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Wednesday, October 5, 2011


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हिन्दी में आलोचना व्यवसाय है 

साक्षात्कार
सुप्रसिध्द आलोचक श्री श्रीनिवास शर्मा से राजेंद्र परदेसी की बातचीत
राजेंद्र परदेसी-आपके रचनाकर्म की प्रेरणा का स्रोत क्या है? उसके प्रयोजन को आप कैसे व्याख्यायित करना चाहेंगे?
श्रीनिवास शर्मा-विपरीत पारिवारिक परिस्थितियों ने किशोरावस्था से ही मुझे चिन्तनशील बना दिया था। गांव से कलकत्ता आने पर गंभीर साहित्य के अध्ययन-मनन की ओर झुकाव हो गया था।
जवाहर लाल नेहरु, डॉ. राधाकृष्णन, लेनिन की पुस्तकें पढ़ता था। नेहरु और लेनिन के विचारों से प्रभावित था।
बाद में राजनीति और पत्रकारिता की, वर्षों तक अध्यापन से जुड़ा रहा, साहित्यिक रुचि भी थी, राजनीति में आने पर लगा कि साहित्य को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता।
साहित्य की पक्षधरता की बात भी समझ आ गयी थी, परंतु साहित्य को सदा राजनीति के चश्मे से देखना अनुचित है।
साहित्य की भी अपनी शर्तें होती हैं और उसका अपना स्वतंत्र दृष्टिकोण होता है जो राजनीति को भी दिशा प्रदान करता है। सामाजिक रुपांतरण में साहित्य की अनिवार्य भूमिका है।
मध्यकाल हो अथवा भारतीय नवजागरण-साहित्य और पत्रकारिता की जबर्दस्त भूमिका रही है। साहित्य राजनीति को विचार और दिशा देता है, राजनीति में उसकी भूमिका सहयोग तथा प्रतिपक्ष की भी होती है।
राजेंद्र परदेसी-आपकी लिखी आलोचनाओं की मुख्य प्रवृत्तियां क्या है? इस संदर्भ में विस्तार से कुछ बताना चाहेंगे?
श्रीनिवास शर्मा- आलोचना में मेरे प्रेरणा स्रोत आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा डॉ. रामविलास शर्मा हैं, नमवर सिंह भी प्रभावित करते हैं। मेरी आलोचना व्याख्यात्मक होती है, रचना का मूल्यांकन देशकाल तथा परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही संभव है। समाज से कटकर साहित्य को देखना गलत है। कार्ल मार्क्स, एंजेल्स तथा लेनिन का मुझ पर यथोष्ट प्रभाव है, मेरी पहचान मार्क्सवादी आलोचक के ही रुप में है, परंतु अपने देश के इतिहास, संस्कृति, सभ्यता, परम्परा से मुंह मोड़ना (मार्क्सवाद के नाम पर) गलत है। मार्क्स-एंजेल्स ने ऐसा कहीं नहीं लिखा है, मार्क्सवाद एक संपूर्ण जीवन दर्शन है। मार्क्स की बहुत सी बातें आज गलत सिध्द हो चुकी हैं। समाज का विकास द्वन्द से नहीं, सहयोग से होता है, द्वन्द तो विध्वंस करता है। सहयोग बिना विकास असंभव है, वाद प्रतिवाद के बाद हमें संवाद पर ही आना होता है, मार्क्सवाद जड़ मतवाद नहीं है मार्क्सवाद एक सतत गतिशील जीवन दर्शन है।

राजेंद्र परदेसी-साहित्य में आलोचना का क्या महत्व है?
श्रीनिवास शर्मा- साहित्य और आलोचना एक दूसरे के पूरक हैं, आलोचना का आनुषंगिक है, पहले साहित्य तब आलोचना, हिन्दी में उल्टी गंगा बहती है, हिन्दी साहित्य आलोचकों की दादागिरी से त्रस्त तथा ग्रस्त है। पेशेवर आलोचकों ने साहित्य का अहित किया है। यह स्थिति केवल हिन्दी में है। हिन्दी में आलोचना व्यवसाय है। बंगला, मराठी साहित्य में रचना को प्रथम तथा आलोचना को गौण स्थान प्राप्त है। हिन्दी में आलोचना की बैसाखी बिना रचनाकारों का टिक पाना असंभव है। कालेज, विश्वविद्यालय के अध्यापकों ने आलोचना पर कब्जा जमा रखा है। अनेक जेनुइन साहित्यकारों की उपेक्षा हुई है। आलोचना को तीसरी आंख कहा गया है पर हिन्दी आलोचना खेमेबाजी का शिकार है। यह आलोचना का दारिद्रय है। हिन्दी की राष्ट्रीय धारा के कवियों, गीत-नवगीतकारों की घोर उपेक्षा हुई है। दिनकर जैसे कवि उपेक्षित है।
आलोचना पर क्षेत्रीय तथा महानगरीय मानसिकता हावी है, लोग अपनी-अपनी डफली बजाते और अपना राग अलापते हैं। दिल्ली के साहित्यकार और आलोचक स्वार्थी हैं। कविता, कहानी, आलोचना में मार्क्सवाद की रामनामी तथा व्यक्तिगत जीवन में घनघोर सामंतवादी-जातिवादी, परंपरावादी-यह इनका दोहरा चरित्र है। ऊपर से सत्ता को गरियाना और भीतर से मलाई उड़ाना इनकी चारित्रिक विशेषता है। सरकारी प्रतिष्ठानों में घुसकर रुपया कमाना, राजभाषा के नाम पर हवाई जहाज की सैर विदेश यात्रा, पुरस्कार-इनके जीवन का चरम लक्ष्य है। ऐसे लेखकों के लिए पुरस्कार 'ब्रह्म' तथा विदेश यात्रा 'मोक्ष' है।

राजेंद्र परदेसी-पहले की आलोचना का स्वरुप क्या रहा है। उसके संदर्भ में आज की आलोचना में क्या अन्तर है?
श्रीनिवास शर्मा-हिन्दी आलोचना की पुरानी पध्दति तुलनात्मक या फिर गुण-दोष प्रधान थी, व्याख्यात्मक तथा यथार्थवादी आलोचना की शुरुआत आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने की, आलोचना की बहुत सी प्रवृत्तियाँ प्रगतिवादी (मार्क्सवादी), समीक्षा, मनोविश्लेषणवादी, बिम्बवादी, प्रतीकवादी, अभिव्यंजनावादी, रुपवादी, शैली वैज्ञानिक संरचना प्रधान तथा उत्तर संरचनावादी, अनेक प्रवृत्तियां हैं। हिन्दी की मार्क्सवादी आलोचना पर मार्क्स, एंजेल्स, लेनिन फोक्स, लुकाच तथा अंग्रेजी की नयी समीक्षा का जबर्दस्त प्रभाव है।
राजेंद्र परदेसी-आलोचना में किसी कृति अथवा कृतिकार की प्रशंसा किस सीमा तक उचित मानते हैं?
श्रीनिवास शर्मा- आलोचक को जोश और उत्साह के साथ कृति की परख करनी चाहिए। व्यक्तिवादी प्रभाववादी, आलोचना के साथ सही न्याय नहीं कर पाती। हिन्दी में तो 'जाति' और संबंधों के आधार पर आलोचना होती है। हिन्दी आलोचना की यह दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना है।
राजेंद्र परदेसी-सैध्दान्तिक और वस्तुपरक आलोचना में आप क्या कोई भेद पाते है?
श्रीनिवास शर्मा-सैध्दान्तिक आलोचना किताबी होती है, वह एकपक्षीय तथा एकांशी होती है। सिध्दांत वस्तुपरकता में बाधक होता है। रचना सिध्दांतों के आधार पर नहीं होती। सिध्दांतवादी समीक्षक सिध्दांतों और प्रत्यक्षों के फेर में मूल्यांकन से भटक जाता है।
राजेंद्र परदेसी-आज साहित्य में गुटबाजी है, आलोचक भी किसी न किसी गुट से जुड़े देखे जाते हैं क्या ऐसे आलोचकों से किसी कृति का सही मूल्यांकन संभव है।
श्रीनिवास शर्मा-शिविरबध्दता और गुटबाजी ने साहित्य का अहित किया है। आलोचक का काम फतवेबाजी नहीं है, व्यक्तिगत रागद्वेष, रुचि भिन्नता मूल्यांकन में बाधक है।
राजेंद्र परदेसी-अंग्रेजी साहित्य में आलोचना एक स्वतंत्र विधा के रुप में स्थापित है, ऐसे कौन तत्व हैं जो आलोचना को विद्या का रुप प्रदान करते हैं?
श्रीनिवास शर्मा-संस्कृत आलोचना अंग्रेजी से अधिक समृध्द है। संस्कृत में आलोचना के छह संप्रदाय हैं- अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि, औचित्य तथा रस अंग्रेजी समीक्षा की भी अपनी दीर्घ परंपरा है। अरस्तु से लेकर नयी समीक्षा (......) तक उसने लंबी यात्रा तय की है। हिन्दी आलोचना पर कभी संस्कृत काव्य शास्त्र का अधिक प्रभाव था। आधुनिक साहित्य का मूल्यांकन संस्कृत साहित्य से संभव नहीं है, आधुनिक हिन्दी आलोचना पर अंग्रेजी की नयी समीक्षा तथा मार्क्सवादी आलोचना-पध्दति का प्रचुर प्रभाव है। हिन्दी आलोचना भी स्वतंत्र विद्या के रुप में है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, के बाद डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, शिवराज सिंह चौहान, डॉ. नगेंद्र, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय डॉ. रमेश कुंतल मेघ, डॉ. सुरेंद्र चौधरी, डॉ. शिवकुमार मिश्र, मैनेजर पांडेय, मधुरेश ने हिन्दी आलोचना को स्वतंत्र विद्या की पहचान दी है,
राजेंद्र परदेसी- किसी कृति की समीक्षा और आलोचना में क्या कोई भेद है?
श्रीनिवास शर्मा-समीक्षा, आलोचना, समालोचना पर्यायवाची शब्द हैं, साहित्य-मूल्यांकन के शाश्वत मूल्यों की खोज असंभव है, समीक्षा के मूल्यों का निर्माण हवा में नहीं होता। पहले काव्य फिर काव्य-शास्त्र सुंदर-असुंदर, प्रासंगिक का ज्ञान विवेक द्वारा ही संभव है। सौंदर्य की कोई सर्वमान्य अथवा शाश्वत कसौटी संभव नहीं है। आलोचना पर भी यह बात वैसे ही लागू होती है। समीक्षा, आलोचना में कोई तात्विक भेद नहीं है।
राजेंद्र परदेसी- क्या आलोचना से पाठकों में आलोच्य कृति के प्रति जिज्ञासा पैदा होती है?
श्रीनिवास शर्मा-आलोचना से आलोच्य कृति पर निश्चय ही नया प्रकाश पड़ता है। इसीलिए आलोचना को 'तीसरी ऑंख' कहा गया है। संस्कृत का सारा साहित्य ही उपेक्षित था। मैक्समूलर, गेटे जैसे लोगों ने नींद से जगा दिया, इसके लिए हमें विदेशियों का कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने हमें हमारी समृध्द धरोहर से हमारा नए सिरे से साक्षात्कार कराया, वरना हम तो 'विश्व का धर्मगुरु' होने का मिथ्या भ्रम पाले बैठे थे और गुलामी की चक्की में पिस रहे थे।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तुलसीदास, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर, डॉ. रामविलास शर्मा ने निराला, प्रगतिशील आलोचकों ने प्रेमचंद, मुक्तिबोध, निराला, नागार्जुन तथा अन्य अनेक रचनाकारों की कृतियों के बारे में पाठकों में जिज्ञासा उत्पन्न की थी और नए सिरे से मूल्यांकन कर उनका महत्व स्थापित किया। छायावादी कवियों के महत्व को शांति प्रिय द्विवेदी तथा छायावाद के अन्य आलोचकों ने रेखांकित किया। इससे पाठकों में आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रति रुचि एवं जिज्ञासा बढ़ी।
राजेंद्र परदेसी-आप आलोचना विषयक अपने अवदान से क्या संतुष्ट हैं? आगे आपकी क्या योजना है?
श्रीनिवास शर्मा- आपका यह प्रश् मुझे असमंजस में डालता है, मैं अपने को बहुत दूर-दूर तक कहीं नहीं पाता। अपनी आलोचना से मुझे असंतोष है। आलोचक के लिए ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। यहां तो मैं अपने को और पीछे बहुत पीछे पाता हूँ। मेरी भावी योजना इक्कीसवीं सदी से जुड़े कला एवं साहित्य के प्रश्ों को लेकर कुछ लिखने की है।
राजेंद्र परदेसी-युवा पीढ़ी के सामने सम्प्रति दिग्भ्रम और दिशाहीनता की स्थिति है। जिससे निकल पाने के लिए उसे कोई विकल्प नहीं मिल रहा है, अपने अनुभवों के आधार पर संबंध में आप नयी पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहेंगे?
श्रीनिवास शर्मा- युवा पीढ़ी पर बााारवाद, उपभोक्तावाद का गहरा प्रभाव है। युवा पीढ़ी संस्कार-रहित है। वह अपनी जड़ों से बुरी तरह उखड़ चुकी है, मौज-मस्ती, भोग विलास, अर्थोपार्जन ही उसका लक्ष्य है। वह अपने देश की सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, कला, इतिहास, परम्परा के प्रति जागरुक नहीं है, यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है।
युवा पीढ़ी देश का भविष्य है। युवा पीढ़ी पूरी तरह दिशा हीन है। वह केवल वर्तमान को लेकर चिन्तित है। भविष्य की उसे कोई चिन्ता नहीं है, अतीत और वर्तमान से सीख लेकर ही भविष्य का निर्माण संभव है। समाज का पतन उसके अपने दोषों से होता है। जो जाति इतिहास से सबक नहीं लेती, इतिहास उसे दंडित करता है, इतिहास के प्रति युवा-पीढ़ी का नाकारा दृष्टिकोण घोर चिन्ता का विषय है।
एटम बमों से देश के इतिहास और संस्कृति की सुरक्षा संभव नहीं है, हमारा दृष्टिकोण समग्र और संतुलित होना चाहिए। विवेक का परित्याग सामूहिक पतन का हेतु है।

बी-1118 इंदिरा नगर
लखनऊ-226016
मोबाईल-09415045584
संपर्क-
श्री श्रीनिवास शर्मा
छपते-छपते (दैनिक)
26-सी.क्रीकरोड
कोलकत्ता-700014
मोबाईल-09339268931
 
 
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