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Tuesday, October 4, 2011

साहित्य में मूल्यबोध


साहित्य में मूल्यबोध
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जीवन, साहित्य और समाज - ये तीनों तत्त्व परस्पर अन्तरंग रूप से जुड़े हुए हैं । जीवन की सुख-दुःखभरी नाना अनुभूतियों को लेकर साहित्य में शृंगार, हास्य, करुण आदि नव रसों की अवतारणा की गयी है । साहित्य-शास्त्रियों ने अपनी अपनी रचनाओं में जीवन का तात्त्विक विश्लेषण किया है । साहित्य जब जीवन-धर्मी होता है, तब पाठक और श्रोता के हृदय को विशेष रूप से स्पर्श करता है । काव्य-कविता हो, उपन्यास हो, नाटक हो, कथा हो या अन्य कुछ साहित्यिक रचना हो, हर क्षेत्र में ध्यान देने का विषय है सामाजिक मूल्यबोध । साहित्यिक कृतियों में रचनात्मक तत्त्व यदि सकारात्मक रूप में गर्भित हो, तो समाज पर अनुकूल और स्वस्थ प्रभाव अनुभूत होता है । सारस्वत साधकगण होते हैं समाज के दिग्‌दर्शक एवं असीम-शक्तिशाली व्यक्ति । कुपथ में चलनेवालों को उसीसे निवृत्त करके सत्पथ में आगे बढ़ने के लिये उत्साह और प्रेरणा देना लेखक का धर्म है । प्राणि-जगत् में मंगलकारक तत्त्व-समूह जीवनधर्मी चिन्तन का परिप्रकाश करता है । भारतीय साहित्य में 'उत्तिष्ठत, जाग्रत, प्राप्य वरान् निबोधत', 'असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय' इत्यादि उपनिषदीय वाणी मनुष्य-जीवन को संयत एवं शान्तिमय बनाने में सहायता करती है ।

विधाता की सृष्टि में सारे विश्व में धर्म-अधर्म, सत्य-मिथ्या, सुख-दुःख, आलोक-अन्धकार, भलाई-बुराई, मिलन-विच्छेद और जन्म-मरण आदि कई विरोधी तत्त्व हमेशा परस्पर संघर्ष-रत रहते हैं । मनुष्य के जीवन में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष - ये चार पुरुषार्थ होते हैं । हर साहित्य में मनुष्य की धर्मशास्त्रीय संहिता या आचरण-पद्धति लिपिबद्ध होती रहती है । सत्कर्मों के फल अच्छे और दुष्कर्मों के फल बुरे होते हैं । ये बातें सर्वत्र भूरि-भूरि प्रतिपादित हुई हैं । इस चिरन्तन चिन्तन-धारा का प्रतिफलन समग्र विश्व-साहित्यों में परिलक्षित होता है । लोक-शिक्षा की दृष्टि से सामाजिक अंगीकार-बद्ध लेखक अपनी रचना में मानव तथा अन्य प्राणियों के जीवन में घटित अच्छाई और बुराई - दोनों दिशाओं का विवेचन करता है । आदिकवि वाल्मीकि-प्रणीत रामायण हो, महामुनि व्यास-कृत महाभारत हो या आधुनिक युग का जो कुछ भी साहित्य हो, सबमें जीवन के कुछ संघर्ष और सफलता का विवरण उपलब्ध होता है । साहित्यशास्त्रियों के मत में 'रामादिवद् वर्त्तितव्यम्, न तु रावणादिवत्' अर्थात् मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र आदि आदर्श चरित्रों की भाँति अपने को प्रतिष्ठित करना चाहिये, रावण आदि निन्दित चरित्रों की तरह नहीं ।

महाभारतीय वर्णन में खलनायक शकुनि और अभिमानी अहंकारी दुर्योधन आदि कौरव पक्ष के बहुसंख्यक वीर योद्धा थे । परन्तु अन्त में सत्य-धर्म-नीतिवादी युधिष्ठिर आदि पञ्च पाण्डवों की विजय हुई है । असत्य, अन्याय और अधर्म के विरुद्ध संग्राम करके सत्य, न्याय एवं धर्म को प्रतिष्ठित करने में सफल और विजयी हुए हैं धर्म-पक्ष के पञ्च पाण्डव । इसलिये उस महाभारत ग्रन्थ का सार-मर्म है - 'यतो धर्मस्ततो जयः' , जहाँ धर्म है, वहाँ है विजय । यथार्थ में महाभारत के रचयिता वेदव्यास हैं मानव-जीवन के श्रेष्ठ व्याख्याकार । सामाजिक दृष्टि से जीवन में केवल बाह्य संघर्ष नहीं, आभ्यन्तर संघर्ष भी चलता रहता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुण मनुष्य को लक्ष्य-भ्रष्ट करके अधोगति की ओर खींच लेते हैं । अच्छाई और बुराई का भेद विचार करके सन्मार्ग में प्रवृत्त होने के लिये समाज को प्रेरणा देती है मूल्यबोध-सम्पन्न साहित्यिक रचना । इसी दृष्टि से साहित्य-सर्जनाकार की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है । नकारात्मक और विनाशात्मक चिन्तन से मनुष्य भली राह से भटक जाता है और अपने लक्ष्य से दूर चला जाता है । इसी कारण साहित्य में आवश्यक हैं सकारात्मक तत्त्व एवं विश्वजनीन उपादेयता ।

साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है । साहित्य-शिल्पी की रचना में कल्पना-विलास एवं वास्तवता का समन्वित चित्रण लेखनी को परिपुष्ट कराता है । केवल वास्तववादी वर्णन करने से कुछ नीरसता आ सकती है । कल्पना में भी वास्तवता का प्रतिफलन मानवीय संवेदना को जगाता है । अग्नि-पुराण में वर्णित है -
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"अपारे काव्य-संसारे कविरेव प्रजापतिः ।
यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्त्तते ॥"

काव्य-जगत् का सर्जक है क्रान्तदर्शी कवि । अपनी रुचि के अनुसार लेखनी-चालना करके वह विश्व में परिवर्त्तन ला सकता है । ऐसी शक्ति है कवि-लेखक के पास । साहित्यकार होते हैं सत्य-शिव-सुन्दर के उपासक, रूपकार एवं उद्‌गाता । तत्त्वज्ञ व्यक्ति इन तीन तत्त्वों को हृदयंगम करता है । जीवन को सरस सुन्दर और मधुमय करना साहित्यकार का सारस्वत कर्त्तव्य है । फलस्वरूप साहित्य-जगत् के प्रति उसकी देन सार्वकालिक और अमर हो जाती है ।

साहित्य, संस्कृति, कला, विज्ञान, वाणिज्य आदि हर विधा की प्रगति देश में जरूरी है । देश का बाह्य कलेवर होता है सभ्यता और अन्तरात्मा है संस्कृति । कला, साहित्य एवं संगीत का आदर सामाजिक जीवन को ऊँचे स्तर पर पहुँचाता है । केवल बाह्य शरीर की स्वच्छता नहीं, आत्मा की भी परिष्कृति और निर्मलता चाहिये । साहित्य में संस्कृति का उपयुक्त समावेश लेखकीय विशेषत्व होता है । सारस्वत साधक की लेखनी में कोमलता के साथ कठोरता भी रहती है । अन्याय का निराकरण और न्य़ाय की प्रतिष्ठा के लिये लेखक सदा चेष्टित रहता है । इसलिये लेखनी के कलात्मक सूक्ष्म चित्रण सहित क्रान्तिकारी चिन्तन जन-समाज को उद्‌बुद्ध और अनुप्राणित करता है । प्राणि-जगत् में मधुरादि षड़्‍ रसों के स्रष्टा हैं विश्वविधाता ब्रह्मा । परन्तु काव्य-जगत् में शृंगारादि नव रसों के स्रष्टा है स्वयं कवि । उस कालजयी सर्जक का महत्त्व वास्तव में प्रणिधान-योग्य है । ‘गरिमा कवि की’ है इसप्रकार –

“विधाता से बढ़कर उसकी सृष्टि-रचना ;
भाती अद्‌भुत उसकी उद्‌भावना ।
गूंगे मुख से बहाता
वाणी-गंगा की अमृत-धार ।
पाषाण के अंग में जगाता
मंजुल संजीवनी अपार ॥

लेखनी में उसकी छा जाती
सहस्र सूर्य-रश्मियों की लालिमा ।
अंशुमाला उज्ज्वलता फैलाती ;
हट जाती तिमिर-पटल की कालिमा ॥

वही कवि तो है क्रान्तदर्शी,
सार्थक उसकी रचना मर्मस्पर्शी ।
अतीन्द्रिय अतिमानस के राज्यों में विहर
भाती उसकी प्रतिभा सुमनोहर ॥

रस-रंगों के संगम की तरंगों से,
जीवन की विश्वासभरी उमंगों से
लिखता रहता कवि निहार चहुँ ओर,
कभी मधुर सरस, कभी तीता कठोर ॥

उसकी कुसुम-सी कोमल कलम
जब करने लगती सर्जना,
निकलती कभी संगीत संग गूँज छमछम,
फिर कभी स्वर्गीय वज्रों की गर्जना ॥"

हमारे समाज में प्रतिभा की कमी नहीं है । जरूरत है प्रतिभा के विकास के लिये उपयुक्त समय, सुयोग एवं परिवेश की । चारित्रिक उत्कर्ष शिक्षा का प्रधान लक्ष्य और जीवन-चर्या का अत्यन्त आवश्यक तत्त्व है । आज के विज्ञान-युग में मनुष्य असाध्य साधन करने में समर्थ है । परन्तु मानसिक एवं मानविक दृष्टि से वह प्रगति के बदले अधोगति की ओर चल पड़ा है । इसी कारण आध्यात्मिक चेतना का विशेष प्रयोजन अनुभूत हो रहा है । भौतिक और यान्त्रिक शक्ति से उन्मत्त होकर आज का मनुष्य केवल स्वार्थी बन गया है । वह स्वयं मनुष्य-जाति एवं प्रकृति पर अकथनीय अत्याचार करने लगा है । इसके परिणाम-स्वरूप सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण प्रदूषित और विपर्यस्त हो गया है । सारा सन्तुलन बिगड़ गया है । भस्मासुर की भाँति मनुष्य के औद्धत्यभरे आचरणों से प्रतिक्रिया-स्वरूप सुनामी-जैसे प्राकृतिक विपर्ययों की घटना आश्‍चर्यजनक नहीं है । मनुष्य के लिये यह एक गुरुत्वपूर्ण चेतावनी है । मनुष्य के ऊर्ध्व में एक अदृश्य शक्ति है, जो सबको नियन्त्रित कर रही है । महाकाल ही अमित-बलवान् है । प्रकृति की गोद में पले हुए मनुष्य को प्रकृति की सुरक्षा हेतु यत्‍नवान् होना चाहिये । साहित्य-साधक महामनीषियों ने वैदिक युग से ही प्रकृति और मनुष्य के बीच अन्तरंग आत्मिक संबन्ध का सुन्दर वर्णन किया है ।

आज के विशृंखलित और ध्वंसाभिमुखी समाज को सन्मार्ग पर प्रवृत्त और परिचालित करने हेतु लेखनी-शक्ति की विशिष्ट पहचान होनी चाहिये । अपसंस्कृति के दूरीकरण एवं आध्यात्मिक चिन्तन-धारा में कर्मों के आचरण से ही सांस्कृतिक महत्त्व को सुरक्षित रखने में सहायता प्राप्त होगी । दृढ़ मनोबल, आत्म-विश्वास एवं सदाचार द्वारा समाज में स्वच्छ परिवेश की सर्जना की जा सकती है । देश को समृद्ध और सुसंस्कृति-सम्पन्न करने में नारी-पुरुष सभीको राष्ट्रीय कर्त्तव्य निभाना है । भारतवर्ष को एक महनीय महान् देश के रूप में सुप्रतिष्ठित करने के लिये मन, वचन और कर्म का त्रिवेणी-संगम आवश्यक है । केवल वाक्य-वीर न होकर धर्म-वीर एवं कर्म-वीर के रूप में अपने को प्रतिपादन करने से मनुष्य-जन्म की सार्थकता बनी रहेगी ।

वर्त्तमान के कम्प्युटर-युग में सारा विश्व एक परिवार-सा बन गया है । महापुरुषों की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’- भावना साकार होने लगी है । इसी परिवेश में समाज और मातृभूमि के उत्कर्ष हेतु साहित्यकारों के युगानुरूप रचनात्मक अवदान सर्वथा स्वागतयोग्य एवं अपेक्षित हैं । प्रतिभाशाली व्यक्तिगण विविध क्षेत्रों में कृतित्व अर्जन करके देश के गौरव बढ़ायें । कलम और कदम साथ–साथ आगे चलें । विश्व-नीड़ में मानवता का सौरभ वितरण करना जीवन का ध्येय बने । विश्वबन्धुता, मैत्री, प्रेम और शान्ति की पावन धारा सभीके हृदय को रसाप्लुत एवं आनन्दमय करे ।

" शान्ति-मन्त्रो जयतु नितरां सौम्य-गाने,
प्रेम-गङ्गा वहतु सुजला ऐक्य-ताने ।
निवसतु सुखं विश्व-जनता
लीयतां ननु दनुज-घनता ;
चूर्णय त्वं वैर-वर्वर-पर्वतम् ।
प्राणिनां संवेदना जायतां सद्‌भावना
भातु सत्यं सुन्दरं शिव-शाश्वतम् ।
भारतम्, भ्राजतां नो भारतं प्रतिभा-रतम् ॥"

1 comment:

Dr. Harekrishna Meher said...

Please mention the name of the author of this article. You must not forget this matter in any article before posting.

The present Hindi article posted above is my original article.
Link is : http://hkmeher.blogspot.com/2009/08/sahitya-mein-mulyabodh-hkmeher.html.
Further it has been published in Hindi e-magazine 'Srijangatha'.
Please see my blog : http://hkmeher.blogspot.com