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Wednesday, October 5, 2011

समयांतर


हिंदी आलोचना का प्रथम पुरुष

July 7th, 2010
रामाज्ञा शशिधर
बालकृष्ण भट्ट और आधुनिक हिंदी आलोचना का आरंभ: अभिषेक रोशन; पृ.सं.ः 216;
मूल्यः रु. 390; अंतिका प्रकाशन
ISBN 978.93.80044.10.1
यह हिंदी आलोचना का हड़ताल युग है। लगता है कि आलोचना का पड़ताल युग खत्म हो चुका है। पड़ताल युुुग की आलोचना रचना के समय और समाज से संवाद बनाती थी, रचना की कलात्मकता की शिनाख्त करती थी, रचना की संस्कृति का विकास और विस्तार करती थी, रचना के मूल्यों से विचारधारात्मक संघर्ष करती थी, रचना से कदम भर आगे चलती हुई नई मूल्य और सौंदर्य प्रणाली गढ़ती थी तथा रचना के लिए पाठकों में विश्वसनीय एवं सुरुचिसंपन्न माहौल सिरजती थी। आलोचना यह जिम्मेदारी एक ऐसी नवीन भाषा में निभाती थी जिसे जनोन्मुख न भी कहें तो आलोचक के कलात्मक एवं वैचारिक संघर्ष के निजत्व से उपजी हुई मालूम होती थी। आज की पीढ़ी की आलोचना से यह निजत्व गायब है।
कविता और कथा साहित्य जब अक्सर नए नए आंदोलनों को जन्म देते थे, तब आलोचना भी पड़ताली अभियान चलाती थी। पिछले दो दशक से कविता और कथा साहित्य हाथ पर काली पट्टी बांधकर रचनात्मक संघर्ष कर रहे हैं, नई-नई उपलब्धियों की गिनती करवा रहे हैं लेकिन आलोचना है कि सामूहिक हड़ताल पर चली गई है। मात्रा के स्तर पर वह नहीं भी गई हो, गुणवत्ता के स्तर पर जरूर चली गई है। यह अनायास नहीं है कि नव साम्राज्य की टक्कर से हिंदी की रचनाशीलता ज्यादा शक्तिशाली हुई है वहीं आलोचना की काया और माया छीजती जा रही है। हड़ताल युगीन आलोचना के दौर में शोधालोचना के तौर पर आई हुई थोड़ी बहुत सामग्री अपना महत्व और मायने रखती है। गोपाल प्रधान की छायावाद युगीन साहित्यिक वाद विवाद, पंकज चतुर्वेदी की आत्मकथा की संस्कृति, प्रणय कृष्ण की उत्तरऔपनिवेशिकता के स्त्रोत और हिंदी साहित्य, वैभव सिंह की इतिहास और राष्ट्रवाद, आशुतोष कुमार की माक्र्सवाद और समकालीन हिंदी कविता आदि किताबें शोधालोचना की कट एंड पेस्ट संस्कृति के विरुद्ध नए मानों और प्रतिमानों की स्थापना करती हैं। इसी कड़ी में अभिषेक रोशन की किताब बालकृष्ण भट्ट और आधुनिक हिंदी आलोचना का आरंभ को देखा जाना चाहिए।
आलोचना की हड़ताली पीढ़ी चूंकि समकालीन रचनाशीलता और समय से बड़ी तैयारी के साथ जद्दोजहद करने में अक्षम है, इसलिए बार-बार पड़ताली पीढ़ी के अंधस्वीकार या अंधबहिष्कार से ही शेरखां साबित होना चाहती है। इन दिनों हड़ताली पीढ़ी पड़ताली पीढ़ी के जीवितों के लिए अनूठे विशेषणों का प्रयोग कर अपनी साख बनाना चाहती है। अंधभक्ति के विवेकहीन अभियान में वह किसी के लिए शिखर पुरुष, किसी के लिए हिमालय पुरुष, किसी के लिए चोटी पुरुष, किसी के लिए पहाड़ पुरुष की संज्ञा का धुंआधार इस्तेमाल करती है। हड़ताली पीढ़ी का मुख्य कार्य है, पड़ताली पुरुषों के लिए मंच बनाना, अभिनंदन समारोह करना, जन्मोत्सव आयोजित करना, अभिनंदन का संपादन करना आदि। इसके एवज में पड़ताली पीढ़ी से अपने होने का, यदि होने लायक कुछ हो तो, परिचय-पत्र प्राप्त करना। हड़ताली पीढ़ी में अनेक ऐसे युवा आलोचक हैं जिन्हें जुगाड़ पुरुष, बाजार पुरुष, अहंकार पुरुष, और व्यवहार पुरुष का सम्मान दिया जा सकता है। यह हिंदी आलोचना का चरणबद्ध उठान है। ऐसी जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि के दौर में हिंदी आलोचना के प्रथम पुरुष की खोज करना एक सार्थक और विश्वसनीय कार्य माना जाना चाहिए।
अभिषेक रोशन की मूल स्थापना है कि हिंदी आलोचना के प्रथम पुरुष बालकृष्ण भट्ट ही हैं। भारतेंदु युग की आलोचना में सर्वाधिक मान और प्रतिमान गढ़नेवाले तथा अपने समय की रचनाशीलता का गहरा विश्लेषण विवेचन करनेवाले आलोचकों में बालकृष्ण भट्ट सर्वश्रेष्ठ हैं। इस तथ्य की खोज के लिए उन्होंने एक ओर गहरा अनुसंधान किया है वहीं तर्कांे के सहारे विचारणीय निष्कर्ष भी हासिल किया है। तथ्यों और तर्कों से गुजरते हुए यह पता चलता है कि हिंदी आलोचना के अबतक के अधिकंाश विकसित आयामों के बीजतत्व बालकृष्ण भट्ट की आलोचना में मौजूद हंै।
हिंदी प्रदीप की तैंतीस साल की फाइलों की मदद से बालकृष्ण भट्ट को हिंदी आलोचना का प्रथम पुरुष साबित किया गया है। 19 वीं सदी की हिंदी आलोचना पत्र पत्रिकाओं के सहारे फुटकल ढंग से विकसित हुई। भारतेंदु की हरिश्चंद्र मैगजीन, बालकृष्ण भट्ट की हिंदी प्रदीप, प्रतापनारायण मिश्र की ब्राह्मण और बदरीनारायण चैधरी प्रेमघन की आनंद कादंबिनी का आरंभिक हिंदी आलोचना के निर्माण एवं विकास में ऐतिहासिक महत्व है।
परवर्ती आलोचना मंे इस बात पर बहस होती रही है कि हिंदी आलोचना का प्रथम पुरुष कौन है। भारतेंदु हरिश्चंद्र की 1883 की आलोचना पुस्तिका नाटक अथवा दृश्यकाव्य के आधार पर अधिकांश आलोचक यह स्थापना देते रहे हैं कि अन्य विधाओं की तरह भारतेंदु ही आधुनिक आलोचना के प्रस्थानक हैं। केवल रामविलास शर्मा ने बालकृष्ण भट्ट और हिंदी आलोचना का जन्म निबंध लिखकर इस बात पर जोर दिया कि बालकृष्ण भट्ट सर्वाधिक प्रतिभाशाली आलोचक रहे हैं। अभिषेक रोशन की मान्यता है कि ”बालकृष्ण भट्ट के चिंतन को कहीं भारतेंदु तो कहीं बदरीनारायण चैधरी पे्रमघन मंे खपा देने की दृष्टि कमोबेश हर जगह व्याप्त है। ”रामविलास शर्मा के सूत्र को विकसित करते हुए यहां इस बात पर जोर है कि “ बालकृष्ण भट्ट के लिए आलोचना कर्म साहित्यिक भूमिका ही नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक भूमिका भी है। इसलिए यहां शुद्ध साहित्य की चिंता नहीं है। उनका चिंतन शास्त्र और शिष्ट को लोकचिंता से धकियाकर विकसित हुआ है। उनके चिंतन में राजसमूह नहीं जनसमूह है।
अभिषेक रोशन की अनेक स्थापनाओं और दुर्लभ सोत्रांे से यह प्रमाणित होता है कि हिंदी आलोचना के प्रथम पुरुष बालकृष्ण भट्ट ही हैं। प्रथम पुरुष ने सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों तरह की आलोचना का विकास किया। वे हिंदी की व्यावहारिक आलोचना के आरंभकर्ता हैं। उनके लेखन के केंद्र में साहित्यिक समझदारी और सामाजिक भागीदारी की एकता है। उनके लिए साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास हैं तथा साहित्य जनसमूह के चित का चिन्नपट है। बालकृष्ण भट्ट लाला श्रीनिवास रचित ऐतिहासिक नाटक संयोगिता स्वयंवर का निर्मम मूल्यांकन करते हुए सच्ची आलोचना लिखते हैं। हिंदी में उपन्यास आलोचना की दरिद्रता जगजाहिर है। 1883 में बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी प्रदीप में ‘उपन्यास’ शीर्षक से निबंध लिखा जो उपन्यास आलोचना पर संभवतः हिंदी का पहला लेख है। उन्होंने सच्ची कविता नामक लेख लिखा जिससे उनकी खड़ी बोली कविता विरोधी मानसिकता का पता चलता है।
हिंदी आलोचना का मुख्य स्वर लोकवादी, सामाजिक, जनोन्मुख और जनपक्षीय रहा है। बालकृष्ण भट्ट की आलोचनात्मक चिंता में यह स्वर शामिल है। हिंदी आलोचना का विकास कविता केंद्रित रहा है। यह दिलचस्प है कि इसका आरंभ नाटकों के मूल्यांकन से हुआ। बालकृष्ण भट्ट की आलोचना का अधिकांश नाटक, उपन्यास, कविता, और चित्र कंेद्रित है। बालकृष्ण भट्ट एक ओर सैद्धांतिक आलोचना मंे शास्त्र के सम्मुख लोक, शिष्ट के सम्मुख सामान्य, दरबारी संस्कृति के सम्मुख जनसंस्कृति का पक्ष लेते हैं, वहीं कला विधाओं में मानवीय संवेदनशीलता और हार्दिक आवेग को बहुत अधिक तरजीह देते हैं। भट्ट के लिए कविता और चित्र निकटवर्ती विधा हैं लेकिन इतिहास प्रक्रिया में कविता का ह्रास होता जाता है और चित्रकला का विकास। भट्ट हिंदी-उर्दू विवाद पर बहस करते हैं और इसके समाधान के लिए बोलचाल की भाषा का पक्ष लेते हैं।
हिंदी आलोचना की साहित्यिकता का सामाजिकता से कैसा रिश्ता होना चाहिए, इसकी बुनियाद अपने प्रचुर सामाजिक वैचारिक लेखों से सर्वप्रथम बालकृष्ण भट्ट ही रखते हैं। उनके वैचारिक लेखों के शीर्षक से हिंदी आलोचना के प्रथम पुरुष की आलोचकीय चिंता को समझना आसान होगाः ‘मनोविज्ञान’, ‘साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है’, ‘भाषाओं का परिवर्तन’, ‘स्त्रियां और उनकी शिक्षा’, ‘जातपात’, ‘सभ्यता और साहित्य’, ‘दुर्भिक्ष दलित भारत’, ‘हमारे देश के पुराने ढंग वाले’, ‘स्वराज्य क्या है’ और ‘अकिल अजीरन रोग’।
हड़ताली पीढ़ी की आलोचना का सर्वाधिक संकट है कि इसके अधिकांश आलोचक के पास अर्जित निजी भाषा नहीं है जो अनुभव की भट्ठी से पिघलकर निकलती है। आप रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय के आलोचनात्मक लेखों से इनके नाम हटाकर भी सिर्फ भाषिक संरचना के आधार मंे उन्हें पहचान सकते हैं। नई पीढ़ी इस कला को साधने में सफल नहीं हुई है। बालकृष्ण भट्ट आलोचना की सहृदयी, हंसमुख, चुटीली, साफ-सुथरी, व्यंग्यपूर्ण और तर्कशील भाषा के आरंभकर्ता हैं। यह कहने में मुझे संकोच नहीं हेै कि अभिषेेक रोशन की इस किताब को केवल भाषिक सृजनशीलता के ख्याल से भी पढ़ा जाए तो आज की आलोचना अपनी भाषिक संकटग्रस्तता को तोड़ने में सफल हो सकती है।
बालकृष्ण भट्ट यदि आधुनिक हिंदी आलोचना के प्रथम पुरुष हैं तो शुद्धतावादी व्याकरणविद आलोचक सवाल उठा सकते हैं कि प्रेमघन मध्यम पुरुष हुए तथा भारतेंदु उत्तम पुरुष। इस तरह उनका यथास्थितिवाद बना रहेगा। जिन शुद्धतावादी आलोचकों में इतना शऊर है कि बहुवचनी ज्ञान और लिंगबोध के सहारे आलोचना की परंपरा का अंधबहिष्कार कर ही वे अपनी कुंठा काई से मुक्त होते हैं उनकी चेतना यदि बालकृष्ण भट्ट को आलोचना का प्रथम पुरुष के बदले अधमपुरुष ही माने तो इसमें हैरानी क्या होगी! अभिषेक रोशन की अनुसंधानी वृत्ति, तर्कशील, साफगोई, भाषा और विश्लेषण क्षमता शोधालोचना के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है तथा हिंदी के मालउड़ाऊ आलोचकों के लिए संकट खड़ा करती है। अब उन्हें शब्दों का कारोबार निरंतर कर देना चाहिए।

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