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Tuesday, October 4, 2011

दिनकर जी की यादें


संयुक्त राज्य अमेरिका से प्रकाशित अंतर्राष्टीय हिन्दी समिति की त्रैमासिक मुख पत्रिका | वर्ष: 26 | अंक: 3 | जुलाई-सितंबर 2010
 
जूलाई - सितंबर, 2010
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दिनकर जी की यादें
गुलाब खंडेलवाल
मेडाइना, ओहायो, अमेरिका
अपनी किशोरावस्था में 1935-36 में हिंदी के जिन कवियों ने मुझ में कविता की रूचि उत्पन्न की वे हैं, पंतजी, बच्चनजी और दिनकर जी। तीनों की अपनी-अपनी विशिष्टता है और उन तीनों ने ही मेरे काव्य-विकास में सहायता की। मुझे अच्छी तरह याद है कि दिनकरजी की "हिमालय' कविता मैं कितना मुग्ध होकर गाया करता था। उनकी पंक्तियॉं -
रे, रोक युधिष्ठिर को न वहां
जाने दे उनको स्वर्ग धीर
दे फिरा हमें गांडीव, गदा
लौटा दे अर्जुन, भीम वीर
तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी आज तप का न काल
मेरे नगपति मेरे विशाल
मेरी जननी के हिम-किरीट
मेरे भारत के भव्य भाल

तो आज भी मैं गुनगुना लेता हूँ। उसके बाद 1941 में मुजफ्फरपुर में सुहृद संघ की ओर से किये गये एक बड़े साहित्यिक आयोजन में उनसे व्यक्तिगत संपर्क करने और उन्हें सुनने का भी अवसर पा सका था। उसके बाद तो पटना, बनारस आदि के कितने ही कवि-सम्मेलनों में तो मैं उनके साथ भाग लेता रहता था। बेढ़बजी के घर पर जब वे ठहरते थे तो मैं उनके साथ साहित्य-चर्चा भी किया करता था। एक बार सवैया छंद के रस सिद्ध कवि "हितैषी' जी और दिनकर जी के साथ भोजन करते समय मैंने कह दिया कि सवैया छंद में लिखना तो बहुत आसान है। इस पर हितैषी जी बोले दिनकर, गुलाब को समझा दो कि सवैया लिखना कितना कठिन है। दिनकर जी ने हितैषी जी की बात का समर्थन करते हुए कहा कि रसवंती में उन्होंने निर्झरणी पर लिखी सवैया छंद की अपनी कविता में इसकी कठिनता का स्वतः अनुभव किया है। उनके इस कथन की यर्थाथता को मैं अपने अनुभव से भली भॉंति समझ सका हूँ।
दिनकर जी की कविता का रसपान करनेवाले इस बात को नहीं जानते हैं कि उन्हें जीवन में कितनी विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ा है। एक बार इस आयोजन में मेरा उनका काव्य पाठ आयोजित था। जब वे कविता पढ़ चुके तो उन्होंने मेरी ओर मुड़कर कहा - गुलाब, आजकल क्या कर रहे हो। मैंने मंच से ही कहा दिनकर जी ने जो प्रश्न किया है उसके उत्तर में मैं यह कविता पढ़ रहा हूं और मैंने पढ़ा-
कुछ भी नहीं किया
केवल दिया, दिया, दिया
जीवन को अपनों की छवि से भर लिया
अंतर की ज्वाला में जला-बुझा किया
टेरता पपीहा सा पिया, पिया, पिया
चंदन-सा तन प्राण घिसता रहा
गौरव, गति गंध, गान रिसता रहा
एक दिया जला
दूसरा बुझा लिया
खंडित विद्यलेखा मैं पॉंव के तले
पानी की रेखा ज्यों बने मिट चले
पंछी ज्यों पंखहीन, ऐसे ही जिया

आयोजन समाप्त होने के बाद दिनकर जी ने मुझे कहा - गुलाब तुम बहुत भाग्यशाली हो। मुझ को देखो - परिवार की कन्याओं का मुझे विवाह अकेले ही करना पड़ा और भूमिहार जाति में इसकी कठिनाई तुम समझ सकते हो। इस कथन की सत्यता का उनके द्वारा दिया गया एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा - उनकी पुत्री या पौत्री का संबंध एक परिवार में अपनी जाति के एक लड़के से करने की बात चल रही थी जिसमें 75000/- दहेज की मांग हो रही थी। जाति के अन्य लोगों के बीच बचाव करने पर और यह कहने पर कि दिनकर जी हमारी जाति के गौरव हैं, उस मांग में 25000/- की कमी करके बात पक्की की गयी। इसके कुछ दिनों बाद ही दिनकरजी को ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। यह समाचार प्रकट होते ही लड़के वाले ने संदेश भेजा कि अब तो आपके हाथ में रुपये आ गये, अब आप छोड़े गये 25000/- और भेज दें। इस एक उदाहरण से उनके जीवन में परिवार की 14 कन्याओं के विवाह का भार वहन करना कितना कठिन रहा होगा।ङ्ख यह बात सहज ही समझी जा सकती है। उनके ज्येष्ठ पुत्र से भी उनका मतभेद था परंतु एकाएक उस पर पक्षाघात का आक्रमण हो जाने पर जब दिनकर जी उसे देखने अस्पताल में पहुंचे और बोलने में असमर्थ उस पुत्र ने दोनों हाथ उठाकर डबडबायी आँखों से जब पिता से क्षमा याचना की तो उनके पितृ हृदय को कितनी व्यथा पहुँची होगी इसे शब्दों में बताना कठिन है। परंतु जीवन के ऐसे सारे अनुभवों के विष को पचाकर उन्होंने समाज को अमृतमय संदेश ही दिया। उनके साहित्य में कहीं निराशा, वेदना, दंश और कुंठा का लवलेश नहीं है। उन्होंने कालिदास और रवींद्रनाथ की तरह अपने जीवन के आघात प्रत्याघातों की कहीं हल्की सी भी झलक अपने साहित्य में नहीं आने दी।
कितना लिखूँ। उनके साथ की अनेक स्मृतियॉं हृदय में उमड़ रही हैं। कुछ का वर्णन मैंने अपनी सद्यः प्रकाशित आत्मकथाजिंदगी है कोई किताब नहीं में कर दिया है। दो-तीन वर्ष पहले दिनकरजी की स्मृति में बसाये गये पटना के एक गॉंव का नाम दिनकर नगर रखा गया था। उस आयोजन में भी मैं उनके साहित्य पर विस्तृत चर्चा कर चुका हूँ। दिनकरजी की जन्मशती के उपलक्ष्य में प्रकाशित "विश्वा' के लिए अपनी विनम्र श्रद्धाजलि महान कवि के प्रति व्यक्त कर रहा हूँ जिसने हमारे साहित्य को जागरण की वाणी दी और गीता के ङ्कतस्मादुतिष्ठंङ्ख के मंत्र को उद्घोषित किया।

 

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