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Tuesday, October 4, 2011















 
'मान्योशु' जापानी
  रीतारानी पालीवाल

'मान्योशु' जापानी कविता का प्राचीनतम और बृहत्तम काव्य- संग्रह है। अपने काव्यात्मक गुणों के लिए इसे दुनिया की श्रेष्ठतम कविताओं में शामिल किया जाता है। इसका संग्रह आरंभ होने की
निश्चित तारीख तो ज्ञात नहीं, किन्तु माना जाता है कि इसका संकलन आठवीं शताब्दी के मध्य शुरू हुआ और लगभग पचास वर्ष में यह अपना वर्तमान रूप पा सका। 'मन्योशु' के संग्रहकर्ताओं के नामों की भी जानकारी नहीं है, पर ओतोमो याकामोचि नामक एक काव्यसुधी जन की इस संकलन कार्य में व्यापक भूमिका मानी जाती है। बीस खंडों में संग्रहीत 'मन्योशु' में चार हजार से अधिक कविताएँ हैं जिनके आकार-प्रकार, विषय-वस्तु और संवेदना में पर्याप्त विविधता है। इसके विभिन्न खंडों में आकार की दृष्टि से, शामिल कविताओं के स्वरूप और मिजाज की दृष्टि से, रचनाकाल और क्रमबद्धता की मात्रा की दृष्टि से व्यापक अंतर है। 'मन्योशु' की कविताएँ विविध स्त्रोतों से आई कविताएँ हैं। एक ओर 'कोकाशु' नामक प्राचीन संग्रह से ली गई अनाम कवियों कविताएँ हैं तो दूसरी ओर हितोमारो और मुशिमारो जैसे सिद्ध कवियों के व्यक्तिगत संग्रहों से ली गई कविताएँ हैं। कालक्रम की दृष्टि से इन कविताओं का विस्तार चार सौ वर्षों का है। सबसे प्राचीन कविता चौथी शताब्दी के सम्राट निन्तोकु (313-99)की है और आखिरी तिथि 759 में रचित एक कविता की है। इन्हीं आधारों पर माना जाता है कि कुछेक अपवादों को छोड़कर 'मन्योशु' की ज्यादातर कविताएँ सातवीं शताब्दी की मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक लिखी गई थीं। इन कविताओं के साथ प्रचुर किन्तु अपूर्ण टिप्पणियाँ हैं, जिनमें लेखक और लेखन की परिस्थितियों, इस्तेमाल किए गए स्त्रोतों के विषय में तथा उस कहावत और पुराकथा के विषय में उल्लेख किया गया है, जिसे आधार बनाकर कोई कविता लिखी गई है।

'मन्योशु' का संग्रह काव्य-प्रेमियों द्वारा किया गया है, किसी शासकीय निर्देश अथवा राजाज्ञा के अधीन नहीं। परिणामस्वरूप इसमें किसी वर्ग-विशेष के लोगों की कविताएँ न होकर सबकी कविताएँ शामिल की गई हैँ। सम्राटों-सम्राज्ञियों से लेकर आम आदमी तक-राजकुमारों, राजकुमारियों, सिंहासन के दावेदारों, दरबारी सामंतों, राजभवन की परिचारिकाओं, कुलीन अभिजनों, सामंत वर्ग की महिलाओं से लेकर सैनिकों, सीमा प्रहरियों, किसान स्त्रियों, नर्तकियों, गणिकाओं, गेइशाओं नागर जनों से लेकर ग्रामीणों तक की कविताएँ 'मन्योशु' में हैं। इस तरह एक ओर जहाँ हितोमारो और अकाहितो जैसे कविता के संतों की रचनाएँ हैं तो दूसरी ओर अभिजात प्रगीत कवि याकामोचि और उनके पिता ताबितो की या दार्शनिक ओकुरा और किंवदंती प्रेमी मुशिमारो की। निर्दयी सम्राट युराकु (418-79)की ग्राम सुंदरी पर कविता है तो परोपकारी राजकुमार शोतोकु (574-622)की करुणा अज्ञात व्यक्ति की मृत्यु पर शोक गीत में व्यक्त हुई है। फुजिवारा कामातारि (614-69)यासुमिको नामक सुंदरी को पाकर आनंद विभोर हैं तो सम्राट तेंजी की पत्नी राजकुमारी नुकादा और उनके पूर्व पति राजकुमार ओआमा राजनीति के सत्ता-चक्र में पिसते हुए भी परस्पर प्रेमाभिव्यक्ति में लीन हैं। संन्यास ग्रहण कर बौद्ध दर्म की सेवा करने वाली राजकुमारी ओकु प्रकृति के वैभव से आह्लादित किंतु राजचक्र की विडंबनाओं से पीड़ित हैं तो अपनी हैसियत से ऊपर के पुरुष से विवाह करने वाली सानु चिगामी निर्वासित पति से वियोग की सजा पाने को मजबूर है।

लेकिन बड़ी तादाद में कविताएँ-जिनमें कुछ अत्यंत श्रेष्ठ कविताएँ भी शामिल हैं-अति सामान्य स्त्री-पुरुषों द्वारा लिखी गई कविताएँ हैं। इनमें से कुछ के रचयिताओं का तो नाम ज्ञात है, किन्तु अधिकांश कविताएँ अनाम कवियों की हैं। विशेष रूप से 'सीमांत प्रहरियों के गीत' (साकिमोरि नो उता) और 'पूर्वी भूमि के गीत' (आजुमा-उता) के रचनाकारों के नामों की जानकारी नहीं है। किन्तु इन अज्ञातनामा गीतकारों की कविताओं ने ही मन्यो संसार को इतना वास्तवपन और विश्वसनीयता प्रदान की है। लंबी, कठिन और संकटपूर्ण यात्रा पर गए इन सीमांत प्रहरियों के गीत बिछुड़ने की पीड़ा और घर वापसी की तीव्र उत्कंठा को व्यक्त करते हैं। प्रेमिका, पत्नी और माता-पिता को संबोधित से गीत कभी- कभी तो शोकगीत की करुणा से आर्द्र हो उठते हैं। इसी तरह 'आजुमा-उमा' यानी 'पूर्वी भूमि के गीत' कांतो (जिसमें वर्तमान तोक्यो श्रेत्र भी शामिल है)श्रेत्र में तैनात सीमा प्रहरियों के गीत हैं। राजधानी नारा के सुसंस्कृत परिवेश और सुख-सुविधाओं से दूर कांतो इलाके के इन गीतों में देशभाषा का लहजा और आकर्षक अनगढ़पन की लय के साथ‍- साथ देशीपन की सादगी और सरलता है। विरह गीतों में भावों और संवेदनों की अपरिष्कृत प्रस्तुति है जो अक्सर नागर, शिष्टाचार की सीमाओं की परवाह नहीं करती। इन दोनों वर्गों की कविताओं में रोजमर्रा के सामान्य जीवन के कामकाज से संबद्ध सीधे- सादे बिम्बों और उपमाओं में निम्नवर्गीय जन सामान्य की भावनाओं को वाणी मिली है।

'मन्योशु' में बड़ी तादाद में कविताएँ महिलाओं की हैं-किसी भी देश के इतिहास में किसी युग विशेष में इतनी बड़ी तादाद में सृजन में महिलाओं की भागीदारी मुश्किल से ही मिलेगी। 'मन्योशु' में कुछेक निपुण कवयित्रियों की कविताएँ अत्यंत उत्कृष्ट कोटि की हैँ। इससे प्रकट होता है कि आरंभिक जापानी साहित्य के विकास में महिलाओं की महती भूमिका रही है। राजकुमारी नुकाता, महिषी ओनो सकानोउए, महिषी कासा, सानु नो ओतोकामी, सानु चिगामी की कविताओं में प्रेम की विभिन्न मनोदशाओं, उमंग, उत्साह, क्रोध, आवेग, वियोग की पीड़ा, आकांक्षा आदि की विभिन्न रूपों में अभिव्यक्ति हुई है-सीधी-सपाट भाषा में भी, प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से भी और ऐन्द्रिय मांसल रूपों में भी। एक ओर प्राकृतिक दृश्यों और प्रेम के भावों को परस्पर अनुस्यूत करती हुई कविताएँ हैं तो दूसरी ओर प्रेम की तीव्र भाव-प्रवण अनुभूतियों, उनकी सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक बारीकियों को उद्घाटित करती हुई प्रत्यक्ष अभिव्यक्तियाँ हैँ। पर यह नितांत भोगवाद और दैहिक विषयासक्ति का संसार नहीं है। यह सूक्ष्म, गूढ़ और सुकोमल भावों का संसार है।शृंगारिक भावों के संयोग और वियोग दोनों रूपों की अभिव्यक्ति 'मन्योशु' में व्यापक रूप से विद्यमान है।
स्त्री-पुरुष के प्रेम की व्यापक अभिव्यक्ति के अलावा अन्य सभी प्रकार का मानवीय प्रेम और करुणा 'मन्योशु' का आधार बनी है। प्रहरियों और सैनिकों के गीतों में माता-पिता और संतान प्रेम को अभिव्यक्ति मिली है तो सत्ता संघर्ष चक्र में पिसते राजकुमार ओत्सु और राजकुमारी ओकु की कविताएँ भ्रातृ प्रेम की वेदना को व्यक्त करती हैं। 'मान्योशु' में पाँच तरह के शोक गीत हैं-सम्राट अथवा राजपरिवार के सदस्य की मृत्यु पर लिखे गए शोकगीत या प्रियजनों-परिजनों की मृत्यु पर लिखे गए शोकगीत, अजनाबी के परित्यक्त शव को देखकर लिखे गए शोकगीत, मृत्युदंड़ पाने से कुछ क्षण पहले स्वयं अपनी आसन्न मृत्यु पर लिखे गए शोकगीत और किसी पौराणिक पात्र की मृत्यु के विषय में शोक व्यक्त करने वाले शोकगीत। इनमें से उन शोकगीतों को छोड़कर जो समारोह में पढ़े जाने के लिए लिखे गए हैं, शेष सभी प्रेमगीतों की क्षेणी में आ सकते हैँ।

आठवीं सदी में पूर्वी प्रांतों से भर्ती करके क्यूशू भेजे गए 'साकिमोरि' (सीमांत प्रहरियों) की कविताएँ सेना संबंधी किसी कार्यकलाप की चर्चा नहीं करतीं। ये स्वजन- बिछोह अथवा स्वदेश-बिछोह की पीड़ा की कविताएँ हैं। कुछेक कविताएँ सीमांत प्रहरी के दायित्वों के ब्याज से जबरन रंगरूट भर्ती की व्यथा की अभिव्यक्ति हैं। प्रधानतया ये कविताएँ स्त्री-पुरुष संबंधों पर केन्द्रित हैं और पूरी तरह लौकिक हैं इस संसार में जीने को और जीवन-स्थितियों को आधार बनाती हुई। अभिजातवर्गीय कवियों द्वारा लिखी कविताओं और 'आजुमा उता' अथवा 'सकामोरि नो उता' की कविताओं में स्पष्ट अंतर सूक्ष्म परिष्कृत संवेदनशीलता और सादगीपूर्ण सीधी अभिव्यक्ति का है। शासक अथवा स्वामी, स्वामिनी के प्रति निष्ठा और समर्पण भी बहुत सी कविताओं का भाव रहा है, किन्तु 'मन्योशु' का केन्द्रीय भाव मानवीय प्रेम और विशेष रूप से स्त्री-पुरुष का प्रेम ही रहा है।

मन्यो काल में प्रेम के इस संसार के अलावा एक दूसरा संसार भी था-राजनीति और सत्ता संघर्ष का संसार, किन्तु मन्यो कवियों ने इन दोनों को एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न माना। राजनयिक अभियान दल के सदस्यों, सेनानायकों और सीमांत प्रहरियों द्वारा रचित कविताएँ इसका प्रमाण हैं। सन 736 में एक राजनयिक अभियान दल कोरिया की राजधानी सिल्ला गया था। इसके सदस्यों की करीब डेढ़ सौ कविताएँ 'मन्योशु' में हैँ। ध्यान देने की बात है कि इनमें से एक भी कविता इस राजनयिक शिष्टमंडल के स्वरूप ‌और प्रवृत्ति पर नहीं है। अधिकांश कविताएँ वियोग अथवा पुनः वापसी की आकांक्षा की हैं अथवा नए देखे स्थलों के वर्णन की हैं। इससे स्पष्ट है कि 'मन्योशु' संग्रहकर्ताओं के विशिष्ट चयन मानदंड रहे होंगे।

'मन्योशु' कविताओं में प्रकृति अपने विविध रूपों में लगातार मौजूद है। वन, नदी, पर्वत, झरने, फूल, चंद्रमा, सूर्यादय, सूर्यास्त, बर्फ, हवा वर्षा, बादल, खुली धूप, घास, पत्तियाँ, वृक्ष, पंछी मानवीय भावों को प्रतिबिम्बित करते हुए आए हैं स्वयं अपनी सत्ता के रूप में नहीं। प्रकृति के छोटे, सौम्य और आत्मीय चित्र अंकित हैं विराट और भयावह चित्र नहीं। जापानी द्वीप समूह के राष्ट्रीय जीवन के स्पंदन में व्याप्त वैविध्य अत्यंत मनोहर ढंग से इस काव्य-संग्रह में जीवंत है। प्राचीन समय और समाज तथा उसके लोगों के मनोभावों और विचारों, संवेदनों और कार्यों, आकांक्षाओं, उलझनों, रीतियों, लोकविश्चासों, परंपराओं और रूढ़ियों की बहुविधता के माध्यम से यहाँ प्राचीन जापान का समाजशास्त्र मौजूद है। राजधानी नारा से लेकर सुदूर गाँवों तक के रोजमर्रा के कार्यकलाप के साथ शिकार-यात्रा, युद्ध अभियान पर विदाई, राजनयिक अभियान, धान की कुटाई, कपड़े की रंगाई, 'उतागाकि' (स्त्री-पुरुषों द्वारा पंक्तिबद्ध होकर कविता पाठ और प्रणय आमोद), आम नागरिकों का सादगीपूर्ण निर्धन जीवन, शिंतो जीवन पद्धति, जनमन की आस्था जिंजा(देवालय) का सख्त नियंत्रण, राजकोष अनुशासन आदि मिलकर जापानी जीवन और समाज का नितांत समग्र और प्रामाणिक चित्र उपस्थित करते हैँ। यही कारण है कि बारह सौ वर्षों से अधिक समय बीत जाने के बाद आज भी 'मन्योशु' की अपील बरकरार है। सांस्कृतिक संवेदनों और जीवन पद्धति में व्यापक बदलाव के बावजूद ये कविताएँ अब भी जापानी मन का प्रतिनिधित्व करती हैं। जब कभी जापानी लोग 'मन्योशु' की चर्चा करते हैं तो इसकी उदात्तता और विशुद्धता का गौरवान्वित भाव उनके चित्त में होता है। इन कविताओं की ठेठ जापानियत को वे बड़े चाव से सराहते हैं। ध्यान देने की बात हैं कि आठवीं शताब्दी में चीनी लिपि को अंगीकार किए जाने के बाद ही जापान में चीनी संस्कृति और साहित्य का प्रभाव आना शुरू हुआ था।

'मन्योशु' की कालजयी क्षमता इन कविताओं से तादात्म्य स्थापित करने की शक्ति में निहित है जो आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकता और अनुवाद के समस्त खतरे झेलते हुए भी इनमें मौजूद रही है। अपने इसी तादात्म्य गुण से ये देशी-विदेशी सभी तरह के पाठकों से हृदय-संवाद कर सकी हैं।

मन्योशु की 4500 से अधिक कविताओं में से नब्बे प्रतिशत से अधिक कविताएँ 'तंका' छंद में हैं। इकत्तीस वर्णों के इस छंद में 5-7-5-7-7 वर्णों की पाँच पंक्तियाँ होती हैं। तंका आज भी जापानी कविता के प्रधान छंदों में से एक है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि हर वर्ष जापान के सम्राट एंव सम्राज्ञी की उपस्थिति में आयोजित कविता प्रतियोगिता के लिए भेजी जाने वाली प्रविष्टियों में अक्सर तंका छंद में ही होती हैं। ये प्रविष्टियाँ बीसियों हजार की तादाद में होती हैं, जिनमें से कुछ श्रेष्ठ कविताओं को चुना जाता है और इन कविताओं के कवि तोक्यो राजभवन में आकार कविता का पाठ करते हैं। विशेष बात यह है कि स्वयं सम्राट एंव सम्राज्ञी भी इस शाही कविता प्रतियोगिता में अपनी कविता प्रस्तुत करते हैं।

'मन्योशु' में कुछ लंबी कविताएँ भी हैं-'चोका' छंद में। इसमें पाँच और सात वर्णों की पंक्तियाँ बारी-बारी से आती हैं। ये क्रम कितना भी लंबा चल सकता है। अंत में कविता की समाप्ति सात वर्णों पर आकर होती है। हितोमारो द्वारा इस छंद में लिखी गई अत्यंत उत्कृष्ट कविताएँ 'मन्योशु' में शामिल हैं। चोका छंद की लंबी कविताओं में अक्सर कई सारांशपरक विराम आते हैं। सारांशपरक विराम की ये कविताएँ तंका छंद में हैं।

'मन्योशु' की कविताएँ अपनी काव्यात्मक संवेदना के कारण जापानी साहित्य प्रेमियों में विशेष रूप से चर्चा का विषय रही हैं। चुनिन्दा कविताओं के कई संग्रह भी समय-समय पर तैयार किए जाते रहे हैं, पाठालोचन का कार्य भी हुआ है। इनमें युकिचि ताकेदा का 'जोतेइ मन्योशु जेनचुशाकु' विशेष रूप से चर्चित रहा है। इस तरह मन्योशु पर रचनात्मक विचार-विवेचन परंपरा में जापानियों के गहन-गंभीर काव्यास्वाद प्रवृत्ति का परिचय मिलता है।

हिन्दी पाठकों कि जापानी क्लासिक संवेदना से अवगत कराने की दृष्टि से यहाँ 'मन्योशु' की सौ कविताओं का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। प्रश्न उठता है 'मन्योशु' की कविताओं को मैंने अनुवाद के लिए क्यों चुना? इसका एक सीधा उत्तर तो यही है कि इन कविताओं की प्रबल काव्यानुभूति किसी भी सहृदय पाठक को प्रभावित किए बिना नहीं रह सकंती। दूसरे इनमें जापानी मन के वे सांस्कृतिक बिम्ब हैं जो मनुष्य और मनुष्यता को एक सहज जीवन जीने की शक्ति देते हैं। इन कविताओं में तीन भाव प्रमुख हैँ-प्रकृति से लगाव, परंपरा से लगाव तथा अपने आत्म से लगाव। कहना न होगा कि इन कविताओं के आत्म-बिम्ब मनुष्य के आंतरिक लगावों को व्यक्त करते हैं‍- आखिर संस्कृति मानव-बिम्बो का संयोजन ही तो है। ये कविताएँ इस अर्थ में आज भी अर्थवान हैं कि अपनी सर्जनात्मकता से ये हमारे संवेगों, संस्कारों और स्मृतियों को प्रभावित करती हैं।

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