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Tuesday, October 4, 2011









 
 
 
अक्टूबर २०१०
 
 
 
  
 
 
 
•पाखी महोत्सव २७ अगस्त को दिल्ली के हिन्दी भवन में संपन्न होगा    •२०११ का शब्द साधक शिखर सम्मान राजेन्द्र यादव को    •शब्द साधक जनप्रिय सम्मान पंकज सुबीर को    •शब्द साधक युवा सम्मान मृत्युंजय प्रभाकर को
 
 
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संस्मरण
रचना और आलोचना के पथ पर
 
 
मुझे कभी-कभी लगता है कि शायद केशवजी का ही प्रभाव है कि मुझसे इतना कम लिखना हो सका। पिफर भी साहित्य की दुनिया में लोगों ने मुझे इतना मान दे दिया। इतना कम लिखे पर इतना अधिक सम्मान मिलने की बात सोच कर मुझे शर्म आती है। लेकिन ऐसा नहीं है कि मैं लिखना नहीं जानता या लिखना नहीं चाहता था, आलस्य भी नहीं है, और न कतराता हूँ या भागता हूँ। लेख का पहला वाक्य लिखने में कभी-कभी मुझे एक-एक हफ्रता लग जाता है। इस पीड़ा को वही समझ सकते हैं जिन्हें मनचाही बात को कागज पर उतार लेने के आत्म संद्घर्ष का कुछ अनुभव है। लिखते समय मेरे सामने अक्सर केशवजी होते ह

ने भी साहित्यिक जीवन का आरम्भ बहुतों की तरह कविता से किया। सन्‌ १९३६-३७ के आस-पास की बात है। मैं प्राइमरी पास कर के वर्नाकुलर मिडिल की पाँचवीं छठी में पढ़ रहा था। उन दिनों मैं ब्रज भाषा में कविताएँ लिखा करता था। भोजपुरी भाषी होते हुए भी ब्रज भाषा में कविताएँ लिखने का कारण यह था कि उन दिनों ब्रज में ही कविताएँ पढ़ने सुनने को मिलीं। दूसरी बात कि उन दिनों विद्यालयों के बीच अंत्याक्षरी की प्रतियोगिताएँ हुआ करती थीं। उनमें अपने विद्यालय की ओर से मैं भाग लिया करता था। तो उस बहाने बहुत सारी कविताएँ याद रखनी पड़ती थीं। उनमें कोर्स के बाहर की ढेर सारी कविताएँ रहती थीं। कोर्स के बाहर की ये कविताएँ इस तरह याद हो गयी थीं। मेरे गाँव के पास ही एक बड़ा सा गाँव अवाजापुर है। वहाँ हमारे पिता के मित्रा और एक तरह से मेरे बड़े भाई जैसे- ठाकुर जयचंद रहते थे। मिडिल पास करने के बाद एक एडवांस परीक्षा होती है, उसे वह उत्तीर्ण कर चुके थे। बिहारी, रत्नाकर तथा रीतिकाल के अन्य कुछ कवियों की कविताएँ इस परीक्षा के पाठ्यक्रम में थीं। ठाकुर जयचंद सिंह के जरिए मेरा संपर्क उन कवियों की कविताओं से हुआ। इन सबके अतिरिक्त यह भी हुआ कि अवाजापुर में ब्रज भाषा में कविताएँ लिखने वाले दो तीन लोग थे। इनकी मंडली जमती थी जिसमें समस्याएँ रखी जाती थीं और समस्यापूर्ति में कविताएँ रची जाती थीं। मैं भी वहाँ बैठा हुआ सब कुछ सुना करता था। जैसे एक समस्या वहाँ रखी गयी थी- हरी जात पन्नगी हरीरे पर्वत में। हरे पहाड़ों में नागिन छिप गयी है। मतलब, इशारा था कि दो स्तनों के बीच में स्त्राी की वेणी, काली वेणी- छिप जाती है- ये कल्पना रही होगी।
कहने का अर्थ यह कि ब्रज के कवियों की एक मंडली थी। सोचने की बात है कि सन्‌ १९३९ में भोजपुरी क्षेत्रके एक गाँव में भी काव्य भाषा ब्रज भाषा थी। बहरहाल देखा देखी मैं भी ब्रज भाषा में तुकबंदी करने लगा। लेकिन वह अभ्यास का काल था। तब एक खास बात यह रहती थी कि द्घनाक्षरी और सवैया ये दो छंद ऐसे थे जिनमें अगर कोई कविता लिख दे तभी माना जाएगा कि उसमें कवित्व शक्ति है। तो मैं भी ब्रज भाषा में द्घनाक्षरी और सवैया छंदों में कविताएँ लिखने लगा। उन कविताओं में मौलिकता तो क्या होती! अधिकतर कविताएँ श्रृंगार रस की ही रहती थीं। आज कल तो लड़के बहुत जल्दी जान जाते हैं लेकिन तब बात दूसरी थी। समझ लीजिए कि तेरह चौदह साल का लड़का क्या जानता होगा? इस संदर्भ में मैं एक द्घटना बताना चाहता हूँ। द्घनाक्षरी छंद इक्तीस वर्ण का होता है, बत्तीस वर्ण का होता है और सबसे अधिक तैंतीस वर्ण का होता है। रीतिकाल में भी कुछ ही कवियों ने तैंतीस वर्णों वाला द्घनाक्षरी छंद लिखा है। तो मैंने भी लिखी एक तैंतीस वर्णों वाली द्घनाक्षरी। उसकी आखिरी पंक्ति अब भी याद हैः 'आस दुइ मास पिय मिलन अवधि की है उमगैं उरोज रहै कंचुकि मसकि मसकि।' यह हमारी कापी में लिखी हुई थी। मिडिल में हमारे हेडमास्टर मिश्र जी बड़ी सात्विक वृत्ति के व्यक्ति थे, उन्हें एक दिन मैं उसी कापी में कुछ लिखा हुआ दिखाने गया तो पन्ने पलटते हुए उन्हें वह कविता नजर आ गयी। उसे पढ़ने के बाद उन्होंने पूछा, 'कंचुकि जानते हो?' मैं क्या जानूं कंचुकि। चूंकि ब्रज भाषा की कविताओं में कंचुकि प्रायः आती थी इसलिए मैंने सोचा कि अच्छा शब्द है। पंडित जी ने कहा कि ठीक है अब तुम्हारे पिताजी से कहूँगा कि तुम्हारी शादी कर देनी चाहिए। अब जा कर मुझे लगा कि कंचुकि कोई स्त्रिायों की चीज है। मैं बहुत डरा द्घबराया, उनसे हाथ जोड़ कर कहा, 'पिताजी से मत कहिएगा।' वह पसीज गये, बोले, 'ठीक है, डिप्टी साहब आने वाले हैं, अगर तुमने उनके स्वागत में एक अच्छी कविता लिख दी, तो छोड़ दूँगा।' तो इस तरह मैं ब्रज भाषा में तुकबंदी से बचा।
सन्‌ १९५१ में जब मेरी पुस्तक 'बकलम खुद' जगदीश भारती ने साहित्य सहकार से प्रकाशित की तो उसके साथ ही उन्होंने कहा कि तुम अपनी कविताओं का भी एक संग्रह दे दो। 'नीम के पफूल' नाम से वह संग्रह लगभग कम्पोज भी हो गया था पर मुकदमेबाजी के कारण प्रेस में ताला लग गया और पांडुलिपि भी वहीं रह गयी। मैं समझता हूँ कि यह अच्छा ही हुआ। पिफर भी बताना चाहता हूँ कि १९५१ तक प्रकृति सम्बंधी मेरी कई कविताएँ उस समय की पत्रिाकाओं में छप चुकी थीं। इलाहाबाद से निकलने वाली 'नयी कविता' पत्रिाका थी, उसमें भी मेरी कुछ कविताएँ छपी थीं। विष्णुचंद शर्मा ने 'कवि' में मेरी कुछ कविताएँ प्रकाशित की थीं। कविताओं को ले कर मेरे पास एक उल्लेखनीय स्मृति है.....। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में साहित्य सहकार नाम से एक संस्था थी। जर्मन के अध्यापक मराठी भाषी किन्तु हिन्दी प्रेमी प्रोपफेसर म. सी. करमरकर उसके संयोजक थे। पंद्रह दिन में एक बार प्रोपफेसर राम अवध द्विवेदी के द्घर उसकी गोष्ठी होती थी। उसमें एक बार मैंने कविता सुनायी थी जो बादलों और पहाड़ों पर थी। 'सुरमई द्घनों के पार मूंगिया गिरि छाये'। सिपर्फ पहली पक्ति ही मुझे याद आ रही है अब। उसमें खास बात रंगों को लेकर थी कि सुरमई बादल कहना और हरे पहाड़ न कह कर मूंगिया पहाड़ कहना। उस गोष्ठी में संयोग से वात्स्यायन जी भी थे। उन्होंने अपनी शैली में एक चिट पर लिख कर पूछा कि ये कविता यदि कहीं वाग्दत्ता न हो तो 'प्रतीक' के लिए प्रार्थित हैं। हालांकि यह उनकी सहज विनयशीलता ही थी, पिफर भी यह मेरे लिए बहुत बड़ा सम्मान था।
एक बार 'किताब महल' प्रकाशन से योजना बनी थी कि कुछ कवियों की छोटी-छोटी काव्य पुस्तिकाएँ प्रकाशित हों। उनमें मेरे जैसे नौसिखुआ कवि और नेमि जी की कविताएँ भी होंगी। इस श्रृंखला में शमशेर, त्रिालोचन, केदारनाथ अग्रवाल आदि अन्य वरिष्ठ कवियों को भी साथ लेने की योजना थी। योजना का आर्थिक पक्ष भी सोच लिया गया था। लेकिन किसी वजह से उक्त योजना क्रियान्वित न हो सकी। यह बात १९५२-५३ के आस-पास की है। आज उसके लिए अपफसोस तो है लेकिन व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए सुखद ही है। कोई पछतावा नहीं है कि मेरी कविताएँ पुस्तकाकार क्यों नहीं छपीं। जो किशोर वय की चीजें कही जाती हैं, वे कविताएँ उसी कोटि की थीं और उनकी पुस्तक न छपने से हिन्दी का कोई अहित नहीं हुआ। मगर व्यक्तिगत रूप से मुझे एक लाभ जरूर हुआ कि काव्य रचना की प्रक्रिया से दस ग्यारह साल गुजर जाने के बाद जब मैं आलोचना के क्षेत्रा में प्रवृत्त हुआ तो आलोचना करते समय मेरे भीतर उस गुप्त और लुप्त सर्जनात्मकता के कारण रचना के प्रति सम्मान का भाव शुरू से ही था। और वह आज भी है। उस कैशोर सृजन ने कम से कम मुझे अच्छे शब्द, सटीक शब्द, उचित शब्द, शब्दों के बीच जो अर्थच्छटाएँ होती हैं- छवियां होती हैंऋ उनके प्रति मुझे जागरूक बनाया। मुझे लगा कि कविता में शब्द महत्वपूर्ण होते हैं। शब्द की साधना ही पहली सीढ़ी है। उसके बिना कोई आदमी विशाल कथ्य के बावजूद अच्छा नहीं लिख सकता। जैसा कि आर्डन ने कहीं लिखा है कि यदि कोई आदमी कहे कि मेरे पास बहुत महत्वपूर्ण और गम्भीर विचार हैं, आइडिया हैं, मैं कविता लिखना चाहूँगा तो मैं उससे कहूँगा कि तुम जा कर दर्शन की एक पुस्तक लिखो, कविता में आने की जरूरत नहीं है। लेकिन यदि कहे कि वह शब्दों से खेलना चाहता है तो मैं कहूँगा कि जा कर खेलो। तुम ग्रेट पोएट्री भले न लिख सको लेकिन 'गुड पोएट्री' तो लिख सकते हो। यह और बात है कि कुछ कवि जिन्दगी भर सिपर्फ शब्दों से खेलने में ही मगन हो कर रह जाते हैं।
जो भी हो, काशी में मेरी पढ़ाई के शुरुआती दिनों में गीतों का ही प्रभाव था। शम्भुनाथ जी गीत लिखते ही थे। एक गुलाब खंडेलवाल थे, वह भी गीत लिखते, गाते थे। उन्हीं दिनों काशी में गोपाल सिंह नेपाली आये, धूम मची हुई थी। 'दो मेद्घ मिले बोले डोले, बरसा कर दो दो पफूल चले' या 'बिखरे बादल के टुकड़ों सा चाँद निकलता रहा रात भर, दीपक जलता रहा रात भर' जैसे गीत लोगों को प्रभावित कर रहे थे। गोपाल सिंह नेपाली वह हैं जिनकी पहली काव्य पुस्तक 'उमंग' का जिक्र आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में किया है। सचमुच वह गीतों का युग था। बच्चन जी तो थे ही नरेन्द्र शर्मा के प्रवासी के गीत लोगों के कंठ पर थे। हमारा खयाल है, उसी के आस-पास नीरज वगैरह ने भी लिखना शुरू किया होगा।
त्रिालोचनजी भी कभी-कभी गीत लिखते थे। संयोग से त्रिालोचनजी हमारे स्कूल के पास ही रहते थे। सेण्ट्रल जेल के सामने एक साधना कुटीर था, उसी में रहते थे। त्रिालोचनजी अक्सर हमारे छात्राावास में आते थे। मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ कि उसी कच्ची उम्र में त्रिालोचनजी से मेरा परिचय हुआ। वह तो विश्वकोश हैं- जीवन के अनुभवों के, विभिन्न प्रदेशों की यात्रााओं के, पुस्तकों के। हिन्दी कविता की परंपरा और नयी से नयी प्रवृत्तियों के प्रति सजग। तार सप्तक से मेरा परिचय उन्होंने ही कराया था। एक दिन मुझसे कहा कि निरालाजी की कविताएँ पढ़ो। निरालाजी की 'अनामिका' आयी है, उसे पढ़ो। 'अनामिका' मैंने खरीदी और 'अनामिका' की वह प्रति आज भी मेरे पास सुरक्षित है।
त्रिालोचनजी के संपर्क में मैंने समझा कि खड़ी बोली के गीत ही कविता नहीं हैं। आज की कविता की दूसरी वृत्ति भी है। एक गोष्ठी में मैंने शमशेरजी की कविता सुनी 'लेकर सीधा नारा कौन पुकारा'। लेकिन वह कविता उन दिनों मेरी समझ में उतनी नहीं आयी थी। पर धीरे-धीरे त्रिालोचनजी के सान्निध्य में मैं कविता के मर्म और उसकी बारीकियों को समझने लगा। एक दिन त्रिालोचनजी ने मुझे बांगला बढ़ने के लिए उकसाया। बोले, 'बांगला शिक्षक लेने की जरूरत नहीं है, तुम सीधे किसी बांगला पुस्तक से ही अक्षर सीखना शुरू कर दो।' संयोग से शरतचंद का एक उपन्यास मिल गया 'अरक्षणिया'- छोटा सा उपन्यास था, त्रिालोचनजी ने कहा, 'इसी से पढ़ो। थोड़ी आसान है, भाषा समझ में आ जाएगी। देखो, अच्छी कविता लिखने के लिए अनुवाद करना सीखो।'
कुछ दिनों बाद 'क्षत्रिाय मित्रा' में मोती बी. ए. की एक कविता छपी थी जिसका शीर्षक था 'उर्वशी'। 'रूप भार से लदी हुई तुम जिधर चली' इस तरह शुरू होती थी वह कविता। त्रिालोचनजी ही 'क्षत्रिाय मित्रा' का सम्पादन कर रहे थे, पिफर उन्होंने रवीन्द्रनाथ की 'उर्वशी' कविता पढ़ कर सुनायी और अनुवाद करने के लिए कहा। तब तक मैं थोड़ी-थोड़ी बांगला सीख गया था। मैंने उर्वशी का अनुवाद किया मगर वह अच्छा नहीं बना। रवीन्द्रनाथ का छंद बड़ा था, मेरे पास उस वक्त छोटा छंद ही सुलभ था। एक तरह से अनुवाद भी एक प्रेक्टिस था। वह ऐसा समय था जब मैं कविता की दुनिया में जीता था। प्रसादजी का 'आँसू' मुझे पूरा याद हो गया था। महादेवी और प्रसाद मेरे प्रिय कवि थे तब। बाद में जब मैं बी. ए. में आया तब निराला की तरपफ मेरा ध्यान आकृष्ट हुआ। प्रसादजी, प्रेमचंदजी, रामचंद्र शुक्ल तीनों मेरे काशी आने के पहले ही दिवंगत हो चुके थे। पिफर भी काशी के साहित्यिक आकाश पर जैसे उनकी छाया थी।
उदय प्रताप कॉलेज में मुझे सौभाग्य से बहुत अच्छे अध्यापक मिले। इनमें एक थे पंडित विजय शंकर मिश्र। उन्होंने इंटर में मुझे संस्कृत पढ़ायी। कोर्स में 'कुमार संभव' का पंचम सर्ग था। इस काव्य को उन्होंने इतनी तन्मयता से पढ़ाया कि सम्पूर्ण कालिदास को पढ़ने के लिए मन बेचैन हो उठा। आगे चल कर गुरुवर हजारीप्रसाद द्विवेदी के सान्निध्य में स्कूल के उस संस्कार को एक नया आयाम मिला। संस्कृत काव्य में रुचि पैदा करने के साथ ही पंडित जी ने संस्कृत व्याकरण का भी सुदृढ़ आधार प्रदान किया। पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तक तो आप्टे की 'ए गाइड टू संस्कृत कम्पोजीशन' थी किन्तु पंडित जी अष्टाध्यायी के मूल सूत्राों के द्वारा ही व्याकरण का मर्म समझाते थे। संस्कृत में जो भी थोड़ी बहुत गति है उसका सारा श्रेय उन्हीं पंडित जी को है।
हिन्दी के प्रथम गुरु हैं आदरणीय मार्कण्डेय सिंह वे काशी प्रगतिशील लेखक संद्घ के उपाध्यक्ष थे जब कि अध्यक्ष नंददुलारे वाजपेयी थे। कविताएँ भी लिखते थे। उनका कवि रूप मुझे विशेष आकृष्ट नहीं कर सका लेकिन उनसे एक दूसरी चीज मिली गद्य के प्रति आकर्षण। मैं स्वीकार करना चाहूँगा कि आगे चल कर मेरा गद्यकार और आलोचक का जो व्यक्तित्व बना, उसकी नींव मार्कण्डेय सिंह जी की डाली हुई है। वह वागाडम्बर बरदाश्त नहीं कर सकते थे। मुझे याद है कि हमारे पाठ्यक्रम में चंडी प्रसाद हृदयेश की एक कहानी थी 'शांतिनिकेतन'। संस्कृत बहुल शब्दावली और बाणभट्ट वाली शैली में वह एक तरह का गद्य काव्य लिखा करते थे। मार्कण्डेय सिंह जी ऐसे गद्य का मजाक उड़ाया करते थे। वह प्रेमचंद के मुरीद थे और उन्होंने 'शांतिनिकेतन' पढ़कर उसकी ऐसी धज्जियाँ उड़ायीं कि मुझमें यह संस्कार बन गया कि वागाडम्बर भाषा का सबसे बड़ा दोष है।
मगर दूसरी तरपफ कविता में उन्होंने कुछ कवियों के प्रति मुझमें अरुचि पैदा कर दी। माखनलाल चतुर्वेदी की एक कविता थी 'मेरे गीतों के राजा तुम मेरे गीतों में वास करो'। उसमें एक पंक्ति इस तरह आती है 'क्यों उषा झाड़ू पफेर चली, और उषा ने छिड़क दिया'। जैसे ही यह पंक्ति उन्होंने पढ़ी तो कहा कुछ नहीं बस अपनी दोनों उंगलियाँ नाक पर लेकर बोले, 'उषा ने छिड़क दिया।' पिफर कहा, 'पिफर 'उषा' के हाथ में झाड़ू। उषा न हुई कोई मेहतरानी हो गयी। कहाँ प्रसाद और पंत की उषा और कहाँ 'एक भारतीय आत्मा' की उषा। इसी तरह मैथिलीशरण गुप्त के प्रति भी अरुचि पैदा कर दी। खासतौर से उनकी तुकबाजी को ले कर। जैसे, नट नागर आज कहाँ अटके वाला गीत। गीत खत्म तभी होता है जब खटके, झटके, टटके, भरके, मटके, लटके, हटके, अटके जैसे सभी तुक दम नहीं तोड़ देते। यह है राष्ट्रकवि की तुकांत ताकत। इसके बाद गुप्तजी को पढ़ने का क्या उत्साह होता।
आलोचना की भाषा में उनके आदर्श थे रामचंद्र शुक्ल। वह कहते थे कि गद्य गठा हुआ होना चाहिए जिसमें चर्बी न हो, बल्कि हड्डी दिखाई दे तो भी हर्ज नहीं लेकिन चर्बी नहीं होनी चाहिए। भाषा में हम लोग उन्हें जो कुछ लिख कर दिखाते थे, उसके वाग्जाल को- पफालतू शब्दों को वह बेरहमी से काट देते थे। कहते थे कि विशेषण अच्छे गद्य के दुश्मन हैं। विशेषणों से भाषा ल(ड़ बनती है। एक से अधिक विशेषण एक साथ कभी नहीं इस्तेमाल करना चाहिए। एक विशेषण भी बहुत आवश्यक होने पर ही इस्तेमाल करो। वे लम्बे वाक्यों के भी द्घोर शत्राु थे। कहते थे कि संश्लिष्ट ओर संकर वाक्य नहीं लिखने चाहिए। उनकी दृष्टि में सरल शब्द ही भाषा के प्राण हैं।
इस तरह मैं कह सकता हूँ कि गद्य के मेरे प्रथम प्रेरणा स्रोत ठाकुर मार्कण्डेय सिंह हैं।
स्कूल के दिनों में कॉलेज मैगजीन के लिए मैंने कविताओं के अलावा गद्य में सिपर्फ दो चीजें लिखीं। एक तो रेखाचित्रा था जो कॉलेज के सबसे पुराने चपरासी पर था जिसे हम सब बचऊ नाम से पुकारते थे। कॉलेज के तमाम कर्मचारियों में वही अकेला मुसलमान था। अंग्रेज पिं्रसिपल के समय से वह चला आ रहा था। बहुत पुराना। लोग उसका बड़ा सम्मान करते थे। वह केवल द्घंटी बजाता था। मेरा मन हुआ उसके बारे में लिखने का। कविता लिख नहीं सकता था, अतः रेखाचित्रा लिखा। दूसरी गद्य रचना यात्राा वृत्तांत थी। इंटर में पढ़ते समय मैं गर्मी की छुट्टियों में पुरी गया था। वहाँ समुद्र देखा था पहली बार। गांव का लड़का जो बनारस के बाहर कभी गया नहीं था, पहली बार कलकत्ता और कलकत्ता के आगे पुरी गया। इसी यात्राा का मैंने यात्राा वृत्तांत लिखा था। हालांकि दोनों ही रचनाएँ किशोर वय की चीजें थीं लेकिन इतना जरूर है कि मुझे गद्य लिखने में एक नया सुख मिला।
त्रिालोचनजी के कहने पर मैंने गद्य की पहली किताब खरीदी- गोर्की की 'आवारा की डायरी'। बड़ी दिलचस्प लगी वह। बी. ए. में पढ़ते समय चार्ल्स लैंब के 'एसेज ऑपफ इलिया' के निबंध पढ़े। वे मुझे बहुत बढ़िया लगे। खास तौर से गुलेरी जी के निबंध जैसा प्रसंग गर्भत्व में। उन्हीं दिनों एक अन्य पुस्तक मुझे मिली थी जो अच्छी लगी थी एन. वी.गाडगिल- नरहरि विष्णु गाडगिल- की हजार बरस पीछे जैसा कुछ नाम था उसका। निबंधों के इस संग्रह का मराठी से हिन्दी में अनुवाद हुआ था। इसी तरह सियारामशरण गुप्त का 'कुछ' नाम से निबंध संग्रह आया था। इस प्रकार मैं निबंधों से, आलोचनात्मक नहीं, गैर आलोचनात्मक निबंधों को बड़ी रुचि से पढ़ रहा था। और एक दिन मुझे लगा कि यह गद्य की ऐसी विधा है जिसमें हाथ आजमाया जा सकता है। यह भी सोचा कि निबंध लेखन द्वारा अपनी भाषा कुछ संवरेगी और ठीक से गद्य लिखना सीख सकूँगा। मैंने करीब इक्यावन निबंध लिखे। तय हुआ कि वे तीन अलग-अलग खंडों में पुस्तकाकार छपेंगे। पहला संकलन १९५१ में 'बकलम खुद' नाम से प्रकाशित हुआ। कुछ ही दिनों बाद जगदीश भारती का वह नया-नया जमा प्रकाशन संस्थान 'साहित्य सहकार' बंद हो गया और 'बकलम खुद' तो बट्टे में गया ही, बाकी निबंध भी धरे रह गये। बाद में मुझे लगा वह कापफी बचकाना है और अनेक प्रकाशकों से कापफी आग्रह के बावजूद मैंने उसका पुनर्मुद्रण नहीं होने दिया।
धीरे-धीरे सन्‌ ५१ के आस-पास जा कर मेरी प्रवृत्ति आलोचनात्मक निबंध लिखने में हुई। इसका श्रेय विशु( रूप से साहित्यिक गोष्ठियों को है।
गुरुवर मार्कण्डेय सिंह के बाद आचार्य केशव प्रसाद मिश्र मुझे गुरु के रूप में मिले। उनसे मैंने शब्द विवेक पाया। उन्हीं के मुख से मैंने पतंजलि का यह कथन पहली बार सुना 'एकः शब्दः सम्यक ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्ग लोके च कामधुक्‌ भवतिः'। एक ही शब्द जानो। सम्यक रूप से जानो। सही जगह उसका इस्तेमाल करो। अगर इतना ही करो तो इस लोक में और दूसरे लोक में तुम्हारी समस्त कामनाएँ पूर्ण होंगी। इस प्रकार गुरु के प्रसाद से मेरे हृदय में शब्द श्र(ा का भाव पैदा हुआ।
केशवजी ने बहुत कम लिखा है। वे पंडितों की उस पुरानी परम्परा के अंतिम रत्न थे जो बहुत लिखने के विश्वासी न थे। अक्सर कहते थेः लिखो तो पत्थर की लकीर की तरह। पानी पर क्या लिखना। खैरियत है कि वे कुछ ऐसा लिखा भी छोड़ गये। जैसे आचार्य शुक्ल की स्मृति में एक लेख और एक निबंध 'उच्चारण'। वे सचमुच 'वाग्योविद' थे, पतंजलि के शब्दों में। 'उच्चारण' नामक निबंध नागरी प्रचारिणी पत्रिाका में छपा था। अद्भुत निबंध है वह। उसमें उन्होंने पाणिनि, पतंजलि के आधार पर बताया था कि शब्द का उच्चारण कैसे करना चाहिए। संभवतः पतंजलि ने एक उपमा दी है, भाषा का उच्चारण उसी प्रकार करना चाहिए जैसे व्याद्घ्री अपने नवजात शिशु को उठाती है मुँह से और एक जगह से उठा कर दूसरी जगह रख देती है। दाँत से उठाती है, चुभने का डर होता है। कितना दबाव दे कि दाँत चुभने न पाये व बच्चा मुँह से छूट कर गिरने भी न पाये।
कक्षा में ये गुरुजन थे और बाहर साहित्य में त्रिालोचनजी, जिन्होंने मुझे भाषा के प्रति बहुत सजग बनाया। आजकल बहुत से लोग समझते हैं कि मैं कलावाद का, रूपवाद का विरोध करता हूँ। दूसरी तरपफ मार्क्सवादियों को लगता है कि मैं कलावादी और रूपवादी हूँ। मैंने 'कविता के नये प्रतिमान' लिखा तो नेमिजी ने ही आलोचना नहीं की, बल्कि कई मार्क्सवादियों ने भी कहा कि 'नयी आलोचना' के प्रभाव में मैं रूपवादी हो रहा हूँ। अच्छी भाषा की कद्र करना है तो मुझे यह आरोप स्वीकार्य है। उन लोगों को समझना चाहिए कि मार्क्स ने कम्युनिस्ट मेनीपफेस्टो' का ड्राफ्रट कितनी बार लिखा। 'कैपिटल' को कितनी बार लिखा। मार्क्सवादी होने का यह मतलब नहीं है कि आप अपनी भाषा के प्रति लापरवाह रहें। भाषा सौष्ठव कोई बोर्जुवा संस्कृति नहीं है।
मुझे कभी-कभी लगता है कि शायद केशवजी का ही प्रभाव है कि मुझसे इतना कम लिखना हो सका। पिफर भी साहित्य की दुनिया में लोगों ने मुझे इतना मान दे दिया। इतना कम लिखे पर इतना अधिक सम्मान मिलने की बात सोच कर मुझे शर्म आती है। लेकिन ऐसा नहीं है कि मैं लिखना नहीं जानता या लिखना नहीं चाहता था, आलस्य भी नहीं है, और न कतराता हूँ या भागता हूँ। लेख का पहला वाक्य लिखने में कभी-कभी मुझे एक-एक हफ्रता लग जाता है। इस पीड़ा को वही समझ सकते हैं जिन्हें मनचाही बात को कागज पर उतार लेने के आत्म संद्घर्ष का कुछ अनुभव है। लिखते समय मेरे सामने अक्सर केशवजी होते हैं। मैं बोलने को लेकर भी उतना ही सावधान रहता हूँ। बोला हुआ भी यथावत लिखा जा सकता है। बशर्ते उसको लेकर सतर्कता हो। तमन्ना तो यही रहती है कि बोला हुआ लिखा सा लगे और लिखा हुआ बोलता सा।
आरंभ में 'आलोचना' का सम्पादन मैंने अकेले किया। कई वर्ष इसी तरह चलाया लेकिन बाद में हमें सहयोगी की जरूरत पड़ी। कुछ दिनों तक विष्णु खरे का मैंने सहयोग लिया। जब मेरी नियुक्ति जोधपुर वि. वि. में हो गयी तो विष्णु खरे को सह संपादक के रूप में साथ रख लिया लेकिन उनका नाम जा नहीं सका। दरअसल विष्णु खरे ज्यादा ही खरे हैं। उनका प्रबंध संपादक से मतभेद हुआ और उनका नाम नहीं जा सका सह संपादक के रूप में। एक लेख को लेकर विवाद हुआ था। विवाद कटु हो गया। मैं दिल्ली में था नहीं, जोधपुर में था। इस बीच खरे साहब ने अशोक वाजपेयी के विरु( कुछ लिखा। उसकी भाषा भी शायद सख्त थी। वैसे भी खरे साहब कभी-कभी भाषा का कापफी सख्त प्रयोग करते हैं। खैर....उन दिनों राजकमल में मोहन गुप्त काम करते थे, शायद प्रूपफ देखते समय खरे साहब का लेख उनकी नजर से गुजरा होगा। हो सकता है उन्होंने इशारा किया हो, श्रीमती संधू ने कहा, नहीं यह नहीं जा सकता। शायद वह काट कर निकाल दिया गया। बाद में केवल मुझे सूचित कर दिया गया। वह दुखद प्रसंग था और मेरी इच्छा के विरु( द्घटित हुआ था।
उसके बाद नंदकिशोर नवल मेरे सहयोगी हुए। उनकी एक पूरी पुस्तक 'हिन्दी आलोचना का विकास' 'आलोचना' में धारावाहिक रूप में छपी थी, उसी तरह जैसे मैनेजर पांडेय की 'साहित्य की इतिहास दृष्टि'। मुझे लगा कि नवलजी में प्रतिभा है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मैं उनकी आलोचना संबंधी धारणाओं से सहमत हूँ। लेकिन वह कर्मठ हैं और कई वर्ष मेरे साथ रहे। बाद में नवलजी और प्रबंध संपादक शीलाजी के बीच कुछ हुआ होगा। उन्होंने नवलजी को सूचित कर दिया कि वे दूसरी व्यवस्था करना चाहती हैं।
पिफर परमानंद श्रीवास्तव का सहयोग मैंने लिया और उन्होंने बहुत ही अच्छे ढंग से 'आलोचना' को संभालने में योगदान किया।
इस प्रसंग के अंत में मैं कहना चाहूँगा कि यदि मुझे ये महत्वपूर्ण समालोचक सहयोगी के रूप में न मिलते तो उसका संपादन सम्भव नहीं था।
थियोडोर अडोर्नो की 'मिनिमा मोरालिआ' ;न्यूनतम नैतिकताद्ध पुस्तक पढ़ते हुए इस एक वाक्य पर दृष्टि अटक गई 'व्दम उनेज ींअम जतंकपजपवद पद वदमेमसएि जव ींजम पि चतवचमतसलण्' अर्थात्‌ अपने अंदर परंपरा का होना जरूरी है यदि कोई उससे उचित ढंग से द्घृणा करना चाहता है।
जैसे यह बिजली की एक कौंध सी थी मेरे अपने समूचे जीवन और लेखन के लिए।
मेरा पहला आलोचनात्मक लेख थाः आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर। १९४९ की मासिक 'जनवाणी' में 'हिन्दी समीक्षा और आचार्य शुक्ल' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। 'जनवाणी' काशी विद्यापीठ से प्रकाशित होती थी। संपादक थे वैजनाथ सिंह 'विनोद' लेकिन पत्रिाका के प्रधान सम्पादक और प्रेरणा स्रोत आचार्य नरेन्द्र देव थे। प्रकाशन से पहले यह लेख काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की हिन्दी समिति में आचार्य शुक्ल के जन्मदिन के अवसर पर पढ़ा गया था। अध्यक्षता कर रहे थे पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र। आचार्य शुक्ल के अंतेवासी। आचार्य शुक्ल के उदग्र पक्षधर। मेरे लेख में आचार्य शुक्ल के कुछ विचारों की तीखी आलोचना थी। उस समय मैं बी.ए. का छात्रा था। उम्र २२ वर्ष। तब तक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में नहीं आये थे।
आचार्य की आलोचना से ही मैंने आलोचना कर्म का आरंभ किया था। क्यों? जाहिर है कि वे मेरी परंपरा हैं। एक परंपरा के रूप में मेरे अंदर हैं- अंदर रहे हैं। मुझे विरासत में सिपर्फ मिले हैं- ऐसा भी नहीं। मैंने उन्हें साधना से अर्जित किया है। इसीलिए मेरा उनसे टकराव भी है। एक प्रकार का 'आत्म संद्घर्ष'। मुक्तिबोध का सा आत्म संद्घर्ष। लड़ाई शुक्लजी से नहीं, स्वयं अपने आप से।
उस संद्घर्ष को सही शब्द मिला जब मैंने 'दूसरी परंपरा की खोज' नाम की पुस्तक लिखी १९८२ में। जो यात्राा १९४९ में शुरू की उसे सही नाम मिला ३३ वर्ष बाद और तब यह प्रत्यभिज्ञान हुआ कि मैं इस दूसरी परंपरा के निर्माण के लिए कवि कर्म छोड़ कर आलोचना के पथ पर आ निकला। सन्‌ १९४९ से अब तक की आलोचना यात्राा संभवतः उसी आत्म संद्घर्ष की पीड़ा है।
;'तद्भव' से साभार। नामवर सिंह द्वारा लिखित अपनी आत्मकथा का दूसरा भाग। यह मूल का संक्षिप्त रूप है जो वर्ष २००० में प्रकाशित हुआ।
 
 
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