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Tuesday, October 4, 2011










प्रेमचंद साहित्य और दलित मत, कुमत

पिछले कुछ वर्षो से दलित साहित्यकारों में कथाकार प्रेमचंद को लेकर विवाद है. यह विवाद सच में कोई मायने रखता है या केवल विवाद के लिए विवाद है यह गौर करने वाली बात है. प्रेमचंद और उनके साहित्य पर आज दलित साहित्य व साहित्यकारों द्वारा तीन प्रकार से चरचा हो रही है. प्रेमचंद पर चरचा करने वाली सबसे पहली धारा उन साहित्यकारों की है, जो दलित साहित्य में प्रेमचंद के योगदान को अमूल्य मानते हैं.
ये साहित्यकार प्रेमचंद को उनके समय और संदर्भ में रखकर देखने की बात करते हैं. प्रेमचंद के साहित्य की समसामयिकता और प्रासंगिकता को स्वीकार करते हैं. इस चरचा में शामिल साहित्यकार प्रेमचंद के साहित्य को दलित साहित्य का एक महत्वपूर्ण पड़ाव मानते हुए, दलित साहित्य की भावभूमि तैयार करने में उनके योगदान का महत्व देते हैं. इस धारा के साहित्यकारों ने प्रेमचंद की खामियों और खूबियों को एक साथ स्वीकार करते हुए ही उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘रंगभूमि’ को जलाने का सशक्त विरोध करते हुए खुले रूप से उन्हें समर्थन दिया था.
अधिकांश दलित साहित्यकार इसी धारा के हैं. दलित साहित्य में प्रेमचंद पर चरचा की दूसरी धारा में वे दलित साहित्यकार आते हैं, जो प्रेमचंद की वैचारिकी पर प्रश्न-चिन्ह लगाते हुए उन्हें एक तरफ़ पक्के ‘गांधीवादी’ और दूसरी तरफ़ कट्टर ‘अंबेडकर विरोधी’ घोषित करते हैं. इस विचारधारा के साहित्यकार प्रेमचंद की दलित कहानियों के कथ्य, भाषा और विचार तीनों पर ही नुक्ताचीनी पूर्ण सवाल खड़े कर उन्हें दलित चेतना की दृष्टि से खारिज करते हुए उन्हे ‘ब्राह्मणवादी’, ‘हिंदुवादी’ और न जाने किस-किस पदवी से विभूषित कर रहे हैं.
इसी मत के साहित्यकारों को ‘दूध का दाम’, ‘ठाकुर का कुआं’, ‘सद्गति’ और ‘कफ़न’ और ‘मंदिर’ कहानी के कथ्य और दलित पात्रों के चित्रण से आपत्ति है. इनका मानना है कि प्रेमचंद ने साजिशन दलित पात्रों को दीन-हीन, निठल्ला, कामचोर और कायर बनाया है. वे दलित चेतना के आधार पर इन कहानियों को नकारते हैं. ये लेखक प्रेमचंद विरोधी तो हैं, पर दलित-स्त्री विरोधी नहीं हैं.
तीसरी तरह की विचारधारा दलित साहित्य में उन संकीर्ण जातिवादी दलित लेखकों की है, जो साहित्यकार प्रेमचंद के साहित्यिक योगदान को पूर्वाग्रही नजरिये से अपने ही कुतर्को, मनगढ़ंत कुपाठ और गलत पाठ करते हुए उनकी जाति ‘कायस्थ’ होने की कसौटी पर कसकर उनकी व उनके साहित्य की घोर जातिवादी आलोचना कर रहे हैं. इन साहित्यकारों का जितना प्रेमचंद से साहित्यिक विरोध है, उससे कहीं ज्यादा उनके व्यक्तित्व और उनकी जाति से है.
यह जातिवादी दलित लेखक कथाकार प्रेमचंद पर व्यक्तिगत हमले करते हुए उनकी ‘नीली आंखों’ का रहस्य खोजने तथा उन्हें ‘सामंत का मुंशी’ सिद्ध करने के लिए, बिना पहिये के विमान ‘जारकर्म’ पर चढ़कर ‘इलहाम-लोक’ तक जा पंहुचे हैं. ये साहित्यकार घोर प्रेमचंद और स्त्री विरोधी हैं. इनके लेखन में स्त्री-विरोध और प्रेमचंद-विरोध कुछ अजीब घालमेल के साथ पेश हो रहा है, जिसे साहित्यिक पाठक के बजाय कोई मनोवैज्ञानिक ही समझ सकता है. स्त्री विरोधी होने के कारण ही इन लेखकों की वैचारिक मंडली प्रेमचंद की ‘कफ़न’ कहानी की दलित नायिका ‘बुधिया’ के पेट में ठाकुर का बच्चा दिखाकर उन्हे ‘सामंत का मुंशी’ घोषित कर देती है.
यह कहना अत्युक्ति न होगा कि ये दलित जातिवादी लेखक अपनी फ़ूहड़ बहस के जरिये दलित साहित्य व साहित्यकारों को उनके उद्देश्य व सरोकारों से भटकाने, भ्रमित करने व उलझाने की नाकाम कोशिश करने का काम कर रहे हैं. यहां पर एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि इन दलित लेखकों के साथ कुछ गैर-दलित साहित्यकार जब प्रेमचंद और दलित साहित्य पर बात करते हैं, तो वे केवल इन्हीं दलित जातिवादी लेखकों के उदाहरण देते हुए सारे दलित साहित्यकारों को ‘प्रेमचंद विरोधी’ घोषित कर देते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि इन दलित जातिवादी लेखकों की संख्या मात्र तीन-चार ही है.
दलित चेतना की दृष्टि से प्रेमचंद की जिन कहानियों पर सर्वाधिक चरचा रहती है, उनमें मुख्य रूप से ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुआं’, ‘दूध का दाम’, ‘कफ़न’, ‘मंदिर’ और ‘पूस की रात’ है. दलित चेतना के संदर्भ में यदि इन कहानियों पर बात की जाये, तो ये सारी कहानियां दलित चेतना की सशक्त कहानियां हैं. प्रेमचंद यर्थाथवादी लेखक थे उन्होंने समाज में दलितों, शोषितों, वंचितों और स्त्रियों के साथ हो रहे र्दुव्‍यवहार का मार्मिक चित्रण किया है.
प्रेमचंद ने अपनी इन कहानियों के माध्यम से शोषकों के प्रति चाहे वे जमींदार हों, पुरोहित हों, अथवा भारत की घृणित ब्राह्मणवादी जातीय व्यवस्था, इन सबके प्रति नफ़रत, हिकारत, घृणा पैदा करते हुए उनके अंदर गहरे बैठी दलितों, वंचितों और गरीबों के प्रति क्रूरता, जातीय हिंसा और अमानवीयता का चित्रण किया है. इसके विपरीत दलित, शोषित, उत्पीड़ित, वंचित वर्ग के प्रति सहानुभूति, सहृदयता, मानवीयता और समानता का भाव पैदा कर उनके आक्रोश, विरोध को उनकी मानवीयता की लड़ाई को समर्थन देने का काम किया है. दलित और स्त्री भारतीय समाज में सबसे ज्यादा उपेक्षित है. प्रेमचंद ने इसी वर्ग के हित में लिखने की भरपूर कोशिश की है.
in : Sections.
Nice article. However, the name of the author is missing. Please mention the name of the author too.

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