिव यानि मुझे इस बात की भनक तक नही लगी. ऐसा उन्होंने क्यों किया, इसका कारण वे बेहतर बता पाएंगे। मैने मंच से ही कार्यकारिणी का विरोध करते हुए काव्य गोष्ठी शूरु करवाई।
देखने में ऐसा आया कि हमारे दलेस ने भी वही हुआ जो विमल थोराट के ग्रुप ने किया था। कोई लोकतान्त्रिक प्रक्रिया नहीं - कोई राय मशवरा नहीं, पूर्व निर्धारित 'चुनी हुई' कार्यकारिणी सदन में पेश करो - और 'चुन लो' बस हो गए 'चुनाव'. शायद यहां कर्मशील जी की यह समझ काम कर रही थी या वाकई उनका यह मानना था जो उन्होने मुझसे अनेक बार कहा कि 'विमल थोराट के लिए रजनी तिलक ही ठीक है।'
दोनों दलित लेखक संघ के एकीकरण को लेकर जैसा मैंने पहले बताया कि २९ मई २०११ को मोहन सिंह प्लैस में कार्यकारिणी की मिटिंग रखी गई जिसमे कार्यकारिणी के लगभग सब लोग उपस्थित थे। इस मिटिंग में सर्वसम्मति से दलेस की वर्तमान कार्यकारिणी भंग करके दोनों लेखक संघ के एकीकरण को लेकर एक समन्वय़ समिति बनाई गई जिसमें पाँच लोग रखे गए जिनमें डा.कुसुम वियागी, ईशकुमार गंगानिया, अजय नावरिया, अनिता भारती , शीलबोद्धि सर्वसम्मति से चुनकर शामिल किए गए। इस समन्वय समिति का कार्य 30 जून 2011 तक दोनों दलेस के एकीकरण का प्रयास करना व प्रयास असफल होने पर 31 जुलाई 2011 तक दलेस की नई कार्यकारिणी के चुनाव करवाना था। इस समन्वय समिति को 31 जुलाई 2011 तक सारे अधिकार सौपे गए थे।
समन्वय समिति कि ओर से दलेस के आदेशको मानते हुए हम ईशकुमार गंगानिया, डा. अजय नावरिया, सुदेश तनवर, मैं, शीलबोद्धि हीरालाल राजस्थानी को ले कर - दुसरे दलेस के होने वाले अध्यक्ष डा. तुलसी राम जी से मिले और उनसे वरिष्ठ लेखक होने के नाते दोनों लेखक संघो को एक करने की बात कही. उन्होने साफ कह दिया कि इसमें वे कुछ नही कर सकते। इसके बाद दूसरे दलेस के ग्यारह जून को चुनाव हुए और डा तुलसीराम नये अध्यक्ष बने पर उनके अध्यक्ष बनने पर भी एकीकरण की प्रकिया को चलाने के लिए तनवर ने एकीकरण और संवाद के रास्ते बंद होते देख डा.तुलसीराम और डा.रामचंद्र को दलित साहित्य के प्रति अपनी पीड़ा जाहिर करते हुए एक चिट्ठी लिखी जिसका जबाव अभी तक आना बाकी है। हलांकि सुदेश तनवर और अरुण गौतम दूसरे दलेस में एकीकरण की प्रक्रिया को सफल ना होते देखकर अपना त्यागपत्र दे चुके थे।
इधर हमारे दलेस ने 19 जून को उनके इलैक्शन से घबरा कर अपनी मिटिंग रख ली. एक ही दिन में दो मिटिंग रखी गई । पहली तो सुबह डा. कुसुम वियोगी ने अपने घर रखी जिसमे काफी सारे दलित लेखक व डा.धर्मवीर भी पहुँचे। एक बात मुझे जो लोगों के द्वारा पता चली कि वहाँ कुसुम जी ने अन्य लेखकों के साथ तय किया कि चाहे कुछ भी हो पर रजनी तिलक को अध्यक्ष नही बनने देना है। उसी शाम को ही दलित लेखक संघ की दूसरी मिटिग थी जिसमें मैं अपने आपात व्यक्तिगत कारणों से नही जा सकी ( मैने मिटिंग में ना आने की सूचना शील को एक दिन पहले व उमराव सिंह जी को लगभग एक बजे ही दे दी थी). कुसुम वियोगी जी भी नही पहुँचे। अजय नावरिया भी नही जा सके। वहाँ पर समन्वय समिति से केवल शीलबोद्धि और ईशकुमार पहुँचे। ईशकुमार हम तीनों के ना पहुँचने से निराश हो जल्दी ही टी.पी.सिंह के साथ वापस लौट गए।
उन दोनों के वहां से हटते ही वहाँ बाकी बचे लोगो में से कर्मशील भारती , हीरालाल, रजनी तिलक और शीलबोद्धि के अलावा छह लोग जो कि नये थे व दलेस के सदस्य भी नही थे - सबने मिलकर, 29 मई को पूरी कार्यकारिणी द्वारा बनाई गई समन्वय समिति को अलोकतांत्रिक व तानाशाही पूर्ण तरीके से भंग कर दिया। ज्ञात रहे केवल एक मिटिंग में अनुपस्थित रहने मात्र से ही समन्वय समिति बर्खास्त कर दी गयी थी. ऐसा होना अभूतपूर्व था. हमारे दलेस के इतिहास में इससे पहले तक ना तो किसी को निकाला गया ना ही कोई कमेटी भंग की गई और ना ही कभी अचानक, एकाएक और हडब़डी में संस्थागत महत्वपूर्ण फैसले लिए गए।
मुझे दो दिन बाद यानि २१ जून २०११ को शीलबोद्धि ने पहले 27 जुलाई 2011 फिर उसके एक माह पूर्व - 25 जून 2011 और अंत मैं 27 जून 2011 को दलेस के चुनाव होने की सूचना एस.एम.एस द्वारा भेजी. मैने शीलबोद्धि को अपने स्तर पर समझाने की कोशिश कि किसी भी लेखक संघ के चुनाव की अपनी प्रकिया होती है जिसमें हमे सारे कार्यक्रमों की रिपोर्ट प्रसतुत करनी होती है। लोगों को चुनाव से पहले चिट्ठी भेजनी होती है. लोगों से सम्पर्क कर उन्हे आंमत्रित करना होता है। कोशिश की जाती है कि ज्यादा से ज्यादा सदस्य चुनाव में भाग ले सके। कार्यकारिणी में शामिल होने के लिए नामांकन आमंत्रित किये जाते हैं, नई कार्यकारिणी बनाने के लिए सदस्यों से राय लेनी होती है जिससे सभी की सर्वसम्मति से शान्तिपूर्ण चुनाव हो सके।
इस पूरी लोकतांत्रिक व संवैधानिक प्रक्रिया के लिए कम से कम 15 दिन तो चाहिए ही थे। लेकिन शीलबोद्धि और उनका ग्रुप अपनी कार्यकारिणी का निर्णय पहले ही ले चुका था। इसलिए मेरी तर्कसंगत बाते भी उनकी समझ में नही आ रही थी जोकि अन्य लोगों को जरुर समझ में आ रही थी। कोई सूरत और बातचीत का माहौल ना बनते देख मैने २७ जून २०११ के तथाकथित 'चुनाव' का विरोध करते हुए डा.अजय नावरिया, डा.कुसुम वियोगी, ईशकुमार गंगानिया (समन्वय समिति के अधिकाँश सदस्य) से बात करके चुनाव ठीक ढंग से हो इसलिए 9 जुलाई घोषित कर दी।
जिसका हमें डर था वही हुआ। आनन-फानन में रखे गए 27 जून के चुनाव में बहुत कम लेखक पहुँचे। शील व उनके साथी यही चाहते थे कि लोग ना पहुँचे ताकि इनके द्वारा निर्धारित कार्यकारिणी चुनने में इनको कोई बाधा ना आए। परिणाम इनके अनुसार ही रहा निकला। उस चुनाव में कुछ लोग नये थे और कुछ गैर सदस्य़।
इस सारी बातों को शेयर करते समय मै यह बात जरुर बताना चाहूंगी कि दलेस को एन.जी.ओ (NGO ) के कब्जाकरण से बचाने के लिए और दूसरे अलोकतांत्रिक तरीके से समन्वय समिति को भंग करने के लिए विरोध का यह रास्ता अपनाया गया जिसमें 9 तारीख को चुनाव रखा गया। मैं दलेस मे रहते हुए विमल थोराट के ग्रुप का विरोध कर इन्ही कारणों के चलते कर रही थी. अब जब मैं अपने ग्रुप में देख रही हूँ कि यहाँ भी एनजीओवाद के पसरने के पूरे आसार हैं, तो क्यों न इसका विरोध करूँ?
लेखकगण NGO -करण के खिलाफ इसलिए होते हैं, जिससे उनके लेखन कि स्वायत्ता पर आंच न आ सके. किसी NGO का प्रभाव लेखन पर अच्छा नहीं होता, क्यूंकि NGO का एजेंडा देशी-विदेशी पूँजी तय करती है, जिसके इरादों का पर्दाफाश करना, (खासतौर से आज के पूंजीवादी युग में) नामुमकिन है. जहाँ भी- जिस भी लेखकों के फोरम में NGO के पैसे आये, वहां लेखकों कि स्याही सूख गयी - ऐसा देश विदेश में खूब देखा गया है. कोई भी लेखक संघ चंदे और आपसी सहयोग से ही कामयाब हो सकता है.
हमारे कुछ साथी जिन्हे पद की लिप्सा ने घेर लिया है वह सवालों का जबाव देने से बचने के लिए 'बहन-बहन' की लडाई का बहाना गढकर चीजों से छिपना चाहते है। मेरा गलत चीजों के प्रति विरोध तब भी था और अब भी है और आगे भी रहेगा। मेरा सवाल है अपने आप को दलेस के कर्ता-धर्ता घोषित करने वालों को चुनाव की ऐसी क्या हडबडी-गडबडी मची थी कि उन्होने एक NGO द्वारा बुक किये गए हाँल में चुनाव करना मंजूर किया वो भी उनकी शर्तों पर, और बिना किसी स्पष्ट घोषणा के ?
एक तरफ शीलबोद्धि विमल थोराट पर आरोप लगाते हुए कह रहे है "थोरात 2004 में दलित लेखक संघ की अध्यक्ष बनी थी. उन्होंने अब जाकर 7 साल बात पद छोड़ा है. यह हुआ सिर्फ एनजीओ के लोगों के बल-बूते पर." पर शीलबोद्धि जी खुद अन्य लोगो के साथ मिलकर क्या कर रहे है ? मतलब दूसराकरे तो खराब और हम करे तो सब ठीक?
गलत बातों का विरोध करने से इन बेतर्कों वाले लोग मुझ पर व्यक्तिगत आक्षेप लगाने , मुझे व मेरे परिवार के बच्चो को बदनाम करने और मुझे धमकी देने से भी नही चूक रहे है। कल सुबह 7.38 बजे मुझे कुसुम वियोगी जी का संदेश मिला जो इस प्रकार है "तुम छोटी बहन हो अब इनके साथ चलो पूरा सम्मान मिलेगा- डा.कुसुम वियोगी " मतलब अगर मैं इनकी बातों से अहमत होते हुए अपनी बातों पर अडिग रहकर इनके साथ मिलकर नही चलूंगी तो यह मेरा सम्मान की जगह अपमान करते रहेगे?
एनजीओकरण की क्षुद्र राजनीति के चलते दलित लेखक संघ के दो फाड होने के कारण दलित, गैर दलित समाज और साहित्यिक समाज में हमारी खूब भद्द पिट रही है. चारों तरफ जगहंसाई हो रही हो ऐसी स्थिति में एक आंबेडकरवादी सिपाही की क्या भूमिका होनी चाहिय़े या क्या हो सकती है? यह मेरा आप सबसे सवाल है ।
क्या हम अन्याय के आगे झुककर उसे स्वीकार कर ले? उसका विरोध ना करें? बाबा साहब की शिक्षा को स्वार्थ के तेल में तलकर खा जाए ? एक दलित लेखिका और अम्बेडकरवादी सामाजिक कार्यकर्ता के नाते मुझे मेरी भूमिका की पूरी समझ है और मेरी समझ कहती है कि चाहे इस लडाई में मैं अकेली क्यो ना रह जाऊ पर मैं लडूंगी जरुर और आखिरी दम तक लडूंगी। यही मेरा कर्तव्य है।
अनिता भारती
26th June 2011
Statement of the Ad-Hoc Samanvay Samiti, Dalit Lekhak Sangh.
प्रिय साथियों,
क्रांतिकारी जयभीम,
साथियों शील बोद्धि और उसके सहयोगी जिनमें से कुछ लोग जो दलित लेखक संघ के सदस्य भी नही है अपनी मर्जी से कार्यकारिणी भंग करके नये दलित लेखक संघ की रुपरेखा बना रहे है जिसमें ये महाश्य दलित शब्द की परिभाषा बदलते हुए दलित लेखक संघ को गैरदलितों के हाथ में सौपने की तैयारी कर रहे है। नीचे दिए उनकी मिटिंग के मिनिटस में यह बात लाल रंग में हाईलाईट की गई है। यह मिनिटस फेसबुक पर बनाए उनके पेज से लिए गए है।
दलित लेखक संघ में पिछले दिनों चुनाव से संबधित जो प्रकिया चल रही है उसकी हम थोडी पृष्ठभूमि आपके सामने रखना चाहेगे। दलित लेखक संघ की नयी कार्यकारिणी के चुनाव होने वाले है जिसके लिए 29 मई 2011 को वर्तमान कार्यकारिणी भंग करके एक नयी समन्वय समिति बनाई गई जिसमें पाँच लोग सर्वसम्मति से नियुक्त किये गए थे। इनके नाम है- कुसुम वियोगी, ईशकुमार गंगानिया, अजय नावरिया, अनिता भारती, और शीलबोद्धि। दलित लेखक संघ की इस सभा में अंधिकांश पदाधिकारी मौजूद थे। (प्रमाण के लिए यहा इस सभा के हस्तलिखित मिनिटस भी स्कैन करके अटैच किए गए है )। इस सभा में उपस्थित उन लोगों के भी हस्ताक्षर है जो अब कुछ और बातें करते दिख रहे है (यह इनकी 19 जून के फेसबुक वाले मिनिटस से जाहिर है) इस समन्वय समिति का काम दोनों लेखक संघ के एकीकरण का प्रयास करना व यह ना हो पाने पर दलित लेखक संघ के चुनाव करवाना था। दलेस की इस सभा में समन्वय समिति को इस काम के लिए पूर्ण अधिकार दिया गया था अर्थात समन्वय समिति दलित लेखक संघ के एकीकरण की बात के लिए तिथि 30 जून 2011 तक प्रयास करेगी तथा 31 जुलाई 2011 तक चुनाव करवाकर नयी कार्यकारिणी का गठन कर देगी। इस बात की पुष्टि के लिए मिनिटस (हस्तलिखित वाला स्कैन) देखे।
दुख की बात यह है कि इन सारे फैसलो को अनदेखा कर एक दूसरी संमान्तर प्रकिया चलाने में दलित लेखक संघ का एक फांउडर मेंबर व दलित लेखक संघ का एक भूतपूर्व अध्यक्ष, भी शामिल है। पाँच में से तीन सदस्य कुसुम वियोगी, अनिता भारती व अजय नावरिया इस सभा में उपस्थित नही थे। चौथे सदस्य ईशकुमार कुमार गंगानिया के जाने के पश्चात इन्होने पीठ पीछे कमेटी को भंग करने का फैसला केवल एकमात्र सदस्य शीलबोद्धि की उपस्थिति में कुछ लोगों ने जिनमे गैर सदस्य भी शामिल थे, यह कहकर ले लिया कि "पूरे प्रयासों के बावजूद द्लेस के एकीकरण की वार्ता असफल हुई। ........... एकीकरण की समिति को भंग करके संगठन आगामी कार्यवाहियों के लिए नई समन्वय समिति बनाई गई ......" इनके मिनिट्स से यह भी नही पता चल पा रहा कि ऐसा किस व्यक्ति विशेष ने कहा। दूसरी बात यह है कि एकीकरण के प्रयास अभी भी चल रहे है खत्म नही हुए है। हमारे सामूहिक प्रयासों के चलते दूसरे दलेस में, सुदेश तनवर ने एकीकरण के लिए तुलसीराम जी व रामचंद्र को पत्र भेजा हुआ है जिसका जबाव आना बाकी है।
हम यहाँ दलित लेखक संघके (http://www.dalitlekhaksangh.org/excerpts-from-minutes-of-dls-meeting-of-29th-june-2011.html par uplabdh) और फेसबुकिया समानांतर प्रकिया (नीचे कॉपी पेस्ट के रूप में) - दोनो के मिनिटस दे रहे है। लोग खुद फैसला करें की कौन गलत कर रहा है।
साथियों, भला ऐसा भी कही होता है कि जब किसी भी संगठन की कार्यकारिणी भंग स्थिति में हो , तब संगठन में नये लोगो की भरती की जाए? पर यहां यह प्रयास भी चल रहा है। यह नही किया जा सकता, और करना भी नही चाहिए, क्योकि, भरती होने की प्रकिया को वैध बनाने के लिए इस समय कोई अथोरिटी नही होती है। यह एक सामान्य सी बात है। इस समय किसी को अंदर घुसाने की प्रकिया को ही घुसपैठ कहते है। एक लोकतांत्रिक फोरम में कोई व्यक्ति आना चाहे तो यह आपत्ति की बात नही है, पर शर्त कि यह आना एक वैधानिक तरीके से हो और इसको सुनिश्चित करने के लिए पहले से ही चुनी हुई व कार्यरत कार्यकारिणी हो जो इस काम को वैधानिकता प्रदान कर सके।
कुसुम वियोगी, ईशकुमार गंगानिया, अजय नावरिया, अनिता भारती
(दलित लेखक संघ समन्वय समिति की ओर से)
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फेसबुकिया सामांतर प्रकिया के मिनिटस्
दिनाँक 19-06-2011 को इंडियन काफी हाउस में हुई दलेस की मीटिंग का कार्यवृत
by 'Dalit Lekhak Sangh' on Sunday, June 26, 2011 at 12:35pm
दिनाँक 19-06-2011 को इंडियन काफी हाउस में हुई दलेस की मीटिंग का कार्यवृत एकीकरण के लिए बनाई गई समन्वय समिति की तरफ़ से किए गए प्रयासों के बारे में अपनी रपट प्रस्तुत की। उन्होंने कहा कि पूरे प्रयासों के बावजूद द्लेस के एकीकरण की वार्ता असफल हुई। लेकिन भविष्य में एकीकरण के प्रयास को जारी रखना चाहिए।
एकीकरण की समिति को भंग करके संगठन आगामी कार्यवाहियों के लिए नई समन्वय समिति बनाई गई जिसमें कर्मशील भारती, शीलबोधि, सर्वेश कुमार मौर्य, हीरालाल राजस्थानी, मुकेश मानस, पूर्णिमा और सत्यनारायण को मनोनीत किया गया।
नई समन्वय समिति ने एकमत से यह फैसला लिया कि संगठन के भविष्य के कामकाज की रूपरेखा बनाने और कार्यकारिणी के चुनाव कराने के लिए 27 जून 2011 को एक बड़ी आम सभा बुलाई जाए।
यह तय किया गया कि इस आम सभा में दलेस से जुड़े सभी दलित लेखक, अब तक सदस्य न बन पाए दलित लेखक और दलित साहित्य आंदोलन के सभी दलित-ग़ैर दलित शुभचिंतक शामिल हो सकेंगे।
यह तय किया गया कि इस सम्बंध में इंटरनेट पर सूचना देने का काम मुकेश मानस करेंगे, फोन सर्वेश करेंगे और एस एम एस शीलबोधि करेंगे।
उपस्थित साथी
कर्मशील भारती, शीलबोधि, सर्वेश कुमार मौर्य, हीरालाल राजस्थानी, मुकेश मानस, पूर्णिमा, सत्यनारायण, रजनी तिलक , ईश कुमार गंगानिया , टी पी सिंह , उमराव सिंह जाटव
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25th June 2011Dalit Lekhak Sangh, Statement Regarding Elections.
प्रिय साथियों,
क्रांतिकारी जयभीम!
जैसा कि आप जानते है कि दलित लेखक संघ का चुनाव सर्वसम्मति से 9 जुलाई 2011 को होना तय हुआ है। चुनाव की प्रकिया पूरी करने से पह्ले, आपके सामने पिछले सारे कार्यक्रमों की रिपोर्ट पेश की जायेगी। यह रिपोर्ट शीघ्र ही (दो – तीन दिन में) आप सबको ईमेल से भेज दी जाएगी और हमारी वेब्साइट पर अप्लोड कर दी जायेगी। हमारे द्वारा आयोजित कार्यक्रम, उनमे भाग लेने वाले लेखक और सभाओं मे मुद्दों पर लिये गए हमारे फैसलों को भी इस रिपोर्ट मे शामिल किया जायेगा. यह सभी जानते है कि यही रिपोर्ट दलित लेखक संघ और हमारी रचना शीलता का इतिहास का रिकार्ड होती है।
हमारे ग्रुप के एक- दो लोग ना जाने किस दबाव /लालच के चलते दलित लेखक संघ की चुनाव की पूरी तैयारी और सूचना की पूरी प्रकिया किये बिना आनन-फानन में चुनाव करना /करवाना चाहते है। आपसे सादर अनुरोध है कि यदि 9 जुलाई 2011 से पहले दलित लेखक संघ के चुनाव को लेकर किसी भी प्रकार की सूचना आती है तो उसे न मानें क्योंकि वह मान्य नही होगी। दो-चार लोगों द्वारा मिलकर किया गया चुनाव असंवैधानिक माना जाएगा।
पहले भी दलित लेखक संघ के दो फाड हो चुके है। काफी लोग यह मानते है कि एक फाड पर एन.जी.ओ का कब्जा हो चुका है। मूल दलित लेखक संघ में हम लोग हमेशा अपने आपसी सहयोग से चंदा इकठ्ठा कर दलेस के कार्यक्रम आयोजित करते रहे है। पर अब इनके द्वारा चुनाव को लेकर दिख रही हडबडी और जल्दबाजी देखते हुए लग रहा है कि हमारे मूल ग्रुप दलित लेखक संघ को भी गैर असंवैधानिक व अलोकतांत्रिक लोगों द्वारा एक दूसरे एन.जी.ओ के हवाले करने की कोशिश की जा रही है।
साथियों चुनाव की अपनी प्रकिया के लिए ही कम से कम 15 दिन तो लगते ही है। कोषाध्यक्ष अपनी रिपोर्ट तैयार करेंगे, महासचिव अपनी और अध्यक्ष महोदय अपनी। लोगों को सूचना देने के बाद भी कुछ दिन दिए जाते है। यह हमारा अनुभव कहता है कि पाँच छह दिनों में कुछ तय नही होता और अगर होता भी है तो केवल पूर्वनियोजित सोचा ही तय हो सकता है।
हमें किसी पूर्वनियोजित योजना को कारगर नही होने देना है। चुनाव सर्वसम्मति से लोकतांत्रिक तरीके से ही सम्पन्न होंगे। जो भी कार्यकारिणी में किसी पद पर आना चाहे उसे सर्वसम्मति से आने की स्वतंत्रता है।
दलित लेखक संघ की कोर्डिनेशन कमेटी की ओर से,
अनिता भारती
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