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Wednesday, October 5, 2011


 
 
 
 
आलेख
हिन्दी की आरंभिक आलोचनावीरेन्द्र मोहन
यह कैसे संंभव है कि जब कविता एक नई परंपरा रच रही थी, रीतिकालीन परिपाटी से मुक्त हो, लोकपरंपरा का पालन करते हुए नवीनता के सोपान रच रही थी; वह भक्ति के साथ युगीन प्रवृत्तियों से सम्पृक्त हो रही थी, तब वह रीतिकालीन काव्य शास्त्र को क्योंकर अंगीकार करती। तब आलोचना की नयी सरणियों का उन्मेष किसी न किसी रूप में विकसित होना ही था। आलोचना के लिए यह एक नये रास्ते के निर्माण की चुनौती थी। भारतेन्दु और उनके समकालीन साहित्यकारों ने इस चुनौती को स्वीकार किया। इस चुनौती के स्वीकार का पहला और महत्वपूर्ण निकाय आधुनिक हिन्दी और उसकी सर्जना के गद्य रूप का निर्माण और स्वीकार था। इस महत् कार्य में पत्रकारिता एक महत्वपूर्ण स्तंभ के रूप में विकसित हुई। एक नयी बौद्धिकता साहित्यिक हलचल के रूप में स्वीकार की गयी। यह नयी बौद्धिकता सामाजिक और आर्थिक प्रत्ययों से क्रियाशील हुई। नव जागरण की विविध निष्पत्तियां, स्वाधीनता प्राप्ति की उमंग और सामाजिक आर्थिक विषमताओं ने इस बौद्धिकता को पुष्ट किया। यह कविता और साहित्य के अन्य रूपोंं के नये प्रस्थान का भी वाहक है। कविता, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि गद्य के अनेक रूप अपने समय की विकराल स्थितियों में दखल दे रहे थे। इसलिए हिन्दी की आरंभिक आलोचना भी रीतिकालीन शास्त्र से भिन्न अपने समय की रचनाशीलता से साक्षात्कार के लिए प्रवृत्त हुई। उसने नवीन मानदंडों की खोज के लिए न केवल अपनी परंपरा का अवगाहन किया; बल्कि वह पश्चिम के आलोचना शास्त्र से परिचय के लिए भी प्रवृत्त हुई। कहा जा सकता है कि भारतेन्दु के समय की रचना और आलोचना सामाजिक उत्तरदायित्व को लेकर चल रही थी। रचना और आलोचना दोनों का उपजीव्य वृहत्तर जीवन के विविध संदर्भ थे।भारतेन्दु और उनके समकालीन रचनाकारों के इस व्यापक दृष्टिकोण को सामने रखकर ही उस समय के आलोचना सूत्रों को खोजा जा सकता है।

इस युग का साहित्य सर्जना के विविध आयामों से सम्पृक्त है। यहां मौलिक रचनाशीलता तो है ही; अनुवाद के माध्यम से भी हिन्दी का साहित्य नवीन प्रवृत्तियों से सम्पृक्त हो रहा था। नैतिकता का प्रबल आग्रह यदि उसका एक छोर है, तो दूसरे छोर पर उसकी उपयोगिता का भी परीक्षण है। संस्कृत, बंगला और अंग्रेजी से अनुदित रचनाओं की आलोचना ने भी अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। जिस तरह रचनात्मक साहित्य ने रीतिवाद से अपने को मुक्त किया, उसी तरह आलोचना ने भी रीतिवादी काव्यशास्त्र को स्वीकार नहीं किया। रीतिकालीन आलोचना बौद्धिक हस्तक्षेप के स्थान पर वाक् विलास तक सीमित हो गयी थी। रीतिकाल के पश्चात रचना और आलोचना दोनों ही विलास उपकरणों से इतर यथार्थ की सामाजिक भूमि पर संचरण करती दिखाई देती हैं। इस साहित्य में मुक्ति की कामना प्रबल है तो अपनी भाषा और परंपरा पर अभिमान भी।

भारतेन्दु युग के सभी साहित्यकार-रचनाकर्मी जीवन के सभी क्षेत्रों में क्रियाशील रहे। साहित्य के सभी पक्षों का संवद्र्धन उनकी जिम्मेदारी थी। कारयित्री और भावयित्री प्रतिमा का अद्भुत योग इस काल के रचनाकारों की महत्वपूर्ण विशेषता है। जैसे अनेक नवीनताओं के पुरस्कर्ता भारतेन्दु माने गये हैं, वैसे ही हिन्दी की आधुनिक आलोचना का प्रस्थान भी वे ही हैं। भारतेन्दु के पूर्व की जिस आलोचना की चर्चा की जाती है; वह वस्तुत: आलोचना के आधुनिक दायरे से बाहर की चीज है। भारतेन्दु या भारतेन्दु के युग की आलोचना वह है जो सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना की अग्रदूत है। इस आलोचना का प्रस्थान एक ओर यदि शास्त्र सम्मत है या शास्त्र से जुड़ा है, तो दूसरी ओर अपनी सामयिक स्थितियों से भी असम्पृक्त नहीं है, उनसे बेखबर नहीं है। भारतेन्दु यदि नाटक के संदर्भ मेें नाट्यशास्त्र के विधान का अनुसरण करते हैं, तो दूसरी ओर अपने समय के नाट्यलेखन की जरूरतों और पद्वतियों को भी अपनी आलोचना में शामिल करते हैं। वे लिखते हैं: इन नवीन नाटकों की रचना के मुख्य उद्देश्य ये होते हैं यथा-1-श्रंगार 2-हास्य 3-कौतुक 4- समाज संस्कार 5- देशवत्सलता। श्रृंगार और हास्य के उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं, जगत मेंं प्रसिद्व हैं। कौतुक विशिष्ट वह है जिसमें लोगो के चित्तविनोदार्थ किसी यंत्रविनोदार्थ किसी यंत्रविशेष द्वारा या और किसी प्रकार अद्भुत घटना दिखाई जाए। समाज संस्कार के नाटकों में देश की कुरीतियों का दिखलाना मुख्य कर्तव्य कर्म है। यथा शिक्षा की उन्नति, विवाह सम्बधी कुरीति निवारण अथवा धर्म सम्बन्धी अन्यान्य विषयों में संशोधन इत्यादि। किसी प्राचीन कथा भाग का इस बुद्धि से संगठन कि देश से उससे कुछ उन्नति हो, इसी प्रकार के अन्तर्गत है। (इसके उदाहरण सावित्री चरित्र, दु:खिनी बाला,बाल्य-विवाह विदूषक, जैसा काम वैसा ही परिणाम, जय नारसिंह की, चक्षुदान इत्यादि।) देशवत्सल नाटकों का उद्देश्य पढऩे वालों वा देखने वालों के हृदय मेंं स्वदेशानुराग उत्पन्न करना है और ये प्राय: करूणा और वीर रस के होते हैं। (उदाहरण भारत जननी, नील देवी, भारत दुर्दशा इत्यादि)। इन पांच उद्दश्यों को छोड़ कर वीर, सख्य इत्यादि अन्य रसों में भी नाटक बनते हैं। (भारतेन्दु समग्र: पृ. 558-559) आलोचना में यह लोक की स्वीकृति का निर्भीक प्रयास है। भारतेन्दु युगीन आलोचना ने बुद्धिवादी ढंग से विचार करने के लिए प्रेरित किया। यह विचार राजनीति आदि सभी पक्षों पर हुआ। यहाँ प्राचीन साहित्य की आलोचना करते हुए उस साहित्य की विशिष्टताओं और सीमाओं को रेखांकित किया गया तो अपने समकालीन साहित्य की आलोचना में भी मृदुता और कठोरता दोनों का परिचय दिया गया। यहाँ कालिदास, बाण भट्ट या तुलसी की रचनाओं का विवेचन हुआ तो लाला श्रीनिवास दास या बंगला से अनूदित कृतियों की भी तार्किक और शोध पूर्ण आलोचना की गयी। यहाँ आलोचना में ईमानदारी का निर्वाह किया गया। यद्यपि इस युग में फर्जी आलोचना की कमी नहीं है। 'अहो रूपंं अहो ध्वनि:Ó वाली आलोचना के विषय में भी इस युग के आलोचकों ने नरमी नहीं दिखाई। इस दृष्टि से भारतेन्दू ने यदि सैद्धान्तिक आलोचना का सूत्रपात किया तो व्यवहारिक आलोचना के सूत्र भी यहाँ कम नहीं हंै। लाला श्रीनिवासदास के नाटक 'संयोगिता स्वयंवर, बाबू रमेशचन्द्र दत्त के बंगला नाटक 'बंग विजेताÓ की आलोचना अथवा गोल्ड स्मिथ की अग्रेजी कृति 'हरमिटÓ का श्रीधरपाठक द्वारा किया गया अनुवाद 'एकान्तवासी योगीÓ की आलोचना कुछ उदाहरण हैं। हिन्दी प्रदीप,आनन्द- कादम्बिनी, हरिश्चन्द्र मैग्जीन, भारत मित्र, ब्राह्मण, सार सुधा निधि आदि पत्रों में आलोचना कई-कई रूपों में मिलती है। इन पत्र-पत्रिकाओं ने आलोचना-दृष्टि के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया । इन पत्रों में हिन्दी अथवा संस्कृत की कृतियों के अंग्रेजी अनुवाद भी आलोचना के विषय बने। कृतियों के गुण दोषों का विवेचन भारतेन्दु युग की आलोचना में देखने को मिलता है। जो कार्य की आज की आलोचना कर रही है, उसके दागबेल भारतेन्दु के युग में ही पड़ चुकी थी। भारतेन्दु, बद्रीनारायण चौधरी, बालमुकुन्द गुप्त, बालकृष्ण भट्ट आदि की बौद्धिक चिन्ता आलोचना में व्यक्त हो रही थी। भाषा के प्रश्र पर भी यहां गभीर विचार मंथन हुआ। रीतिकालीन आलोचना जिसका कि बदलती हुई युग प्रवृत्ति से कोई संबंध नहीं था; स्वत: ही क्षीण से क्षीणतर होती गयी और शास्त्र के साथ लोक और परंपरा के बदलते हुए रूपों को अपनी आलोचना में स्वीकृति देने वाली भारतेन्दु युग की आलोचना ने आज की आलोचना का पथ प्रदर्शन किया। वस्तुुत: आलोचना साहित्य के परिष्कार एवं उद्बोधन का भी कार्य कर सकती है; भारतेन्दुयुगीन आलोचना ने यह संभव कर दिखाया। राष्ट्रीय जागरण और समाज का सुधार कार्य आलोचना के द्वारा भी संभव है; यह मार्ग हमें भारतेन्दु युगीन आलोचना ने ही दिखाया है। आज जिसे हम परिचयात्मक आलोचना या गुण-दोषों के विवेचन वाली आलोचना कहते हैं; वही हमारी आलोचना की पृष्ठभूमि है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहासÓ में लिखा है कि 'समालोचना का सूत्रपातÓ हिन्दी में एक प्रकार से भट्ट जी और चौधरी साहब ने ही किया। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके गुण दोष के विस्तृत निरूपण की चाल उन्होंने चलाई। बाबू गदाधर सिंह ने 'बंगविजेताÓ का जो अनुवाद किया था, उसकी आलोचना कादंबिनी में पांच पृष्ठों मेें हुई थी। लाला श्रीनिवास दास के 'संयोगिता-स्वयंवरÓ की बड़ी विस्तृत और कठोर समालोचना चौधरीजी ने कादंबिनी के 21 पृष्ठों में निकाली थी(पृ. 256)यह आलोचना रसवादी आलोचना भी है, जिसके सबसे बड़े आलोचक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हैं। पं. गंगा प्रसाद अग्रिहोत्री ने 'समालोचनाÓ नामक अपने निबंध में एक वैचारिक आदर्श प्रस्तुत करते हुये गुणगान पद्धति वाली आलोचना की अच्छी खबर ली है। इस प्रकार युग के लेखक जातीय अवधारणा की सत्ता को स्थापित कर रहे थे। साहित्य जन समूह के हृदय का विक ास है, यह अवधारणा भारतेन्दु युग की आलोचना में पहली बार सुनाई देती है। यह आलोचना लोकवादी जीवन-दृष्टि पर आधारित आलोचना है। यह कार्य सामान्य बौद्धिकता से संभव नहीं था। इस आलोचना की एक समग्र भारतीय दृष्टि है, वस्तु: यह अभिरूचियोंं के बदलने का परिणाम है। रचना और आलोचना इस बदलती हुई अभिरूचि का आख्यान हैं।
 
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वीरेन्द्र मोहनहिन्दी की आरंभिक आलोचना
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