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दलित संत साहित्य और सामाजिक सुधार : सूर्यनारायण रणसुभे
भक्ति साहित्य की सामाजिक भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाता और उसके पुनर्मूल्यांकन की मांग करता मराठी के वरिष्ठ आलोचक सूर्यनारायण रणसुभे का आलेख-
सम्भवत: भारतीय भाषाओं के भक्ति साहित्य को धर्म और वर्ण में बांटकर अध्ययन करने की मानसिकता केवल हिंदी के ही संदर्भ में देखी जा सकती है। धूर्तता इतनी ही कि वर्ण या धर्म का नाम न देते हुए यहां दार्शनिक शब्दों का प्रयोग किया गया। परंतु आशय तो वर्ण और धर्म से ही था। यह मानसिकता श्री रामचंद्र शुक्ल जी के इतिहास से शुरू की जाती है। श्री रामचंद्र शुक्ल अपने इतिहास ग्रंथ में यह लिखते हैं कि ‘इस प्रकार देश में सगुण और निर्गुण के नाम से भक्ति काव्य की दो धाराएं विक्रम की 15वीं शताब्दी के अंतिम भाग से लेकर 17वीं शताब्दी के अंत तक समानांतर चलती रहीं।’(1) श्री शुक्लजी का यह कथन केवल हिंदी साहित्य के संदर्भ में सही है। देश की किसी भी भाषा के भक्ति साहित्य में सगुण-निर्गुण इस प्रकार को कोई विभेद नहीं माना गया है। वहां के समीक्षकों ने भी इस प्रकार का वर्गीकरण नहीं किया है। शुक्लजी हिंदी भक्ति काव्य को सगुण और निर्गुण में बांटते हैं। केवल बांटते ही नहीं अपितु सगुण काव्य में सभी सवर्ण कवियों को तथा निर्गुण काव्य के अंतर्गत सभी उपेक्षित- आज की भाषा में दलित कवियों को रखते हैं। और इस निर्गुण को भी प्रेमाश्रयी और ज्ञानाश्रयी दो हिस्सों में बांटते हैं तथा प्रेमाश्रयी में मुसलमान कवियों को रखते हैं। मराठी संत काव्य में पचास से अधिक मुस्लिम संत कवि हैं, परंतु उन्हें वहां अलग से वर्गीकृत नहीं किया गया है।
मराठी संत काव्य- इस भक्ति काव्य को संत काव्य ही कहते हैं, के अंतर्गत अनेक सवर्ण दलित कवि हैं। परंतु यहां सगुण-निर्गुण या प्रकारांतर में सर्वण-दलित जैसा विभाजन नहीं किया गया है। संतों को
दलित-अदलित विशेषण से संबोधित करना किस मानसिकता को सूचित करता है ? फिर हिंदी में दलित और सवर्ण कवियों को ‘भक्त’ कहा गया। मानो संत भक्त हैं ही नहीं। हिंदी में यह जो सगुण-निर्गुण का संघर्ष है, वह दार्शनिक स्तर पर भले ही हो, उसके मूल में सर्वण (सगुण) और दलित( निर्गुण) का सांस्कृतिक संघर्ष दिखलाई देता है। सूरदास की कविता में जो उद्धव-गोपी संवाद अथवा भ्रमरगीत प्रसंग है, वहां से इस संघर्ष के संकेत मिलने लगते हैं। सगुण भक्ति श्रेष्ठ कि निर्गुण भक्ति। अब सभी निर्गुण पंथी पिछड़े समाज के हैं, दलित हैं। और सगुण भक्ति वाले सवर्ण हैं। इनमें से कौन श्रेष्ठ, यही तो विवाद का विषय है। भ्रमरगीत में अंतत: सगुण की श्रेष्ठता को सिद्ध किया जाता है। वहां से यह जो भ्रमरगीत परंपरा शुरू की जाती है, वह जगन्नाथदास रत्नाकर तक चलती है। अनेक प्रमाणों द्वारा सवर्णों की भक्ति को प्रकारांतर में श्रेष्ठ साबित किया जाता है। इस प्रकार एक को श्रेष्ठ तथा दूसरे को कनिष्ठ साबित करने की कोई परंपरा न मराठी भक्तिकाव्य में है और न कन्नड़ के। आश्चर्य तो इस बात का है कि निर्गुण भक्ति को ज्ञानाश्रयी कहा गया, परंतु ज्ञान पर आधारित, विवेक पर आधारित इस भक्ति की सतत हंसी उड़ायी गई, यह किस मानसिकता का सूचक है ? जिनके पास ज्ञान की परंपरा भी उन्हें ज्ञानाश्रयी कहा, जिनके पास अज्ञान की परंपरा थी, उनकी भक्ति को ज्ञानआश्रित कहा। अनजाने में शुक्ल जी कितना बड़ा सच बोल गए कि जिनके पास अज्ञान की परंपरा थी, उन्होंने ही अज्ञान पर आश्रित भक्ति को स्वीकारा।
उपरोक्त सारी बहस इसलिए कि संत, जो जाति-धर्म से परे जाकर, मनुष्य मात्र को एक मानकर अपनी बात कर रहे थे, उनके साथ दलित विशेषण लगाकर उन्हें अपमानित क्यों किया जा रहा है ? दूसरी बात संतों की जाति खोजकर हम क्या साबित करना चाह रहे हैं ? संत हो या भक्त उसकी दृष्टि कितनी विशाल अथवा संकुचित है, इस पर बहस हो अथवा तत्कालीन मनुज-विरोधी व्यवस्था को लेकर वे क्या कर रहे थे, इस पर बहस हो। मैं अपनी सारी बहस संतों की जाति को केंद्र में रखकर करना नहीं चाहता अपितु सम्पूर्ण संत साहित्य का सामाजिक सुधार के संदर्भ में क्या योगदान है, इस पर चर्चा करना चाहता हूं।
यहां मैं इस बात को स्पष्ट करना चाहता हूं कि डॉ. बाबा साहब अंबेडकर संत साहित्य के न केवल अध्येता अपितु विशेषज्ञ भी थे। अपने ‘जनता’ पत्र में वे लिखते हैं- ‘मैंने संत साहित्य को जितना गहराई में जाकर अध्ययन किया है, उतना अध्ययन करने वाले महाराष्ट्र में बहुत कम लोग हैं।’(2) संत साहित्य का गहरा प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर पड़ चुका था। जब उन्होंने अपना पहला पत्र शुरू किया ‘मूकनायक’ तब उसके आरंभ के पृष्ठ पर वे संत तुकाराम के अभंग (मराठी का एक छंद प्रकार) की दो पंक्तियां उदृधत करते थे, जिसका आशय था- ‘ अब संकोच करने का कोई मतलब नहीं। अब नि:शंक होकर बात करूंगा। मूक होकर जीना ठीक नहीं। लाज संकोच से किसी का हित नहीं होगा।’ तो ‘बहिष्कृत भारत’ पर ज्ञानेश्वरी से ली गई पंक्तियां उदृधत की गई हैं। संत साहित्य पर लिखी उनकी समीक्षा केवल नकारात्मक नहीं है। संतों की नैतिक शिक्षा सामाजिक सौहार्द के लिए जरूरी है- ऐसा बाबा साहब अकसर कहते थे। परंतु संतों के इतर विश्वासों, श्रद्धाओं (या कि अंधश्रद्धाओं), भाग्यवाद, वर्णाश्रम, धर्म की श्रेष्ठता को उन्होंने नकारा है। संत साहित्य के प्रभाव के संदर्भ में वे लिखते हैं- ‘क्या है आपके इस संत साहित्य में? नाम स्मरण से तुम्हारा कोई काम होने वाला है क्या?’ अतिवाद पर जाकर वे लिखते हैं- ‘अब तक लिखी गई सभी मराठी पुस्तकें तथा संपूर्ण साहित्य अगर कोई अरब समुंदर में डुबो दे अथवा जला दे, तो मुझे मुझे कोई दु:ख नहीं होगा। केवल दो अपवाद हों एक तुकराम की गाथा तथा दूसरी ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी। इन दो ग्रंथों के आधार पर मेरी मराठी शाश्वत रूप में रहेगी। अभिमान से डोलती रहेगी।’(4) संत साहित्य और सामाजिक सुधार ये दो शब्द वास्तव में परस्पर विरोधी हैं। क्योंकि संत साहित्य के मूल में ‘वैयक्तिक मोक्ष’ या ‘जन्म-मरण से मुक्ति’ की कामना है। संतों के साहित्य का वही लक्ष्य रहा है। वे भौतिक जीवन की घोर उपेक्षा करते है, जबकि ‘सामाजिक सुधार’ की भावना ही व्यक्ति के स्थान पर समाज को केंद्र में रखती है। सामाजिक सुधार की प्रक्रिया भौतिक जगत को उसकी पूरी समग्रता में स्वीकार करने के बाद ही शुरू हो जाती है। इसी कारण संत साहित्य में सामाजिक सुधार की वृत्ति को ढूंढना उन पर अन्याय ही करना है।
डॉ. बाबा साहब अंबेडकर संत साहित्य पर विचार करते समय प्रखर बौद्धिम दृष्टि अपनाते हैं। संतों की नैतिक शिक्षा का वह बार-बार उल्लेख करते हैं। नैतिक शिक्षा के संतों के आग्रह के कारण कई समीक्षकों को यह भ्रम हो गया कि संत साहित्य में सामाजिक सुधार के बीज हैं। डॉ. अंबेडकर संत साहित्य के संदर्भ में ‘विद्रोह’ और ‘क्रांति’ इन दो शब्दों की सूत्रमय व्याख्या करते हैं और लिखते हैं कि ‘संत साहित्य विद्रोही साहित्य है, क्रांतिकारी नहीं। विद्रोह कभी भी समाज व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन नहीं कर पाता। विद्रोह समाज व्यवस्था में हलचल पैदा कर देता है, वह उस पर आघात करता है, परंतु परिवर्तन नहीं। क्रांति अलबत्ता परिवर्तन को साकार करती है। इसी कारण विद्रोह हमेशा असफल होता है। पराजित हो जाता है। क्रांति मूल्यों का निर्माण करती जाती है। वह पुराने मूल्यों को ध्वस्त कर देती है और नये मूल्यों को जन्म देती हैत्र इस दृष्टि से देखें तो संतों का विद्रोह था, क्रांति नहीं।’(5) मराठी संतों ने वर्ण व्यवस्था पर कहीं भी आघात नहीं किया, चाहे वे सवर्ण हो या दलित। हिंदी संतों ने- विशेषत: कबीर ने वर्ण व्यवस्था पर जमकर हमला किया है और कबीर अंबेडकर के प्रेरणास्रोत थे।
भक्ति का मुलम्मा चढ़ाने से मनुष्यता का मूल्य बढ़ता है, यह एक मिथ्या धारणा है। संतों की व्यक्तिगत उपलब्धियां बहुत हैं, परंतु सामुदायिक-सामाजिक उपलब्धियां क्या हैं ? व्यक्तिगत उपलब्धियों से व्यक्ति श्रेष्ठ साबित होता है, परंतु समाज एक इंच भी आगे नहीं सरकता। ऐसी उपलब्धियों का समाज को क्या फायदा?
वास्तव में संत साहित्य के मूल में अध्यात्म है, ईश्वर के प्रति कृतज्ञता और समर्पण की भावना है तो समाज सुधार के केंद्र में स्थापित व्यवस्था और उसके कारण मनुष्य के विकास की गति में जो अवरुद्धता उत्पन्न हो जाती है, उसकी खोज तथा इस अवरुद्धता को हटाने के उपायों की चर्चा होती है। उसके लिए सामूहिक प्रयत्न शुरू हो जाते हैं। अर्थात् समाज सुधार का प्रस्थान बिंदू ही स्थापित व्यवस्था के प्रति असंतोष तथा उस व्यवस्था को बदलने की दिशा में आगे बढऩे की वृत्ति होती है। संत साहित्य ने उलटे स्थापित व्यवस्था का समर्थन किया है। अपवाद अकेले कबीर हैं। संत साहित्य ने भाग्यवाद का, कर्म सिद्धांत का समर्थन किया है। तुलसीदास भी संतोष धन को बनाए रखने का आग्रह करते हैं- जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। समाज सुधार के मूल में व्यवस्था के प्रति असंतोष होता है।
वास्तव में भारत में समाज सुधार की प्रकिया 19वीं शती के नवजागरण काल में शुरू होती है। इस काल में जितने भी सुधार आंदोलन शुरू होते हैं, उनमें ‘समाज’ शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय दर्शन, चिंतन और मानसिकता में इसके पूर्व ‘समाज’ शब्द पूर्णत: उपेक्षित-सा था। देखिए ब्रह्म समाज (1828), प्रार्थना समाज (1861), सत्यशोधक समाज (1873), आर्यसमाज(1875)। इस देश में समाज सुधार की शुरुआत इन्हीं चार प्रमुख समाजों द्वारा होती है। इनके संचालकों में से किसी एक ने भी संत साहित्य को प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकार नहीं किया है। राजा राममोहन राय, तर्खडकर बंधु, जोतिबा फुले और महर्षि दयानंद सरस्वती(6) अपने काल के सर्वोच्च बुद्धिजीवी थे। इनमें से किसी ने भी संत साहित्य को समाज सुधार के माध्यम के रूप में स्वीकार नहीं किया है। इसके क्या कारण हो सकते हैं? इन संस्थाओं के अलावा जिन व्यक्तियों ने समाज-सुधार हेतु प्रयास किए उनमें से किसी के भी प्रेरणास्रोत संत नहीं है। (यहां फिर अपवाद कबीर का है)। जोतिबा फुले, रामस्वामी नायकर से लेकर बैरिस्टर सावरकर जैसे हिंदुत्ववादी ने भी संतों को प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकारा नहीं है। उलटे मराठी के श्रेष्ठ बुद्धिजीवी श्री वि. का. राजवाडे़ जी ने तो यहां तक लिखा है कि संत साहित्य के कारण यह देश स्थितिवादी हो गया। कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि सामाजिक सुधार के संदर्भ में संत साहित्य की कोई प्रासंगिकता नहीं है। हां, व्यक्ति पर जहाँ तक नैतिक-संस्कारों का प्रश्न है, वहाँ तक तो संत साहित्य के योगदान को स्वीकार करना ही पड़ेगा। मराठी के दलित संतों ने अपनी जाति के कारण खुद को हीन माना है। इस जाति में जन्म के लिए पूर्वजनम के कर्म कारण हैं- ऐसा भी वे मानते हैं।
समाज सुधार की दृष्टि से संत साहित्य का यह विवेचन है। इस आयाम की दृष्टि से संत साहित्य की इस सूक्ष्मता से खोज करें तो हाथ कुछ लगेगा नहीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि मध्यकाल की उस विशिष्ट राजनीतिक और धार्मिक परिवेश में संत साहित्य ने जो आस्था का स्वर भर दिया वह अपने आप में विशिष्ट है। उन्होंने कर्मकांडों का विरोध किया, अंधश्रद्धा पर प्रहार किए, विवेक का आग्रह पकड़ा, ये समाज सुधार के ये कुछ पहलू हैं। परंतु संपूर्ण व्यवस्था पर उन्होंने प्रहार नहीं किए हैं। व्यवस्था परिवर्तन की बात वे आग्रहपूर्वक नहीं करते। वर्षों से हम संत साहित्य का उदात्तीकरण करते आए हैं, कम-से-कम अब तो पूरे विवेक और बुद्घिमत्ता के आधार पर संत साहित्य की जांच-पड़ताल करें, यह आग्रह भरा निवेदन।
संदर्भ :
1. हिंदी साहित्य का इतिहास : श्री रामचंद्र शुक्ल : आठवां संस्करण, पृष्ठ-70, 2. मराठी ग्रंथ- ‘जनता’: संपादक श्री अरुण कांबले, प्रस्तावना, पृष्ठ-41, 3. मराठी ग्रंथ- आंबेडकरांचे बहिष्कृत भारत, पृष्ठ-345, 4. मराठी ग्रंथ : जनता : संपादक अरुण कांबले, पृष्ठ-40, 5. मराठी ग्रंथ : पत्रकार डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर ( लेखक – डॉ. गंगाधर पानतावणे) पृष्ठ- 234, 6.सत्यार्थ प्रकाश : महर्षि दयानंद सरस्वती : 36वां संस्करण, पृष्ठ- 187-274
मराठी संत काव्य- इस भक्ति काव्य को संत काव्य ही कहते हैं, के अंतर्गत अनेक सवर्ण दलित कवि हैं। परंतु यहां सगुण-निर्गुण या प्रकारांतर में सर्वण-दलित जैसा विभाजन नहीं किया गया है। संतों को
दलित-अदलित विशेषण से संबोधित करना किस मानसिकता को सूचित करता है ? फिर हिंदी में दलित और सवर्ण कवियों को ‘भक्त’ कहा गया। मानो संत भक्त हैं ही नहीं। हिंदी में यह जो सगुण-निर्गुण का संघर्ष है, वह दार्शनिक स्तर पर भले ही हो, उसके मूल में सर्वण (सगुण) और दलित( निर्गुण) का सांस्कृतिक संघर्ष दिखलाई देता है। सूरदास की कविता में जो उद्धव-गोपी संवाद अथवा भ्रमरगीत प्रसंग है, वहां से इस संघर्ष के संकेत मिलने लगते हैं। सगुण भक्ति श्रेष्ठ कि निर्गुण भक्ति। अब सभी निर्गुण पंथी पिछड़े समाज के हैं, दलित हैं। और सगुण भक्ति वाले सवर्ण हैं। इनमें से कौन श्रेष्ठ, यही तो विवाद का विषय है। भ्रमरगीत में अंतत: सगुण की श्रेष्ठता को सिद्ध किया जाता है। वहां से यह जो भ्रमरगीत परंपरा शुरू की जाती है, वह जगन्नाथदास रत्नाकर तक चलती है। अनेक प्रमाणों द्वारा सवर्णों की भक्ति को प्रकारांतर में श्रेष्ठ साबित किया जाता है। इस प्रकार एक को श्रेष्ठ तथा दूसरे को कनिष्ठ साबित करने की कोई परंपरा न मराठी भक्तिकाव्य में है और न कन्नड़ के। आश्चर्य तो इस बात का है कि निर्गुण भक्ति को ज्ञानाश्रयी कहा गया, परंतु ज्ञान पर आधारित, विवेक पर आधारित इस भक्ति की सतत हंसी उड़ायी गई, यह किस मानसिकता का सूचक है ? जिनके पास ज्ञान की परंपरा भी उन्हें ज्ञानाश्रयी कहा, जिनके पास अज्ञान की परंपरा थी, उनकी भक्ति को ज्ञानआश्रित कहा। अनजाने में शुक्ल जी कितना बड़ा सच बोल गए कि जिनके पास अज्ञान की परंपरा थी, उन्होंने ही अज्ञान पर आश्रित भक्ति को स्वीकारा।
उपरोक्त सारी बहस इसलिए कि संत, जो जाति-धर्म से परे जाकर, मनुष्य मात्र को एक मानकर अपनी बात कर रहे थे, उनके साथ दलित विशेषण लगाकर उन्हें अपमानित क्यों किया जा रहा है ? दूसरी बात संतों की जाति खोजकर हम क्या साबित करना चाह रहे हैं ? संत हो या भक्त उसकी दृष्टि कितनी विशाल अथवा संकुचित है, इस पर बहस हो अथवा तत्कालीन मनुज-विरोधी व्यवस्था को लेकर वे क्या कर रहे थे, इस पर बहस हो। मैं अपनी सारी बहस संतों की जाति को केंद्र में रखकर करना नहीं चाहता अपितु सम्पूर्ण संत साहित्य का सामाजिक सुधार के संदर्भ में क्या योगदान है, इस पर चर्चा करना चाहता हूं।
यहां मैं इस बात को स्पष्ट करना चाहता हूं कि डॉ. बाबा साहब अंबेडकर संत साहित्य के न केवल अध्येता अपितु विशेषज्ञ भी थे। अपने ‘जनता’ पत्र में वे लिखते हैं- ‘मैंने संत साहित्य को जितना गहराई में जाकर अध्ययन किया है, उतना अध्ययन करने वाले महाराष्ट्र में बहुत कम लोग हैं।’(2) संत साहित्य का गहरा प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर पड़ चुका था। जब उन्होंने अपना पहला पत्र शुरू किया ‘मूकनायक’ तब उसके आरंभ के पृष्ठ पर वे संत तुकाराम के अभंग (मराठी का एक छंद प्रकार) की दो पंक्तियां उदृधत करते थे, जिसका आशय था- ‘ अब संकोच करने का कोई मतलब नहीं। अब नि:शंक होकर बात करूंगा। मूक होकर जीना ठीक नहीं। लाज संकोच से किसी का हित नहीं होगा।’ तो ‘बहिष्कृत भारत’ पर ज्ञानेश्वरी से ली गई पंक्तियां उदृधत की गई हैं। संत साहित्य पर लिखी उनकी समीक्षा केवल नकारात्मक नहीं है। संतों की नैतिक शिक्षा सामाजिक सौहार्द के लिए जरूरी है- ऐसा बाबा साहब अकसर कहते थे। परंतु संतों के इतर विश्वासों, श्रद्धाओं (या कि अंधश्रद्धाओं), भाग्यवाद, वर्णाश्रम, धर्म की श्रेष्ठता को उन्होंने नकारा है। संत साहित्य के प्रभाव के संदर्भ में वे लिखते हैं- ‘क्या है आपके इस संत साहित्य में? नाम स्मरण से तुम्हारा कोई काम होने वाला है क्या?’ अतिवाद पर जाकर वे लिखते हैं- ‘अब तक लिखी गई सभी मराठी पुस्तकें तथा संपूर्ण साहित्य अगर कोई अरब समुंदर में डुबो दे अथवा जला दे, तो मुझे मुझे कोई दु:ख नहीं होगा। केवल दो अपवाद हों एक तुकराम की गाथा तथा दूसरी ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी। इन दो ग्रंथों के आधार पर मेरी मराठी शाश्वत रूप में रहेगी। अभिमान से डोलती रहेगी।’(4) संत साहित्य और सामाजिक सुधार ये दो शब्द वास्तव में परस्पर विरोधी हैं। क्योंकि संत साहित्य के मूल में ‘वैयक्तिक मोक्ष’ या ‘जन्म-मरण से मुक्ति’ की कामना है। संतों के साहित्य का वही लक्ष्य रहा है। वे भौतिक जीवन की घोर उपेक्षा करते है, जबकि ‘सामाजिक सुधार’ की भावना ही व्यक्ति के स्थान पर समाज को केंद्र में रखती है। सामाजिक सुधार की प्रक्रिया भौतिक जगत को उसकी पूरी समग्रता में स्वीकार करने के बाद ही शुरू हो जाती है। इसी कारण संत साहित्य में सामाजिक सुधार की वृत्ति को ढूंढना उन पर अन्याय ही करना है।
डॉ. बाबा साहब अंबेडकर संत साहित्य पर विचार करते समय प्रखर बौद्धिम दृष्टि अपनाते हैं। संतों की नैतिक शिक्षा का वह बार-बार उल्लेख करते हैं। नैतिक शिक्षा के संतों के आग्रह के कारण कई समीक्षकों को यह भ्रम हो गया कि संत साहित्य में सामाजिक सुधार के बीज हैं। डॉ. अंबेडकर संत साहित्य के संदर्भ में ‘विद्रोह’ और ‘क्रांति’ इन दो शब्दों की सूत्रमय व्याख्या करते हैं और लिखते हैं कि ‘संत साहित्य विद्रोही साहित्य है, क्रांतिकारी नहीं। विद्रोह कभी भी समाज व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन नहीं कर पाता। विद्रोह समाज व्यवस्था में हलचल पैदा कर देता है, वह उस पर आघात करता है, परंतु परिवर्तन नहीं। क्रांति अलबत्ता परिवर्तन को साकार करती है। इसी कारण विद्रोह हमेशा असफल होता है। पराजित हो जाता है। क्रांति मूल्यों का निर्माण करती जाती है। वह पुराने मूल्यों को ध्वस्त कर देती है और नये मूल्यों को जन्म देती हैत्र इस दृष्टि से देखें तो संतों का विद्रोह था, क्रांति नहीं।’(5) मराठी संतों ने वर्ण व्यवस्था पर कहीं भी आघात नहीं किया, चाहे वे सवर्ण हो या दलित। हिंदी संतों ने- विशेषत: कबीर ने वर्ण व्यवस्था पर जमकर हमला किया है और कबीर अंबेडकर के प्रेरणास्रोत थे।
भक्ति का मुलम्मा चढ़ाने से मनुष्यता का मूल्य बढ़ता है, यह एक मिथ्या धारणा है। संतों की व्यक्तिगत उपलब्धियां बहुत हैं, परंतु सामुदायिक-सामाजिक उपलब्धियां क्या हैं ? व्यक्तिगत उपलब्धियों से व्यक्ति श्रेष्ठ साबित होता है, परंतु समाज एक इंच भी आगे नहीं सरकता। ऐसी उपलब्धियों का समाज को क्या फायदा?
वास्तव में संत साहित्य के मूल में अध्यात्म है, ईश्वर के प्रति कृतज्ञता और समर्पण की भावना है तो समाज सुधार के केंद्र में स्थापित व्यवस्था और उसके कारण मनुष्य के विकास की गति में जो अवरुद्धता उत्पन्न हो जाती है, उसकी खोज तथा इस अवरुद्धता को हटाने के उपायों की चर्चा होती है। उसके लिए सामूहिक प्रयत्न शुरू हो जाते हैं। अर्थात् समाज सुधार का प्रस्थान बिंदू ही स्थापित व्यवस्था के प्रति असंतोष तथा उस व्यवस्था को बदलने की दिशा में आगे बढऩे की वृत्ति होती है। संत साहित्य ने उलटे स्थापित व्यवस्था का समर्थन किया है। अपवाद अकेले कबीर हैं। संत साहित्य ने भाग्यवाद का, कर्म सिद्धांत का समर्थन किया है। तुलसीदास भी संतोष धन को बनाए रखने का आग्रह करते हैं- जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। समाज सुधार के मूल में व्यवस्था के प्रति असंतोष होता है।
वास्तव में भारत में समाज सुधार की प्रकिया 19वीं शती के नवजागरण काल में शुरू होती है। इस काल में जितने भी सुधार आंदोलन शुरू होते हैं, उनमें ‘समाज’ शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय दर्शन, चिंतन और मानसिकता में इसके पूर्व ‘समाज’ शब्द पूर्णत: उपेक्षित-सा था। देखिए ब्रह्म समाज (1828), प्रार्थना समाज (1861), सत्यशोधक समाज (1873), आर्यसमाज(1875)। इस देश में समाज सुधार की शुरुआत इन्हीं चार प्रमुख समाजों द्वारा होती है। इनके संचालकों में से किसी एक ने भी संत साहित्य को प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकार नहीं किया है। राजा राममोहन राय, तर्खडकर बंधु, जोतिबा फुले और महर्षि दयानंद सरस्वती(6) अपने काल के सर्वोच्च बुद्धिजीवी थे। इनमें से किसी ने भी संत साहित्य को समाज सुधार के माध्यम के रूप में स्वीकार नहीं किया है। इसके क्या कारण हो सकते हैं? इन संस्थाओं के अलावा जिन व्यक्तियों ने समाज-सुधार हेतु प्रयास किए उनमें से किसी के भी प्रेरणास्रोत संत नहीं है। (यहां फिर अपवाद कबीर का है)। जोतिबा फुले, रामस्वामी नायकर से लेकर बैरिस्टर सावरकर जैसे हिंदुत्ववादी ने भी संतों को प्रेरणास्रोत के रूप में स्वीकारा नहीं है। उलटे मराठी के श्रेष्ठ बुद्धिजीवी श्री वि. का. राजवाडे़ जी ने तो यहां तक लिखा है कि संत साहित्य के कारण यह देश स्थितिवादी हो गया। कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि सामाजिक सुधार के संदर्भ में संत साहित्य की कोई प्रासंगिकता नहीं है। हां, व्यक्ति पर जहाँ तक नैतिक-संस्कारों का प्रश्न है, वहाँ तक तो संत साहित्य के योगदान को स्वीकार करना ही पड़ेगा। मराठी के दलित संतों ने अपनी जाति के कारण खुद को हीन माना है। इस जाति में जन्म के लिए पूर्वजनम के कर्म कारण हैं- ऐसा भी वे मानते हैं।
समाज सुधार की दृष्टि से संत साहित्य का यह विवेचन है। इस आयाम की दृष्टि से संत साहित्य की इस सूक्ष्मता से खोज करें तो हाथ कुछ लगेगा नहीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि मध्यकाल की उस विशिष्ट राजनीतिक और धार्मिक परिवेश में संत साहित्य ने जो आस्था का स्वर भर दिया वह अपने आप में विशिष्ट है। उन्होंने कर्मकांडों का विरोध किया, अंधश्रद्धा पर प्रहार किए, विवेक का आग्रह पकड़ा, ये समाज सुधार के ये कुछ पहलू हैं। परंतु संपूर्ण व्यवस्था पर उन्होंने प्रहार नहीं किए हैं। व्यवस्था परिवर्तन की बात वे आग्रहपूर्वक नहीं करते। वर्षों से हम संत साहित्य का उदात्तीकरण करते आए हैं, कम-से-कम अब तो पूरे विवेक और बुद्घिमत्ता के आधार पर संत साहित्य की जांच-पड़ताल करें, यह आग्रह भरा निवेदन।
संदर्भ :
1. हिंदी साहित्य का इतिहास : श्री रामचंद्र शुक्ल : आठवां संस्करण, पृष्ठ-70, 2. मराठी ग्रंथ- ‘जनता’: संपादक श्री अरुण कांबले, प्रस्तावना, पृष्ठ-41, 3. मराठी ग्रंथ- आंबेडकरांचे बहिष्कृत भारत, पृष्ठ-345, 4. मराठी ग्रंथ : जनता : संपादक अरुण कांबले, पृष्ठ-40, 5. मराठी ग्रंथ : पत्रकार डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर ( लेखक – डॉ. गंगाधर पानतावणे) पृष्ठ- 234, 6.सत्यार्थ प्रकाश : महर्षि दयानंद सरस्वती : 36वां संस्करण, पृष्ठ- 187-274
This entry was posted by author: admin on Saturday, May 28th, 2011 at 8:14 am and is filed under आलेख | Tags: · bhakti sahitya, bhimrao ambedkar, sant sahitya, suryanarayan ransubhe, भाक्ति साहित्य, भीमराव अंबेडकर, संत साहित्य, सूर्यनारायण रणसुभे You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site. | |
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