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Tuesday, October 4, 2011

छंद के साँचे में ढली कविता का सौन्दर्य




छंद के साँचे में ढली कविता का सौन्दर्य


                डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र


मिट्टी के घड़े बनानेवाले कुम्हार को प्रजापति भी कहा जाता है। प्रजापति सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा का दूसरा नाम है। जैसे कुम्हार खेत से मिट्टी लाकर, उसे अच्छी तरह गूँधकर,चाक पर मिट्टी के लौंदे को चढ़ाकर अपनी इच्छा के अनुसार विभिन्न प्रकार के बर्तनों का आकार देता है,वैसे ही ब्रह्मा भी क्षिति (मिट्टी),जल,पावक(अग्नि), गगन(आकाश) और समीर(वायु) को मिला कर प्राणियों को आकार देते हैं। यह आकार ही प्रत्येक जीव या वस्तु की पहचान है। हम घड़े को सुराही से अलग इसलिए कर पाते हैं कि हमें दोनों के आकार की समझ या परिभाषा अग्रजों से मिली हुई है। उसी तरह हम गाय और घोड़े में अन्तर भी उनके आकार के कारण ही कर पाते हैं। हम किसी व्यक्ति को भी उसकी आकृति से ही पहचान पाते हैं। भैंसों या सुअरों का रंग-रूप प्रायः एक ही तरह का होता है, लेकिन उनमें भी सूक्ष्म भेद होता है, जिसे उनका पालनहार अच्छी तरह जानता है। इसलिए उसे अपनी भैंस को पहचानने में कोई दिक्कत नहीं होती है। छन्द भी कविता का बाहरी आकार या स्वरूप है,जिससे उसकी पहली पहचान बनती है।कविता के सौन्दर्य को चिरायु रखने में छन्द कवच की भूमिका निभाता है। ऐसा कठोर कवच, जो बाहर के तपन से नारियल के फल के भीतर के मीठे रस को बचाता है। इस प्रकार छंद कविता को विशिष्ट पहचान के साथ-साथ दीर्घायु भी देता है।यह धान की भूसी की तरह मूल्यहीन होकर भी चावल की जीवनी शक्ति (कवित्व) को संरक्षित करता है। वैसे छंद का शाब्दिक अर्थ ‘शासन’ है,वह शासन जो शब्दों के प्रवाह को नियंत्रित या संयमित करता है। छंद का एक अर्थ ‘आह्लादकर’ भी होता है--छन्दयति=आह्लादयति।संस्कृत के आचार्यों ने काव्य को गद्य और पद्य में विभक्त करते हुए छंदोबद्ध वाक्य को पद्य कहा है--‘छन्दोबद्धं पदं पद्यम्‌’ (साहित्यदर्पण)। गीत गाने की सहज मानव-प्रवृत्ति के कारण मानव-मात्र में छंद के प्रति आकर्षण चिरकाल से रहा है। विश्व की समस्त भाषाओं का प्रारम्भिक साहित्य पद्य-रूप में ही प्राप्त है। अपेक्षाकृत परवर्तीकाल में सांस्कृतिक विकास का मुँह देखनेवाले यूरोपीय देशों में एक नये प्रकार का लयात्मक गद्य (ब्लैंक वर्स) पद्य की जगह प्रचलित हुआ, जिसमें छंद के लिए आवश्यक तुक-वर्ण-मात्रा आदि का विचार न रखकर लय का ध्यान रखा जाता है।
भारतीय वाड्‌.मय सदियों तक श्रुति और स्मृति की परम्परा में चिर-संचित रहा है, इसलिए भारतीय कविता वाचिक परम्परा में पली-बढ़ी है। इस वाचिक परम्परा को पुष्ट करने में छन्द की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। यहाँ तक कि वेदों को भी ‘छंद’ ही कहा गया। वैसे,वेदों में कुल सात छंदों का ही प्रयोग हुआ है,जिन्हें वैदिक छंद कहा जाता है।वे हैं: गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, बृहती,पंक्ति, त्रिष्टुप और जगती। इनमें गायत्री छंद में 3 चरण और 24 अक्षर या स्वर वर्ण होते हैं,जैसे:तत्सवितुर्वरेण्यं /भर्गो देवस्य धीमहि/धियो यो नः प्रचोदयात्‌।
इसमें छंद की अपेक्षा के अनुसार,प्रत्येक चरण में 8-8 स्वरवर्णों को रखने के लिए ‘वरेण्यं’ का उच्चारण ‘वरेणियम्‌’ किया जाता है।
उष्णिक छंद में 28,अनुष्टुप में 32,बृहती में 36,पंक्ति में40,त्रिष्टुप में 44 और जगती में 48 अक्षर होते हैं।
वैदिक छंदों के बाद, लौकिक छंदों का क्रम आता है।लौकिक संस्कृत का पहला छंद (अनुष्टुप) आदिकवि वाल्मीकि के कंठ से फूटा था:
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंच-मिथुनादेकमवधीः काममोहितम्‌॥
[हे निषाद,तुम कभी सुख-शांति न पाओ,क्योंकि तुमने काममोहित क्रौंच के जोड़े में से एक को मार डाला है]
यह श्लोक क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक का वध व्याध द्वारा कर दिये जाने के बाद क्रौंची के विलाप से उत्पन्न करुणा के वश में आकर महर्षि वाल्मीकि के मुख से अनायास निकल पड़ा था।यह वैदिक छंदों से अलग एक नया छंद था। राग-विराग से दूर, निरन्तर तपस्या में लीन रहनेवाले महर्षि को भी आश्चर्य हुआ--‘किमिदं व्याकृतं मया !’ (यह मैने क्या कह दिया!)। महाकवि कालिदास ने ‘रघुवंश’ में इस पूरी घटना को दो पंक्तियों में समेट लिया है:-
निषादविद्धाण्डज-दुःखितोत्थः
श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः।
यह अनुष्टुप छंद अत्यन्त सहज-सरल है। थोड़ा-सा अभ्यास कर लेने पर संस्कृत के आचार्य अनुष्टुप छंद में आपसी संवाद भी करने लगते हैं। संस्कृत में साहित्य के इतर जितने भी विषयों पर ग्रंथ लिखे गये हैं, अधिकतर इसी छंद में हैं। हिन्दी का ‘दोहा’ छंद अनुष्टुप का ही वारिस है। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि श्लोकों में तुक नहीं होते। तुक का प्रयोग बाद में सम्भवतः लोकजीवन में व्याप्त गीतकाव्य के प्रभाव से होने लगा,जिसका सुन्दरतम रूप जयदेव के ‘गीतगोविन्द’ में देखने को मिलता है।
भारतीय आचार्यों ने छंदःशास्त्र की रचना में भी विशेष रुचि ली है। उनमें महर्षि पिंगल का छंदःशास्त्र प्राचीनतम और सर्वाधिक प्रामाणिक माना जाता है। उसमें एक करोड़ 67 लाख 77 हजार 216 प्रकार के वर्णवृत्तों का उल्लेख है,जिनमें मात्र 50 छंदों को ही संस्कृत कवियों के कवित्व का अंग बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इनमें शिखरिणी, आर्या, मन्दाक्रांता, इन्द्रवज्रा,शार्दूलविक्रीडित,भुजंगप्रयात छंद ज़्यादा चर्चित हुए। प्रसिद्ध शिवमहिम्न स्तोत्र (महिम्नः पारं ते परम विदुषां यद्यसदृशी) शिखरिणी छंद में और मेघदूत (कश्चित्कान्ता-विरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः) मन्दाक्रान्ता छंद में है। चूँकि गति के संयम का ही नाम छंद है,इसलिए किसी छंद में शब्दों को ढालते समय यह ध्यान रखना पड़ता है कि छंद में कितने पद हों,प्रत्येक पद में कितने वर्ण या मात्रा हों,कहाँ यति हो,गणों की संगति किस प्रकार हो। ये सारे शब्द छंदशास्त्र के पारिभाषिक शब्द हैं,जिनका ज्ञान होने पर ही कविता के गुण-दोषों को समझा जा सकता है। छंद वर्णिक भी हो सकते हैं और मात्रिक भी। वैदिक गायत्री छंद वर्णिक था,इसलिए उसके स्वरवर्णों की गणना की गयी थी। मात्रिक छंद में चरणों को मात्रा के आधार पर मापा जाता है। अ,इ,उ ह्रस्व स्वरवर्ण एक मात्रा के और आ,ई,ऊ,ए,ऐ दीर्घ वर्ण दो मात्रा के हैं। एक मात्रा को लघु और दो मात्रा को गुरु कहते हैं। ‘कमल’ शब्द के तीनो अक्षर लघु हैं,जबकि ‘आयात’ के प्रथम दो अक्षर गुरु और अंतिम अक्षर लघु है। संयुक्ताक्षर से पहले आनेवाला अक्षर लघु होने पर भी गुरु माना जायेगा,जैसे ‘कर्म’ का ‘क’ गुरु और ‘म’ लघु है। हिन्दी में म्ह,ल्ह,न्ह जैसे संयुक्ताक्षर स्पर्श-संयुक्त उच्चरित होते हैं,अतः उनके आगे आनेवाला अक्षर गुरु नहीं होगा,जैसे कुल्हाड़ी का कु और तुम्हारा का तु लघु ही माना जायेगा। जनभाषाओं में लघु-गुरु का निर्णय उच्चारण के आधार पर किया जाता है। ‘सोइ जानहि जेहि देहु जनाई’ (तुलसी,अवधी)में सो और जे दीर्घ होते हुए भी ह्रस्व उच्चरित होते हैं, जबकि ‘आनंदलोके मंगलालोके बिराजो सत्य-सुन्दरो’ ( रवीन्द्रनाथ, बंगला) में बि का उच्चारण दीर्घ होता है।लघु के लिए ‘s' और गुरु के लिए ‘।’ चिह्न का प्रयोग होता है। छंद में वर्णों के क्रम को व्यवस्थित करने के लिए 3-3 अक्षरों के आठ गण(अक्षर-समूह) बनाये गये हैं: मगण(तीनों गुरु),नगण(तीनों लघु),भगण(गुरु लघु लघु),यगण(लघु गुरु गुरु),जगण(लघु गुरु लघु),रगण(गुरु लघु गुरु),सगण(लघु लघु गुरु),तगण(गुरु गुरु लघु)। इन गणों की पहचान करने के लिए एक सूत्र भी है--‘यमाताराजभानसलगा’।
छंदों की योजना रस और भाव के अनुसार होती है।श्रृंगार रस में कोमल शब्दों का और वीर रस में कठोर शब्दों का प्रयोग होता है। छंद में ध्वनि-सौन्दर्य और अर्थ-सौन्दर्य दोनों का समान महत्व है। छंद या गीत का एक ललित मधुर वाक्य-खंड जब टेक के रूप में बार-बार दुहराया जाता है,तो उसका ध्वनि-सौन्दर्य और भाव-सौन्दर्य रसज्ञ श्रोता के मन पर मोहक इन्द्रजाल फैला देता है। इसीलिए गद्य-वाक्य जहाँ एक कान में प्रविष्ट होता है और दूसरे से निकल जाता है,वहाँ गीत आदि छन्दोबद्ध रचनाएँ स्मृति-पटल पर बस जाते हैं। ‘मनुस्मृति’ जैसी राजधर्म की,‘चरकसंहिता’ जैसी आयुर्वेद की, ‘लीलावती’ जैसी गणित की पुस्तकें और ‘अमरकोश’ जैसे शब्दकोश भी श्लोकबद्ध हैं,जिन्हें छात्रों को प्रारम्भ में ही याद करा दिया जाता है। संस्कृत की इस प्राचीन शिक्षण-परम्परा से मैं भी गुजरा हूँ,इसलिए शब्दों के अधिकतर पर्याय मुझे याद हैं,श्लोकबद्ध! कविता लिखते समय न छंदशास्त्र लेकर कोई बैठता है,न ही शब्दकोश। स्मृति में बसा हुआ छंद का साँचा और शब्द-सम्पदा ही काम आती है। इस परीक्षागृह में कोई कुंजी,कोई चिट काम नहीं आता। भाव जब मन में घने बादल की तरह उमड-घुमड़कर बरसता है,तब पानी की तेज़ धार की तरह शब्द साँचों में ढलकर प्रवाहित होते हैं।शब्दों के इस प्रवाह को मन के अंदर उपस्थित छंद का साँचा नियंत्रित करता है। पढ़ा हुआ छंदशास्त्र उस शब्द-प्रवाह को अनायास गणों में वितरित करता है,और इस प्रकार वह काव्य-पंक्ति पत्थर की लकीर बन जाती है।
विश्व की सभी भाषाओं में,प्रारम्भ में लिखने की सुविधा न होने के कारण,अनिवार्य रूप से सुरक्षित रखने योग्य समस्त वाड्‍.मय छंदोबद्ध ही था। सभी भाषाएँ संस्कृत की तरह प्रौढ़ नहीं थीं,इसलिए किसी में लय को महत्व देते हुए एक ही स्वर को दूर तक खींचा जाने लगा,किसी में शब्दों के बीच-बीच में मौन रहकर ताल और मात्रा ठीक की जाने लगी तो किसी में अधिक मात्रावाले शब्दों को शीघ्रता से कहकर कम मात्रा का बनाया गया। इसलिए वहाँ छंद की परिभाषा भी अपेक्षाकृत शिथिल है। ब्लेयर ने एक जैसे ध्वनि-समूहों की आवृत्ति को ही छंद माना है।क्विन्तीलियन ने ‘दो या कई वाक्यों को एक समान तुकान्त करने की कवि-कुशलता’ को छंद कहा है। दान्ते भारतीय छंदशस्त्रियों के ज़्यादा निकट हैं,जब वे घोषित करते हैं कि ‘छंद का काम पद्य की लयात्मक रचनाओं को व्यवस्थित करना है’। जार्ज पुट्टेनहम से लेकर विलियम वेब,मिल्टन,ड्राइडन,एडविन गेस्ट और सेंट्सबरी तक अँगरेज़ी के सभी विचारक छंद को ‘केवल लय का सहायक’ मानते रहे हैं। यूरोपीय छंद-विधान में प्रत्येक पद में कुछ चरण(फुट) होते हैं,जिनमें दो लयान्वितियाँ(सिलेबिल) होती हैं। इन दो लयान्वितियों में से या तो दोनो दीर्घ या एक लघु-एक गुरु या दोनो लघु होती हैं और उन्ही के अनुसार छंद का नामकरण होता है। दूसरी विशेषता है,लयान्वितियों पर बल,जिसे ‘स्ट्रेस’ कहते हैं। कविता पढ़ते समय किसी विशेष लयान्विति पर बल देने से छंद की गति बनती चलती है। इस बल को वे ‘ऐक्सेन्ट’ कहते हैं। फ्रांसीसी पद्यों में स्वरित (ऐक्सेन्टेड) और निःस्वरित(अनऐक्सेन्टेड) लयान्वितियों में उतना अंतर नहीं है,जितना अँगरेज़ी और जर्मन पद्यों में। इसलिए इन भाषाओं में कान के अभ्यास से ,पढ़ने के ढंग पर ही छंद का भास होता है। ग्रामों ने डंके की चोट पर कहा भी है कि ‘छंद कान के लिए है,आँख के लिए नहीं’। जर्मन छंदशास्त्री शूत्से और श्लेगेल मानते हैं कि ‘स्मृति के लिए छंद बड़ा सहायक होता है’। श्लेगल यह भी कहते हैं कि ‘छंद की सौन्दर्य-वृत्ति यह है कि वह हमारा ध्यान आकृष्ट करे और हमारे मन को सौन्दर्य-भोग के लिए प्रेरित करे’। हेगेल भी कहते हैं कि ‘छंद शब्दों के प्रति ध्यान आकृष्ट कराकर उनके प्रत्यक्ष रूप की रक्षा करता है’। गेटे का मत है कि ‘छंद शब्दों का वह प्रत्यक्ष रूप है जो हृदय से निकलता है,बुद्धि से नहीं,और तत्काल हमारी इन्द्रियों को प्रभावित करता है।’ अमेरिका के सिडनी सैनियर और हेनरी लौज कविता को संगीत का अंग मानते हुए कहते हैं कि ‘पद्य-रचना में छंद वही काम करता है,जो संगीत-रचना में स्वर करते हैं।’ यूरोप के प्रायः सभी बड़े कवियों ने गिने-चुने छंदों का ही प्रयोग किया है। वीर काव्य के लिए आयम्बिक पेन्टामीटर,प्रेम और सरस भावात्मक वर्णन के लिए आयम्बिक टेट्रामीटर या ट्रायमीटर छंद का प्रयोग हुआ है। इधर कुछ स्वतंत्र छंद भी लिखे जाने लगे हैं,जिनमें 2 से 14 तक पंक्तियाँ होती हैं और प्रत्येक पंक्ति स्वतंत्र रूप से छोटी-बड़ी होती है। यूरोपीय कवियों का सर्वस्वीकृत सिद्धान्त यह रहा है कि ‘ छंद की गति वह रखी जाय जो पढ़ने या सुनने में मधुर और स्वाभाविक लगे’। अँगरेज़ी के कुछ छंदों में पंक्ति और लय विशेष क्रम से सजे हुए रहते हैं और सभी पंक्तियों की लम्बाई समान होती है,जैसे सोनेट,पिंडारिक ओड,ट्रियोलेट और विलानिल। इनमें सोनेट छंद का खूब प्रयोग हिन्दी कवियों ने,ख़ासकर त्रिलोचन शास्त्री ने,किया है |अरबी भाषा में शब्द-बल(वजन) के आधार पर्छंद की लय बैठायी जाती है।प्रत्येक छंद में दो मिसरे होते हैं ।दूसरे के अंतिम शब्द में पदान्त (मिसरा तरह) होता है। प्रारम्भ में अरबी कविता में कई प्रकार के छंद थे,जिनमें ‘मृदकारिब’ और ‘रमल’ का पर्याप्त विकास हुआ। आठवीं सदी में हलील बिन अनमद ने छंदशास्त्र (अरूद) की प्रथम रचना की और ‘फल्‌’ धातु से विभिन्न प्रकार के छंदों का रूप बाँधने की रीति निकाली । पुराना छंद ‘तबील’ फऊलुन मफाइलुन फऊलुन मफाइलुन की गति से और ‘हजाज’ मफाइलुन मफाइलुन मफाइलुन मफाइलुन की गति से चलता था। ये दोनो छंद संस्कृत में पूर्व प्रचलित हैं। पहले छंद में रामचरित मानस का ‘नमामीशमीशान-निर्वाणरूपम्‌’ और दूसरे में शिवताण्डवस्तोत्र का ‘जटा-कटाह-सम्भ्रम-भ्रमन्निलिम्प-निर्झरी’ को पड़ा जा सकता है। अरब में चूंकि रेगिस्तान ही रेगिस्तान है,इसलिए अरबी छंदों की गति ऊँट के चलने की गति से मिलती-जुलती है। वैदिक भाषा की तरह प्राचीन अरबी को समझनेवाले भी बहुत कम बचे हैं। ‘कुरान’ प्राचीन अरबी में ही है। इसी प्रकार प्राचीन फ़ारसी भाषा का रूप भी नष्ट हो चुका है। वर्तमान फ़ारसी के सबसे पुराने उदाहरण नवीं सदी से प्राप्त होते हैं,जिनके अधिकांश छंद अरबी से लिये गये हैं। ‘शैर’ भी अरबी भाषा का शब्द है,जिसका अर्थ है--बाल। कविता एक रूपसी है और शैर उसके बाल (गेसू) हैं। वैसे कोश (लुगत) में शैर का अर्थ स्त्री भी है। इस शैर के एक चरण या एक पंक्ति को मिसरा ,शैरों के समूह को ग़ज़ल,ग़ज़ल के पहले शैर को मतला और अंतिम शैर को मकता कहते हैं। इसी प्रकार तुक को काफिया और पदान्त को रदीफ़ कहते हैं। काफ़िये के बाद रदीफ आता है,जो सब शैरों में अपने स्थान पर व्यवस्थित रहता है,कभी बदलता नहीं। उदाहरण के लिए :
इशरते-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना।
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना॥
इसमें ‘हो जाना’ रदीफ़ है और ‘फना’ और ‘दवा’ काफ़िया है।
अरबी और फारसी दोनों में चार मिसरों के छंद ‘रुबाई’ का खूब प्रचलन है, जिसमें थोड़े से मुहावरेदार शब्दों में जीवन-दर्शन की बड़ी-बड़ी बातें कही जाती हैं। उमर खय्याम की फारसी में लिखी रुबाइयाँ संसार की प्रायः सभी भाषाओं में अनूदित हैं। हिन्दी में बच्चन जी ने उनका अनुवाद भी किया और बाद में उन्हीं के तर्ज पर ‘मधुशाला’ के लोकप्रिय छंद भी रचे।
चीनी भाषा में पद्य के लिए कोई शब्द नहीं है,क्योंकि वहाँ लय या छंद के बदले ध्वनि-प्रसार पर अधिक बल दिया जाता है। चीनी भाषा का प्रत्येक अक्षर एक आदि के और एक अंत के व्यंजन से बना शब्द होता है।अंतिम अक्षर स्वर या अनुनासिक मात्र होता है। इस प्रकार, वहाँ अक्षर एक चिह्न है जो कभी-कभी वाक्य का भी बोधक होता है। चीनी लोग चार प्रकार के छंद मानते हैं--शिः,फुः,त्जउ और चउ। इनमें शिः अधिक प्रचलित है,प्रायः सभी लोकगीत,चारणगीत और साहित्यिक पद्य इसी छंद में लिखे गये हैं। चीनी काव्य गीति-प्रधान है,प्रबंध-प्रधान नहीं। इसलिए पूरे चीनी काव्य-साहित्य में एक भी महाकाव्य नहीं है। ‘शिः’ में भावों की अभिव्यक्ति होती है और ‘फुः’ में प्रकृति या वस्तुओं का वर्णन। नवीं सदी में प्रचलन में आये संगीतोपयोगी छंद ‘त्जउ’ की रचना-शैली को ‘त इएन्‌ त्जउ’(राग के अनुसार शब्द भरना) कहा जाता है।विषम पंक्तियों वाला यह छंद अत्यन्त भावात्मक गीतों को रचने में काम आता रहा। ‘चउ’ को ‘त्जउ’ का संगीतहीन रूप माना जाय। जापानी में पाँच ह्रस्व स्वर हैं--अ,इ,उ,ए,ओ। प्राकृत की तरह इनका उच्चारण अलग -अलग होता है।जैसे प्राकृत में ‘सुउमार’ को ‘सूमार’ नहीं पढ़ा जा सकता,वैसे ही जापानी काव्य में भी। जापानी में लघु और गुरु शब्द-समूह के अनुसार लय का निर्माण होता है।जापानी में केवल चार छंद प्रचलित हैं--नगउता,तन्का, रेन्का और हेक्कू। सबसे छोटा छंद ‘हेक्कू’ हायकु के नाम से हिन्दी कवियों में भी काफी लोकप्रिय है। इसमें‘तन्का’ के प्रथम भाग के समान 17 अक्षर(5-7-5) होते हैं।
भारत की धरती से उत्पन्न सभी भाषाओं में प्रबंधकाव्य बड़े-बड़े प्रतिभाशाली कवियों द्वारा पर्याप्त रचे गये हैं। महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास ने क्रमशः रामायण और महाभारत की रचना कर न केवल भारतीयों को जीने की कला सिखायी,बल्कि परवर्ती कवियों के लिए उपजीव्य काव्य भी दिये। छंदोबद्ध होने के कारण ये माहाकाव्य सहस्राब्द्यों तक जनसाधारण के कंठहार बने रहे। गेयता भारतीय कविताओं की प्रमुख विशेषता रही है। काव्य का पहला आकर्षण उसकी गेयता है। यह सच है कि प्रबंधकाव्य जैसा व्यापक प्रभाव गीत या मुक्तक काव्य में नहीं होता, मगर उसमें जो संक्षिप्तता,अनुपम रमणीयता और मोहकता है,वह प्रबंधकाव्य में सम्भव नहीं। गीत काव्य मानव की आदिवाणी है,क्योंकि प्रत्येक भाषा की उत्पत्ति संगीतात्मक हुई है और उसमें पहली सहज स्वच्छंद अभिव्यक्ति छोटी-छोटी स्फुट कविताओं या लोकगीतों के माध्यम से हुई है। प्रारम्भिक लौकिक गीतकाव्य प्राकृत में है। ‘गाहा सतसइ’(गाथा सप्तशती) इसी प्रकार के मुक्तकों का संग्रह है,जिसे संकलित करने का श्रेय आन्ध्र के सातवाहन( हाल) को दिया जाता है। ‘मेघदूत’ संसार का सर्वोत्कृष्ट प्रेमगीत काव्य है।वैसे ही जयदेव का ‘गीतगोविन्द’ भी,जिसके अनुसरण में पहली बार देसिल बयना (मैथिली) में विद्यापति ने पदों की रचना कर परवर्ती कवि कबीर-सूर-तुलसी-मीरा जैसी महान प्रतिभाओं को जनभाषा में पद रचने की प्रेरणा दी। तुलसी ने पदों के अलावा विभिन्न प्रकार के छंदों का प्रयोग किया,जिनमें चौपाई और दोहे के अलावा सवैया का भी भरपूर प्रयोग हुआ। रीतिकालीन कवियों ने दोहा छंद पर विशेष जोर दिया। कबीर की तरह रहीम ने भी नीतियों को दोहे में पिरोने में महारत हासिल की। छायावादी कवियों ने गीत की संरचना में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये और निराला ने इस कार्य में सबसे अधिक योगदान किया। वे संगीत के गहरे जानकार थे,इसलिए पारम्परिक छंदों को तोड़कर नये छंद गढ़ने या उसे कविता को छंदमुक्त करने की उनमें विशेष क्षमता थी। उनके समकालीन या उनके बाद आधुनिक चेतना लेकर आये प्रायः सभी हिन्दी कवियों ने अपने प्रारम्भिक उद्गार छंदों में और ख़ासकर नवाभिव्यक्ति वाले गीतों में व्यक्त किये। बाद में उनके उद्गार विचार-प्रधान हो गये,जिन्हें छंदों में व्यक्त करना उनके लिए कठिन हो गया।इसलिए समाज द्वारा स्वीकृत न किये जाने की पूरी आशंका रहते हुए भी उन्होंने अपने को मुक्तछंद में अभिव्यक्त करना ज़रूरी समझा।लेकिन हिन्दी कवियों का एक महत्वपूर्ण समुदाय है,जो सवैया,गीत,नवगीत और ग़ज़ल की रचना करते हुए कविता को कालजयी बनाये रखने के लिए कटिबद्ध है।
डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र
देवधा हाउस,गली-5
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