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Tuesday, October 4, 2011

साहित्य में आधुनिकता एवं समीक्षा


साहित्य में आधुनिकता एवं समीक्षा 

चाहे प्राच्य हो या पाश्‍चात्य, अच्छे गुणों का ग्रहण करके मूल्यबोध सहित उन्हें प्रस्तुत करना लेखक की प्रतिभा का सुपरिचायक होता है । विषय-वस्तु जो भी हो, औचित्यपूर्णता के साथ नूतनता का स्पर्श देकर नव्य काव्य का प्रणयन किया जा सकता है । परम्परा या प्राचीनता का दोष देकर आयातित वस्तुओं से आधुनिकता को प्रकट करना स्पृहणीय नहीं । आज की आधुनिकता आगामी दिनों में प्राचीनता के नाम से ही पहचानी जायेगी ।

अन्य भाषा-साहित्यों की तरह संस्कृत में भी हर विधा की सारस्वत साधना चली आ रही है । आधुनिक दृष्टि-कोण से व्याकरणानुसार नये-नये शब्दों का गठन और नवीन प्रयोग किये जा रहे हैं । जीवन के हर क्षेत्र में उत्तम और सुचारु परिचालना हेतु एक सीमा यानी मर्यादा होती है । उसी प्रकार हर भाषा के प्रयोग में भी एक मर्यादा है । संस्कृत तो भाषा-जननी है । वह अपनी सुनीति-ज्योति से अन्यों को आलोकित करती है । इसलिये सहृदय लेखकों द्वारा अरुचिकर तत्त्वों को छोड़कर सांप्रतिक तथा आगामी समाज के लिये उपादेय तत्त्वों का परिवेषण करना चाहिये, जिससे भाषा और समाज सुप्रतिष्ठित हों । आधुनिक प्रगति के नाम पर अपसंस्कृति से जुड़ी दुर्गति कदापि काम्य नहीं है । प्रदूषक तत्त्वों का परिहार सर्वथा सराहनीय है ।

समीक्षा केवल दोष-दर्शन रूप आलोचना नहीं होनी चाहिए । केवल आधुनिक मुक्त-छन्द में लिखित साहित्य ही साहित्य–पद-वाच्य है और पूर्व सूरियों या सांप्रतिक सूरियों की पारम्परिक छन्दोबद्ध कविता साहित्य-पद-वाच्य नहीं – इस प्रकार सोचना नितान्त भ्रम है । अन्यान्य साहित्यों की भाँति संस्कृत में काव्य-रचना की दिशा में प्राचीन छन्दों या पारंपरिक छन्दों सहित मुक्त-छन्दों का सबल प्रयोग चल रहा है । मुक्त-छन्द में वर्ण और मात्रा के बन्धन न होने के कारण भाव-प्रकाशन में शब्दप्रयोग की स्वाधीनता रहती है । फिर मुक्त-छन्द भी लेखक की अपनी शैली से नये-नये प्रकार के बनाये जा सकते हैं । पारंपरिक छन्द और मुक्त-छन्द अपने अपने स्थान पर मर्यादा-सम्पन्न हैं । मनुष्य प्राचीनता से शिक्षा प्राप्त करके नूतनता में प्रवेश करता है, अतीत से ही वर्त्तमान को बनाता है और भविष्य की उज्ज्वल संभावना देखता है ।

प्राचीनता या परम्पराबद्धता या परम्परा का अनुसरण वास्तव में दोष नहीं ; उसे दोष-रूप में प्रस्तुत करना समीक्षक का दोष बन सकता है । लेखक अपनी रुचि के अनुसार लिखता है । आधुनिक साहित्यों में, विशेषकर संस्कृत साहित्य में, आजकल पारम्परिक भजन, स्तुति या भक्ति-परक काव्य-कविताएँ विविध शैलियों में लिखी जा रही हैं । ये भी जीवन के अंग-स्वरूप साहित्य के अंश-विशेष हैं । मुक्त-छन्द किसी एक भाषा का अपना तत्त्व नहीं है; वह प्राय हर भाषा-साहित्य में सुविधानुसार अपनी शैली में अपनाया गया है । आधुनिकता के नाम पर पुरातन रचनाओं के या पारंपरिक शैली में लिखित वर्त्तमान की रचनाओं के प्रति तुच्छ ज्ञान करना या अनादर भाव प्रदर्शन करना सुन्दर समीक्षा नहीं कही जा सकती । जिस प्रकार पारंपरिक छन्दों में रचित नूतन दृष्टिकोण-युक्त या नव्य-संवेदना-संपन्न उत्तम रचनाओं को पुरातन कहकर उनकी उपेक्षा करना समीचीन नहीं, उसी प्रकार मुक्त-छन्दों में प्रणीत नयी रचनाओं के प्रति प्राचीन छन्दों के समर्थकों द्वारा अनादर भाव पोषण भी उचित नहीं है ।

भारत के प्रान्तीय भाषा-साहित्यॊं में कई सुन्दर राग-रागिणियाँ और छन्द हैं । कुछ संस्कृत कवि सुविधानुसार उनमें से कुछ छन्दों को संस्कृत में अपनाकर उनका प्रयोग कर रहे हैं । उसी भाँति विदेशी भाषाओं के कुछ छन्दों को भी संस्कृत में अपनाकर उनका प्रयोग और परीक्षण किया जा रहा है । परन्तु उसी दृष्टि से ही अपने को आधुनिक कहलाना सत्य का अपलाप होगा । काया को विदेशी ढाँचे से आवृत किया जा सकता है, परन्तु आत्मा को नहीं । तथ्य तो यह है कि हर भाषा के साहित्य में मिश्रित छन्दों के प्रयोग से विविध कृतियाँ रची जा रही हैं । फिर भी शैली की दृष्टि से हर भाषा की स्वकीय विशेषताएँ हैं । आधुनिकता में नयी दृष्टिभगी होनी चाहिये; तभी लेखनी की सार्थकता बनती है । उसके साथ ही उपयुक्त समीक्षण साहित्य के लिये हितकारी है ।

प्रत्येक भाषा की अपनी निजस्व छन्दोयोजनाएँ और शैलियाँ हैं । उन्हें आधुनिकता के नाम पर कोई लेखक बदरंग बनाना चाहता है तो वह लेखक ही उसके प्रति उत्तरदायी रहता है । पुरातन हो या नूतन, यदि काव्यगुण सुरुचिपूर्ण, उपादेय, साहित्यिक मूल्यबोध-संपन्न और मनोहारी हो तो कविता कालजयी और चिरन्तन बन सकती है । कविकुलगुरु कालिदास ने ' मालविकाग्निमित्र '- नाटक में यथार्थ रूप से कहा है :-
“ पुराणमित्येव न साधु सर्वं
न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् ।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते
मूढ़ः पर-प्रत्यय-नेय-बुद्धिः ॥ "
 (प्रस्तावना, १/२).
कालिदास का कहना है : पुरातन होने के नाते सारे काव्य उत्कृष्ट हैं - ऐसी कोई बात नहीं और नूतन होने के नाते सब कुछ निकृष्ट है - ऐसी बात भी नहीं । विवेकी विज्ञ लोग पुरातन और नूतन वस्तुओं का अच्छी तरह अनुशीलन करके अपनी रुचि के अनुसार ग्रहण करते हैं । परन्तु मूढ़ व्यक्ति स्वयं यथार्थ रूप से परख नहीं पाता और दूसरों की बुद्धि से परिचालित होता है ।

प्रसंगानुसार ‘सहृदयानन्द’-महाकाव्य के प्रणेता कवि कृष्णानन्द की उक्ति यहाँ उल्लेखनीय है :-
“ प्रत्नस्य काव्यस्य च नूतनस्य
तुल्यः स्वभावः प्रतिभासते मे ।
मृजाभिरेते निपुणैः कृताभिः
समश्‍नुवाते हि गुणान्तराणि ॥ "
 (१/५)
कवि का कहना है : मुझे पुरातन और नूतन - उभय काव्यों का स्वभाव समान प्रतीत होता है । ये दोनों प्रकार के काव्य प्रवीण विद्वानों द्वारा मार्जित अर्थात् संस्कारित होकर उत्कर्ष प्राप्त करते हैं ।

पुरातनता और परम्परा - इन दोनों का अटूट सम्बन्ध है; फिर परम्परा के साथ नूतनता का भी । उसी भाँति नूतनता और आधुनिकता - दोनों का परस्पर अभिन्न सम्पर्क है । हर युग में नूतन और पुरातन तत्त्वों का समन्वय होता रहता है । संस्कृत के मूर्धन्य काव्यकार कालिदास, भास, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि कई सारस्वत साधक प्राचीन विषयों पर अपने अपने काव्य-सौध की भित्ति स्थापित करके मौलिक परिवेषण से यशस्वी बन चुके हैं । आधुनिक भाषा-साहित्यों में भी कई लेखक-लेखिकागण पुरातन विषयों पर लिखकर लोकप्रिय हुए हैं । इसलिये पुरातनता को कभी नकारा नहीं जा सकता । भारतीय परंपरा में पूर्व सूरियों के प्रति श्रद्धा सहित सम्मान-बोध रहा है । ‘रघुवंश’ में महाकवि कालिदास का कहना है :-
“अथवा कृत-वाग्‌द्वारे वंशेऽस्मिन् पूर्व-सूरिभिः ।
मणौ वज्र-समुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मे गतिः ॥”
 (१/४)
कवि कालिदास के कथन का तात्पर्य है : वाल्मीकि-प्रमुख पूर्वज मनीषियों ने रामाय़ण आदि ग्रन्थ रचकर सूर्य-सम्भूत वंश (रघुवंश) के बारे में वाणी का द्वार उन्मुक्त कर दिया है । सूची से बिद्ध मणि में सूत्र जैसे प्रवेश करता है, उसी प्रकार उसी वाणी-द्वार में प्रवेश कर मैं रघुवंश का वर्णन कर सकूँगा ।

कल्पना-विलास एवं वास्तविकता - ये दोनों विषय साहित्य के भित्ति-स्वरूप हैं । केवल आधुनिक विषयवस्तुओं को अपनाने से आधुनिकता नहीं बनती । समय था, संस्कृत-ओड़िआ आदि भाषाओं के साहित्यों में आलंकारिक युग मुख्य रूप से विदग्ध काव्य-पिपासु जनों का आमोद-दायक रहा । तत्कालीन कवि-लेखकों की कृतियाँ समय के विचार से उसी काल में "आधुनिक" कही जाती थीं । उसी समय का युग पाण्डित्य-प्रदर्शन का युग था । समयानुसार साहित्य-रुचि भी बदलती रहती । आजकल की आधुनिक और अत्याधुनिक काव्य-कविताओं में दुर्बोधता, भाव-पक्ष की जटिलता, रस-न्यूनता आदि सांप्रतिक-रुचि-सम्मत हो गई हैं । युग-रुचि के अनुसार साहित्य की सर्जना चलती रहती है । कवि-लेखक चाहें तो अपनी नवोन्मेष-शालिनी प्रतिभा से नयी दृष्टिभंगी लेकर एक नये युग का सूत्रपात कर सकते हैं । संस्कृत साहित्य में कालिदास के बाद 'किरातार्जुनीय'-महाकाव्य के रचयिता भारवि अपनी काव्य-रचना-शैली की स्वतन्त्र पहचान दिखाकर एक नव्य युग के प्रवर्त्तक बने ।

साम्प्रतिक अत्याधुनिक सभ्यता में सामाजिक-साहित्यिक आदि कई प्रकार की परिवर्त्तनशील रुचियों में व्यस्त मनुष्य पुरातन रुचि की उपेक्षा कर सकता है । परन्तु नूतन-पुरातन भेद-भाव के बिना, सुगुण-संपन्न कोई भी कृति सहृदय पाठक एवं समालोचक लोगों की आदर-भाजन बन सकती है । यह सच है कि हर कविता या कृति सार्थक नहीं होती । काव्य-प्रतिभा के विचार से , जिस किसी भाषा में भी लिखित सार्थक कृति केवल अतीत और वर्त्तमान काल में सीमित नहीं हो सकती; वह तो कालातीत, शाश्‍वत और अमर बन जाती है ।

किसी लेखक की कृति में वास्तव में जो दोष है, वह सब के लिये दोष-रूप में विवेचनीय है । परन्तु वास्तव गुण को अगर दोष-रूप में देखा जाये, तो उसमें खलत्व की संभावना रहती है । गुण-दोष-विचार के बारे में ओड़िआ-साहित्य के प्रकृति-कवि गंगाधर मेहेर की एक पंक्‍ति उल्लेखयोग्य है, जो 'तपस्विनी' काव्य से ली गयी है । कवि का कथन है :
" न समझ गुणी का सद्‌गुण
जब कोई दोष देखने बन जाता निपुण,
उस दोषदर्शी की ऊँची स्थिति पर अपनी
होती विधि-कृत बड़ी बिड़म्बना भोगनी ॥ "
 (तपस्विनी, तृतीय सर्ग)

दुनिया में एक के लिए जो गुण है, दूसरे के लिये वह दोष बनाया जा सकता है, यदि दुर्जनत्व या विरोधी मनोभाव या असूया आदि उसमें प्रवेश करे । एक समीक्षक की दृष्टि से जो काव्य-तत्त्व गुण-रूप में प्रतिपादित है, अन्य समीक्षक की दृष्टि से उसी गुण को दोष रूप में वर्णित किया जा सकता है । परन्तु अच्छे-बुरे तत्त्वों के विवेचन करनेवाले सुधी पाठक-समुदाय ही वास्तव में उत्तम विचारक और समीक्षक हैं । समीक्षक केवल दोषदर्शी या छिद्र ढूँढनेवाला नहीं होना चाहिये; उसके पास सहृदय का उदार स्पर्श भी रहना चाहिये । अन्यथा, समीक्षक की अल्पज्ञता या मानसिक संकीर्णता प्रतिफलित हो सकती है । समीक्षक को सर्वथा निरपेक्ष बनना चाहिए और उपयुक्त रूप से गुण-दोष का अनुशीलन पूर्वक मन्तव्य देना चाहिए । नहीं तो, लेखक के दोष-दर्शन के बदले समीक्षक के दोष-दर्शन की आपत्ति आ सकती है, सहृदय पाठक-समाज की दृष्टि में । सर्जनात्मक समीक्षण सर्वथा स्वागतयोग्य और सराहनीय है, जिससे कवि-कृति को उत्कर्ष की ओर बढ़ने की विस्तृत दिशा प्राप्त होती है । समीक्षा में आधुनिकता के प्रसंग पर इच्छाकृत दोषान्वेषण सारस्वत प्रगति में बाधक बन सकता है । इसलिये पत्र-पत्रिकाओं में सारस्वत कृतियों का समीक्षण उत्तम रूप से होना चाहिये, जिससे प्रतिभा का निरपेक्ष समुचित मूल्यायन हो सके । उपसंहार में मेरा कहना है :-

“ भुवि बाह्य-परिस्थित्या सुख-दुःखादि-योगतः ।
प्रच्छन्नाभ्यन्तरा शक्‍तिः प्रकाशते प्रवर्धते ॥"

1 comment:

Dr. Harekrishna Meher said...

इस लेख के लेखक का नाम शीर्षक के साथ देना जरूरी है । यह मेरे द्वार रचित लेख है । ब्लाग्‌‌-कर्त्ता से अनु्रोध है, कृपया सर्वत्र लेख सहित लेखक का नाम संलग्न करें ।
इस लेख का मूल आधार है : http://hkmeher.blogspot.com/2009/05/modernity-and-criticism-in-literature.html