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Tuesday, October 4, 2011

काव्य में अलंकार-विधान

आधुनिक हिन्दी काब्य के अलंकार-पक्ष पर विचार से पूर्व हम आधुनिक हिन्दी काव्य की क्षेत्र-सीमा का निर्देष करना आवष्यक समझते है। यहाँ पर यह सूचित कर देना नितांत अपेक्षित है कि आधुनिक हिन्दी काव्य के अन्तर्गत हम हिन्दी काव्य की किस धारा को बांधना चाहते हैं। आधुनिक काव्य से हमारा अभिप्राय हिन्दी खड़ी बोली की कविता से है किन्तु प्रयोगषील अथवा ‘नयी कविता’ को हम प्रस्तुत विचार-संदर्भ में नहीं सम्मिलित करेंगे, क्योंकि नयी कविता की रचना-प्रक्रिया तथा दर्षन-भूमिका के अनुबंधक आधार भिन्न हैं। उसका अन्तः पक्ष तथा बाह्म पक्ष दोनों ही हमारे विवेच्य विषय में अन्तर्भूत नहीं हो सकते। प्राचीन हिन्दी काव्य तथा पूर्व मध्य एवं उत्तर मध्यकालीन हिन्दी काव्य के साहित्यिक मूल्यांकन में विद्वानों की दृष्टि विषेषतः उसके रस-पक्ष और अलंकार-पक्ष पर रही है-कभी वे काव्य की भावात्मक सत्ता पर विभोर होते रहे हैं और कभी वे उसके कलात्मक स्वरूप् पर। इस परिप्रेक्ष्य में हिन्दी काव्य के इतिहास पर दृष्टि डालें तो देखेंगे कि पूर्व मध्यकाल में हिन्दी काव्य अपनी भावात्मक अथवा विभावनात्मक विषिष्टता के साथ प्रकट हुआ जब कि उत्तर मध्यकालीन हिन्दी काव्य अप कलात्मक विन्यास के लिए प्रसिद्ध है। आधुनिक हिन्दी काव्य में छनद की प्राचीन परम्परा का भले ही अभाव हो, अभिव्यक्ति में ब्रजभाषा के लोच से भिन्न प्रकार की मृदुलता हो, निर्माण-प्रक्रिया में एवं रचना-रूपों के बाह्म मानदणडों में भले ही परिवर्तन हुए हों किन्तु काव्य की अंतरंग विषिष्टताओं में आधुनिक हिन्दी काव्य प्राचीन हिन्दी काव्य से किंचिदपि छिन्न सूत्र नहीं हुआ। वाच्यार्थ से भिन्न प्रतीयमान के जिन तीन वस्तु ध्वनि, अलंकार ध्वनि, रस ध्वनि, मुख्य भेदों की चर्चा ध्वन्यालोक-कार आनन्दवर्द्धन ने की है1 वे समस्त भेद हमारे आधुनिक हिन्दी काव्य में सुविधा से प्राप्त हो जाते हैं। प्रतीयमान के उक्त तीन भेदों में अलंकार ध्वनि के उदाहरण आधुनिक हिन्दी काव्य में अपेक्षाकृत अधिक मुखरित रूपमें विद्यमान हैं। यहाँ पर हम अलंकार ध्वनि को उदाहरणों द्वारा स्पष्ट करना समीचीन मानते हैं। आधुनिक हिन्दीकाव्य में यद्यपि घ्वनिमयता की अवस्थिति का विवेचन होना चाहिए किन्तु यहाँ हम केवल अलंकार पक्ष पर विचार करने के प्रयोजन से प्रेरित हुए है। अतः काव्यगत अलंकार ध्वनि अथवा अलंकार की संक्षिप्त व्याख्या करेंगे।
ध्वन्याचार्य आनन्दवर्द्धन के विचार से काव्य में रस अंगी और षब्द अर्थ अंग होते हैं। जो उस प्रधानभूत (रस) अंगी के आश्रित रहनेवाले माधुर्यादि हैं उनको गुण कहते हैं तथा जो उसके अंग षब्द और अर्थ के आश्रित रहनेवाले हैं उनको कटकादि (मेखला) के समान अलंकार कहते हैं2 यहाँ पर षब्द अर्थ काव्य के अंग हैं, रस काव्य के अंगी। अंग का आश्रित अलंकार तथा अंगी का आश्रित गुण है। इसे स्पष्ट करने के लिये उदाहरण ले लीजिये। एक योद्धा युद्धभूमि में जाने के लिए परिकरबद्ध खड़ा है। उसके हृदय में षौर्य जागृत है। यह षौर्य गुण है और परिकर अलंकार है। वह इसीलिये कि षौर्य षरीर के अंगी हृदय का आश्रित है और परिकर षरीर के अंग कटि का आश्रित है, अतः वह अलंकार अथवा आभरण है- इसी कारण
1 - प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम्।
यत्ततत् प्रसिद्धावयवातिरिक्त विभाति लावणयमिवाङ्गनासु।।
ध्वन्यालोक प्रथम उद्योत कारिका 4
सहायों वाच्य सामथ्र्याक्षिप्तं वस्तुमात्र अलंकार रसादयष्चेतयनेक भेद प्रभिन्नों
दष्रयिष्यते। सर्वेषु च तेषु प्रकारेषु तस्य वाचादन्यत्वम्।
उक्त चैथी कारिका की व्याख्या।
2-तमर्थमवलम्बन्ते येऽङ्गिनं ते गुण: स्मृता:।
अंगाश्रितास्त्वलंकारा मन्तव्या: कटकादिवत्
ध्वन्यालोक कारिका 6
गुण अथवा रस काव्य की अन्तर्पक्ष और अलंकार बाह्म पक्ष माना गया है ‘रीतिरात्माकाव्यस्य’ के माननेवाले वामन इसी तथ्य का समर्थन प्रकारान्तर से इन षब्दों में करते हैं, ‘‘काव्य षोभाया: कर्तारो धर्मा गुणा: तदतिषथहे तवस्त्वलङ्काराः’’1 अर्थात् काव्य के षोभानक धर्मों को गुण तथा उस षोभा के वृद्धिकारक हेतुओं को अलंकार मानना चाहिये। भामह के विवरण में भट्टोद्भट ने गुण और अलंकार के भेद को नहीं माना परन्तु हम यहाँ इनके भेद-अभेद के विवाद-विस्तारमें न पड़कर यहाँ पर इतना ही संकेत करेंगे कि काव्य में अलंकार की स्वाभाविक योजना ‘चारूत्वममलङ्कार:’ सिद्ध होती है।
भोज ने अलंकारों के तीन वर्ग माने हैं बाह्म, आभ्यन्तर तथा वाह्मभ्यान्तर। वह्मभरण आदि वाह्म अलंकार है। दन्तधावन, नखच्छेदन, अलक संवारना आदि आभ्यन्तर हैं तथा स्नान धूप विलेपनादि वाह्माभ्यन्तर है।1
अलंकार वाह्म आभ्यन्तर अथवा वाह्माभ्यन्तर-किसी भी स्थिति में हों वे काव्य को चारूतर बनाने में उपयोगी उपादान सिद्ध हों तो अलंकार हैं अन्यथा वे कविता का कलंक मात्र बनते हैं। अलंकार की सहायता से कवि अपनी भावाभिव्यक्ति को मुजुलतर बनाने में सफल होता है।2 अलंकार काव्य के अन्तः पक्ष को अधिक श्रीमन्त बनाते हैं- रस-निष्पत्ति में तथा काव्य को रसमय बनाने में अलंकारों का महत्वपूर्ण योग हो सकता है। साहित्य दर्पणकार षब्द और अर्थ के अस्थिर धर्म को अलंकार मानते हैं। उनके विचार से अलंकार रसादिकों से उपकारी होते हैं। वे काव्य के आभूषण के रूप् में उसकी षोभा वृद्धि करते हैं 3, वाणी को अलंकृत करनेवाले विषिष्ट धर्म ही अलंकार कहलाते हैं 4 । अलंकारों की इसी विषेषता के कारण चन्द्रालोककार को काव्य में अलंकार का नितान्त अभाव खटका होगा और इसी भावावेष में वे कह गये होंगे-
अंगीकरोति यः काव्यं षब्दार्थवनलंकृती।
असौ न मन्यते कस्मादनुष्णामनलंकृती।।
चन्द्रलोक-1-2
जिस प्रकार षरीर के भूषण भार न बनकर सम्भार बनकर आयें तो षरीर के साथ ही वे भी प्रिय लगते हैं-षरीर अधिकाधिक कमनीय बन जाता है, उसी प्रकार अलंकार वाणी का गौरव बनें तो कविता-कामिनी के कंठ का हार हैं अन्यथा दुर्वह भार एवं सौन्दर्यापहारी विकार हैं।
1-अलंकाराश्र त्रिधा-वाह्मः, अभ्यन्तराः वाह्मभ्यन्तराष्च। तेषु वाह्मा-वस्त्र-माल्य-
आधुनिक हिन्दी कवियों ने अलंकारों का अतीव स्वाभाविक प्रयोग कर निस्सन्देह उनकी इयत्ता को प्रषस्त किया है तथा अलंकार सम्न्बधी इस विष्वास परम्परा को जीवित बनाये रखा है कि अलंकार काव्य रचना को सौष्ठ प्रदान करते हैं। आधुनिक हिन्दी कविता का कलापक्ष अपनी ऐसी नैसर्गिक छटा में प्रकट हुआ हैकि वह काव्य षास्त्र की दृष्टि से कविता का बहिरंग न रह कर उसका अन्तरंग बन गया है। कहना चाहिए कि काव्य की रूप-सज्जा के यत्न-साध्य कृत्रिम विधान आधुनिक हिंदी कविता में मन्द पड़ गये हैं फिर भी कविता कला-विकल नहीं होने पाई। अलंकार भावाीिाव्यंजना में साधक हों तो उनके प्रयोग में आधुनिक कवि को कोई आपत्ति नहीं है और यदि भावषालीनता में अलंकारों के कारण विकृति उत्पन्न हो रही हो तो कवि की वाणी को अलंकार की किचित् अपेक्षा नहीं:-
तुम बहन कर सको जन मन में मेरे विचार
वाणी मेरी चाहिये तुम्हें क्या अलंकार
विभूषणादय:, आभ्यन्तरा:-दन्त परिकर्म-नखच्छेद-अलक कल्पनादयाः। वाह्माभ्यन्तराः- स्नान धूप - ( विलेपनादय:)
2ण् श्ज्ीम निदबजपवद व ि।संदांतं पे जव ीपहीजमद जीम मििमबज पज पे जव ंपक जीम चवमज जव ेंल उवतम चंपदजमकसलण् ॅीमजीमत जीम चवमज मगंसजे वत कवमे जीम वचचवेपजमए ।संदांत पे जव ीमसच ीपउण्
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3 - षबदार्थयोरस्थिरा से धर्माः षोभातिषायिनः
श्रसादी नुपकुर्वन्तोऽलंकारास्ते ऽङ्गदादिवत्।।
साहित्यदर्पण दषम परिच्छेद ष्लोक 1
4ण् प्ज पे ंसेव नेमक श्पद तमसंजपवद जव जीम ।संदांत ैींेजतं वत जीम ैबपमदबम व िकमबवतंजपवद व िेचममबी सपजमतंतल मउइमससपेीउमदजेण्श्
भ्पेजवतल व िैंदेातपज स्पजमतंजनतम
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आधुनिक हिंदी काव्य में रचना षैली की दो परम्परायें उपलब्ध होती हैं। एक श्रीधर पाठक और मैथिलीषरण गुपत की परम्परा और दूसरी प्रसाद और निराला की परम्परा। हम आधुनिक काव्य की प्रंाचीन धारा जिसका उन्नयन भारतेन्दु हरिष्चन्द्र द्वारा हुआ-उसको अपने विवेचन से अलग रखेंगे क्योंकि उस समय हिंदी खड़ी बोली का काव्य अपनी प्रारम्ीिाक निर्माण-अवस्था में था। अीिाव्यक्ति का कलात्मक गौरव खड़ी बोली के काव्य को तब तक प्राप्त नहीं हुआ था।
अलंकार षास्त्र के आचार्यों ने अलंकारों को दो श्रेणियों में विभक्त किया है। षब्दालंकार तथा अर्थालंकार। जहाँ षब्द के प्रयोग में चमत्कार हो अथवा सौंदर्य हो वहाँ षबदालंकार तथा जहाँ अर्थ वैचित्र्यअथवा चमत्कार लक्षित हो वह अर्थालंकार है। जहाँ षब्द और अर्थ दोनों में वैचित्र्य हो वहाँ उभयालंकार होता है। आधुनिक हिंदी काव्य में अलंकारों की स्वाभाविक योजना की गई है- अनावष्यक रूप् से प्रयत्नपूर्वक ऐसे अलंकारों का समावेष नहीं किया गया जो अर्थबोध में योग देने के स्थान पर अर्थ बाधा उपस्थित करें। आधुनिक हिन्दी कवियों ने काव्य की व्यतीत पद्धति, रचना प्रक्रिया की पुरातन परम्परा, रूढ़ छनद पद्धति, कृत्रिम उक्ति वैचित्र्य तथा मिथ्या षब्दक्रीड़ा का व्यामोह त्यागकर षब्द की स्वस्थ अर्थव्यजंना तथा अनुभूति की प्रकृत अभिव्यक्ति को अपनी रचनाओं में विषेष आश्रय दिया। यही कारण है कि इन कवियों के काव्य में षब्दालंकारों की बहुत कम योजना हुई है। ये कवि षबद के खिलवाड़ पर विष्वास न कर ीााव की व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति पर आस्था रखते हैं। यत्र-तत्र अनुप्रास और ष्लेष के कतिपय उदाहरण जो प्राप्त भी होते हैं उनका प्रयोग यत्नज से अधिक स्वाभाविक है। अर्थालंकारों में उपमा, रूपक, अपहृति, विभावना, विषेषोक्ति, अर्थानतरन्यास, अनन्वय, व्यतिरेक आदि अलंकारों द्वारा भाव सौन्दर्यसरित् को अव्याहत प्रवाहित होने देना चाहते थे - उसमें अर्थ दुरूहता के आवर्त उत्पन्न कर पाठक की सहृदयता को डुबा कर उसे ‘रूष्ट’ अथवा नष्ट नहीं करना चाहते थे। निष्कर्ष रूप् में हम कह सकते हैं कि आधुनिक कवियों ने कविता को समस्त षास्त्रीय जटिल बन्धनों से मुक्त किया। अलंकारों को जहाँ उनहोंने स्थान भी दिया है वह अर्थ-सौन्दर्य में या तो वृद्धि करने के लिये अथवा अर्थ-क्लेष के प्रषमन के लिये-काव्य षास्त्रीय पाणिडत्य प्रदर्षन के लिये तो किसी भी दषा में नहीं।
अब हम आधुनिक हिन्दी काव्य पर अपेक्षित प्रसंगों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुये अलंकार विधान पर विचार करेंगे। यह हम अभी कह चुके हैं कि आधुनिक हिन्दी काव्य में षब्दालंकारों का विषेष महत्व नहीं है। हाँ, कहीं-कहीं अनुप्रास और ष्लेष का प्रयोग जैसे कवि के अनजाने में हुआ है - उनके प्रयोग में कवि का प्रयत्न नहीं दीखता। अतः उनके प्रयोग में भी मिथ्या औपचारिकता नहीं लक्षित होती है। इसके सम्बन्ध में हम उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। अनुप्रास अलंकार के प्रयोग में श्रीधर पाठक, नाथूराम षंकर, हरिऔध, मैथिलीषरण गुप्त, रूपनारायण पांडेय, लोचनप्रसाद पांडेय तािा रामनरेष त्रिपाठीं अलंकार की षास्त्रीय परम्परा के पोषक में प्रतीत होते है। किन्तु जयषंकर प्रसाद निराला, सुमित्रानन्दन पनत, महादेवी वर्मा, दिनकर प्रभृति कवि अलंकार के प्रयोग में भिन्न उद्देष्य से प्रेरित प्रतीत होते हैं। यह इस अलंकार के माध्यम से षब्द-क्रीड़ा न कर षब्द-संगीत को ध्वनित करना चाहते हैं।
अनुप्रास- साधारण अति रहनसहन, मृदु बोल हृदय हरने वाला
मधुर-मधुर मुसक्यान मनोहर मजुज वंष का उजियाला
सीय सुजन सत्कर्म परायण, सौम्य सुषील सुजान
षुद्ध चरित्र उदार प्रकृति षुभ, विद्या बुद्धि निदान
श्रीधर पाठक
पाठक जी की इन पंक्तियों में ‘वृत्यनुप्रास’ अलंकार की योजना हुई है। वृत्यनुप्रास में अनेक व्यंजनों की एक प्रकार की समानता अथवा अनेक व्यंजनों की अनेक बार आवृति या एक वर्ण की एक बार किंवा अनेक बार आवृति होती है। 1 दूसरी पंक्ति में मेंवर्ण का पाँच बार प्रयोग हुआ है। तीसरी पंक्ति में स का छ बार प्रयोग हुआ है। माधुर्य गुण व्यंजक वर्णों की रचना यहाँ हुई है, अतः उपनागरिका वृति के आश्रित वृत्यनुप्रास है। प्रथम पंक्ति में ‘रहन-सहन’ इन दो षब्दों में ‘हन-हन’ मे दो वणों की एक बार समानता है अतः वहाँ पर छेकानुप्रास अलंकार प्रयुक्त हुआ है। 2
हरिऔध जी का वृत्ति अनुप्रास देखिये:-
ध्वनिमयी करके गिरि कन्दरा
कलित कानन केलि निकुंज को
बज उठी मुरली उस काल ही
तरणिजा तट राजित कुंज में
1 - अनेक स्यैकधा सामयमसकृद्वाप्यनेकधा।
एकस्य सकृदप्येष वृत्यनुप्रास उच्यते।।
2 - ‘‘अनेकस्य अर्थात् व्यंजनस्य सकृदेकबारं सादृष्यं देकानुप्रास:’’
मम्मट विरचित काव्यप्रकाष
नवम् उल्लास सूत्र 106 की व्याख्या
प्रस्तुत पद के दूसरे चरण में क वर्ण का कई बार प्रयोग हुआ है - तरणिजा तट में त वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति हुई  है।
श्री मैथिलीषरण गुप्त की अनुप्रास अलंकार योजना किंचित परम्परा-मुक्त दीखती है। वे छेक और वृति इन दोनों अलंकारों का प्रयोग तो करते हैं कितु केवल आवष्यकता की मांग पर वे एक ही वर्ण की निष्प्रयोजन आवृत्ति करने में विष्वास नही करते ; उदाहरणार्थ:-
ऊपर घटा घिरी थी,, नीचे
पुलक कदम्ब खिले थे
झूम झूम रस की रिमझिम में
छोनों हिले मिले थे।
उपर्युक्त पंक्तियों में घ की दो बार आवृत्ति हुई है। इसलिए वृत्यनुप्रास है। झूम-झूम में झ और म की दो-दो वर्णों की एक बार समानता है।
प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी इस अलंकार का प्रयोग उसकी प्राचीन परम्परा में न कर काब्य में नाद सौंदर्य उत्पन्न करने के लिए करते हैं। इन कवियों के विचार से काव्य में षब्द संगीत की सर्जना उसे अत्यन्त प्रभावषाली बना देती है। हम इन चारो कवियों द्वारा प्रयुक्त अनुप्रास अलंकार के उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। इन कवियों में भी अनुप्रास के प्रयोग में प्रसाद और महादेवी एक परम्परा के अन्तर्गत आते हैं तथा निराला और पंत दूसरी परम्परा में। प्रसाद और महादेवी अनुप्रास योजना द्वारा नाद सौंदर्य के माध्यम से रचना को अधिक प्रभावपूर्ण बनाना चाहते हैं - निराला और पंत अनुप्रास की योजना कविता में षब्द संगीत उत्पन्न करने के अभिप्रा से करते हैं। उनकी दृष्टि में संगीत कविता का अनिवार्य तत्व है:-
प्रसाद -
हिमाद्रि तंग श्रृंग से प्रबुद्ध षुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुजज्वला स्वतन्त्रता पुकारती
महादेव - सजल सीमित पुतलियों पर चित्र अमिट असीम का वह
चाह एक अनन्त बसती प्राण किन्तु ससीम सा वह
रजकणों में खेलती किस
विरज विधु की चाँदनी में
निराला - जागो फिर एक बार
प्यारे जगाते हुये हारे सब तारे तुम्हें
अरूणा पंख तरूणा किरण
खड़ी खोलती है द्वार
अथवा
सहृदय समीर जैसे
पोछो प्रिय नयन नीर
षयन षिथिल बाँहें
प्ंात - खेल सस्मित सखियों के साथ
सरल षैषव लहरों में लीन
ल्हर
ही सी कोमल लघु भार
अथवा
मृदु मंद मंद मंथर मंथर, लघु तरणि हंसिनी भी सुन्दर
इसी प्रसंग में यह कह देना अनुचित न होगा कि आधुनिक हिन्दी कवियों में विषेषतः प्रसाद, पंत, महादेव और निराला षब्दालंकारों को विषेष महत्व नहीं देते। उनकी दृष्टि में षबदालंकार भाव की विषद अभिव्यक्ति में प्रायः सहायक नहीं होते। समान वणों वाले षब्दों के प्रयोग से कवि की करामात भले ही प्रकट हो। हामारे आधुनिक कवियों ने काव्य के ध्वन्यात्मक पक्ष पर विषेष दृष्टि रखी है। अभिधा, लक्षण और व्यंजना में लक्षण तथा व्यंजना को प्रश्रय दिया है। उक्तिवैचित्र्य पर इन कवियों की विषेष आस्था रही है। भाव का षक्तिपूर्ण अभिव्यंजन इनका प्रधान लक्ष्य रहा।
आधुनिक कवियों ने अर्थालंकारों को उक्ति-वैचित्र्य रचना में सहायक माना है। काव्य-षास्त्र के प्राचीन आचार्यों ने भी अर्थालंकारों का महत्व एवं प्रधानता स्वीकार की है।1 अर्थालंकारों में उपमा को आचार्यों ने षिरोरत्न माना है। 2 उपमा ही वह अलंकारा है जिसमें अनेकानेक अलंकारों को जन्म देने की षक्ति है। अलंकार का तात्पर्य
1- अलङ् करणमर्थनामर्थालंकारइष्यते
त्ंविना षब्द सौंदर्यमपि नास्वि मनोहरम्
अग्निपुराण 34411
वैचितय है और उपमा समस्त वैचित्र्य बीजभूत है।1 उपमेयोषमा, अनन्वय, प्रतीक, रूपक, स्मरण, भ्रान्तिमान, संदेह, अपहुति, उत्प्रेक्षा, अतिषयोक्ति, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, द्यष्टान्त, निदर्षना, ग्यतिरेक, सहोक्ति, समासोक्ति प्रभृति नाना अलंकारों की जननी उपमा ही है। उपमा अलंकार का लक्षण निर्देष मम्मटाचार्य इस प्रकार करते हैं-
साधम्र्यमुपमा भेदे 2
अर्थात् दो भिन्न-भिन्न पदार्थों के साधम्र्य ( गुण क्रिया रूप् में समान धर्म होना ) को उपमा कहते हैं। उपमा के दो भेद माने गये हैं। पूर्णोपमा तथा लुप्तोपमा। जिसमें उपभेय, उपमान, साधारण धर्म तथा उपमावाचक पद विद्यमान हों वह पूर्णोपमा कहलाती है तथा जिसमें किसी एक का अभाव हो वह लुप्तोपमा होती है। इसके नाना भेदों, प्रभेदों की कल्पना आचार्यों द्वारा की गई है।
आधुनिक हिन्दी काव्य की प्राचीन और नवीन दोनों धाराओं के कवियों ने उपमालंकार का सर्वत्र प्रयोगकिया है। उपमा और रूपक अलंकार के प्रयोग की दृष्टि से आधुनिक हिन्दी कवियों के दो वर्ग स्पष्ट लक्षित होते हैं। एक वर्ग उपमा का अधिक प्रयोग करता है, दूसरा रूपक का प्रयोग अधिक करता है। श्रीधर पाठक, हरिऔध, मैथिलीषरण गुप्त, रामनरेष त्रिपाठी उपमालंकार गदी कवि माने जा सकते हैं। प्रसाद, पंत, महादेवी और निराला रूपकालंकारवादी कवियों की श्रेणी में आते हैं। प्रसाद, पंत, महादेवी और निराला रूपकालंकारवादी कवियों की श्रेणी में आते हैं। उक्त दोनों अलंकारों के उदाहरण प्रस्तुत करने के पूर्व हम रूपक अलंकार की संक्षिप्त व्याख्या करना आवष्यक समझते हैं।
तद्रू पकमभेदोय उपमानोपभेदयो:
- मम्मट
अर्थात् उपमान और उपमेय का अभेदारोप ( अभिन्नता ) करके वर्णन किया जाय तो रूपक की योजना होती है। यहाँ अभेद का आषय यह है कि उपमान तथा उपमेय के परस्पर एक दूसरे के अत्यन्त सदृष होने से जब उनके परस्पर भेद का ज्ञान छिप जाय
1 - उपमैवानेक प्रकार वैचित्र्येणानेकालंकार बीजभूतेति प्रथमं निर्दिष्टा।
रूपक: अलंकार सर्वस्व
2 - काव्यप्रकाष, दषम उल्लास सूत्र 125
तथा वे अभिन्न से प्रतीत होने लगें। 1 इन दोनों अलंकारों के तीन मुख्य भेद होते हैं- सांग, निरंग और परम्परित 2। इनके भी क्रमषः दो-दो और चार प्रभेद होते हैं। उपमेय का सावयव रूपक सांग रूपक माना जाता है। अवयव रहित उपमेय का उपमान से तादात्मयारोप निरंग रूपक कहलाता है। एक के तादात्म्यारोप के कारण अन्य के तदात्म्यारोप को परम्परित रूपक कहते हैं। सर्वप्रथम हम आधुनिक हिन्दी काव्य की उपमा और रूपक अलंकार योजना पर विचार करेंगे।
श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय की रचनाओं में प्रायः पूर्णोपमा के उदाहरण मिलते हैं- साथ ही हम यह भी देखते हैं कि वे पद के दो-दो चरणों में उपमालंकार की योजना करते हैं और कभी-कभी एक उपमेय के लिये दो उपमान प्रस्तुत करते हैं:-
हो जाती रजनि मलिना ज्यों कलानाथ डूबे,
वाटी षोभा रहित बनती ज्यों वसनतान्त में है।
त्यों ही
प्यारे विधु वदन की कान्ति से वंचित हो,
श्री हीना औ मलिन व्रज की मेदिनी हो गई है।
जब कि मैथिलीषरण जी दो उपमेयों के लिए दो पृथक उपमान प्रस्तुत करते हुए भी दोनों में परस्पर सम्बन्ध प्रदर्षित करने की चेष्टा करते हैं। -
सखि, वसन्त में कहाँ गये वे,
मैं ऊष्मा सी यहाँ रही।
इन पंक्तियों में प्रिय के लिये वसन्त का उपमान है तथा प्रिया के लिए ऊष्मा का उपमान है - यहाँ पर उपमान और उपमेय में लिंगानुरूपता का ध्यान भी रखा गया है। दो उपमेयों के उपमानों में यहाँ सम्बन्ध यह है कि वसन्त के व्यतीत हो जाने पर ग्रीष्म रह जाता है। वसन्त के गीत जाने पर ज्वाला ही षेष रह जाती है-प्रिय वसन्त के चले जाने पर प्रिया ऊष्मा रूप् जलने के लिये रह जाती है। इस प्रकार के दो पृथक् उपमानों में सम्बन्ध स्थापना का गुप्त जी के जैसा सफल प्रयास अन्य कवियों ने नहीं किया।
मैथिलीषरण जी ने रूपकालंकार की भी अत्यन्त सफल योजना की है-
मैं पली पक्षिणी विपिन कुंज-पिंजर की
आती है कोटर-सदृष मुझे सुध घर की
1 - अति साम्यादपहुत भेदयो: अभेद:
काव्य प्रकाष के सूत्र 139 की वृत्ति
2 - तत्परम्परित साङ्गमिति च त्रिधा
साहित्य दर्पण 10 - 12
मृदु तीक्षण वेदना एक-एक अन्तर भी
बन जाती है कल गीति समय के स्वर की
कब उसे छेड़ यह कंठ कभी न अघाया
मेरी कुटिया में राजभवन मन भाया।
यहाँ पर एक देष विवर्ति सावयव रूपक का लक्षण है। उपभेय में उपमान के कुछ अवयवों का आरोप किया गया है। कुछ स्वतः सम्बन्ध से ज्ञात हो जाता है, विपिन कुंज के पिंजर में पले पक्षी की सीता में अरोप किया गया है। कोटर सदृष घर में उपमा अलंकार है। वनवासिनी सीता की अन्य स्थितियों का अनुमान पिंजड़े में पले पक्षी की सुख-दुख की स्थितियों के आधार पर अपने आप होजाता है।
प््रासाद जी रूपक योजना में अत्यनत सिद्धहस्त हैं। आधुनिक हिन्दी काव्य की नई धारा के प्रायः सभी कवि रूपक योजना में अत्यन्त कुषल हैं। उसका कारण यह है कि उपमा अलंकार का कार्य भी वे रूपक से लेना चाहते हैं। यह भी ठीक ही है कि उपमालंकार में कवि का वह प्रयोग फौषल और ऊँचाई नहीं प्रकट होती जो रूपक योजना में रूपकालंकार में कवित्वमयता अपने श्रेष्ठतम रूप् में उपस्थित होती है।
बीती विभावरी जाग री
अम्बर पनघट में डुबों रही तारा घट ऊषा नागरी
खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा
किसलय का अंचल डोल रहा
लो वह लतिका भी भर लाई मधु मुकुल नवल रस गागरी
उपर्युक्त पंक्तियों में प्रसाद जी पनघट का रूपक प्रस्तुत करते हैं। यहाँ आकाष पनघट है, नागरी ऊषा पनिहारी है, नक्षत्र घड़ा है, नक्षत्रों का प्रभात में डूबना ही घड़े का कूप में डूबना है, पक्षियों का कल नाद ही घड़े के डूबने का कुल-कुल षब्द है, किसलय ही पनिहारी का हिलता हुआ अंचल है। उसी समय एक लता मकरन्द भरे प्रसून का रसगागर भर लाई दिखायी जाती है। कवि लता को बाला का परम्परागत उपमान बनाते आये हैं। जिस प्रकार एक बाला के कुएँ पर पानी भरते समय अन्य स्त्रियाँ भी पानी भरने को आती या भर कर जाती देखी जाती हैं, उसी प्रकार उषा के तारा के भरते समय यहाँ लतिका बाला द्वारा प्रसून घट जिसमें मकरन्द रूप् जल भरा है - भर लिया गया दिखाया गया है। यहाँ पर रूपक अलंकार के समस्त अवयव विद्यमान हैं, अतः समस्त वस्तु विषय सावयव रूपक अलंकार की सफल योजना हुई है।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि रूपक की जैसी सिद्ध योजना आधुनिक हिन्दी कवियों विषेष्तः प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी ने की है वैसी अन्य कवियों ने नहीं।
निराला जी की रचना में जुही की कली पर तरूणी का अभेद रूपक तथा पावन में विरह-विधुर
नायिका का अभेदारोप देखिये।
विजन वन बल्लरी पर
स्रोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न-
अमल कोमल तनु तरूणी-जुही की कली
दृग बन्द किये, षिथिल-पत्रांक में
वासन्ती निषा थी।
विरह-विधुर प्रियासंग छोड़
किस दूर देष में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल,
आई याद विछुड़न से मिलन की वह मधुर बात
आई याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात
आई याद कान्ता की कम्पित कमनीय गत
फिर क्या ? पवन
उपवन सर सरित गहन गिरि कानन
कुन्ज लता पुंजों को पार कर
पहुँचा जहाँ उसने की वेलि
कली खिली साथ।
महादेवीजी की रूपक योजना का एक उदाहरण देखिये
या वसन्त रजनी
तरक मय नव वेणी बन्धन
षीषा फूल का षषि का नूतन
रष्मि वलय सित धन अवगुण्ठन
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे
चितवन से अपनी
पुलकती आ वसन्त रजनी
इन पंक्तियों में वसन्त रजनी को अभिसारिका तरूणी का रूप् प्रदान किया गया है। तारकग्रथित रजनी का वेणी बन्धन है, चनद्रमा का षीषफूल अथवा षिरोमणि है किरणों का कंकण है, काले-काले बादलों का घूँघट है, नक्षत्रों का उदित हो जाना नायिका की दृष्टि द्वारा विध जाने वाली मुक्तायें है, यहाँ पर समस्त विषयक सावयक अभेद रूपक है।
प्रसादजी कामायनी में रजनी को अभिसारिका के रूप् में चित्रित करते हुए कहते हैं -
किस दिगंत रेखा में इतनी संचित कर सिसकी सी,, साँस
यो समीर मिस हाँफ रही सी, चली जा रही किसके पास
घूँघट उठा देख मुसक्याती, किसे ठिठकती सी आती
बिजन गगन में किसी भूल सी’ किसको स्मृति पथ में लाती
फटा हुआ था नील वसन कया, औ यौवन की मतवाली
छेख अकिंचन जगत् लूटता, तेरी छवि भोली भाली
किन्तु प्रसादजी के इस वर्णन में एक देष विवर्ति सावयव रूपक है। इसमें रूपक के समस्त धम्र विद्यमान नहीं हैं जबकि महादेवीजी की रजनी नायिका तरूणी की समस्त रूप-सज्जा से सम्पन्न है।
एक निरवयव रूपक का उदाहरण देकर हम उपमा और रूपक
के प्रकरण को समाप्त करेंगे। श्री दिनकर दिल्ली नगरी को कुलटा परकीया नायिका के रूप् में चित्रित करते हैं:-
अपने ही पति की समाधि पर
कुलटे तू छवि से इतराती
परदेषी संग गलबाँही दे
मनमें है फूली न समाती
दो दि नही के बाल डांस में
नाच हुई थे पानी दिल्ली
कैसी यह निर्लज्जा नम्रता
यह कैसी नादानी दिल्ली
यहाँ पर दिल्ली को परकीय रूप् में प्रस्तुत करके भी कवि ने उसे परकीया के समस्त लक्षणों से सम्पनन नहीं बनाया-पाठक को कुलटा परकीया की विषेषताओं का अपनी ओर से आरोप करना पड़ता है। इसीलिये यहाँ निरवय ( निरंग ) रूपक है।
यह हम कह चुके हैं कि उपमा अनेकानेक अलंकारों की जननी है। रूपक उसका ज्येष्ठ पुत्र माना जा सकता है। दोनों का परिचय हमने यहाँ कुछ व्योरे से देने की चेष्टा की है। आगे-हम आधुनिक हिंदी काव्य से कुछ अलंकारों के स्फुट उदाहरण प्रस्तुत करेंगे, तथा यह सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे कि आधुनिक हिंदी काव्य में अलंकारों का प्रयोग नहीं, आवष्यकतानुसार उपयोग किया गया है-भाव-व्यंजना में सौनदर्य-बर्द्धन के लिये आधुनिक कवि प्रायः अलंकार ध्वनि का आश्रय लेते हैं ; किंतु रीतिकालीन कवियों की भाँति अलंकारों की न तो प्रदर्षनी लगाई है और न सनत कवियों की भाँति अलंकारों को सर्वथा बहिष्कृत करके कविता को नीरस ही बनाया गया। अन्यान्य अलंकारों के उदाहरण प्रस्तुत करने से पूर्व हम यह साहसपूर्वक कह सकते हैं कि आधुनिक हिन्दी काव्य में उपमा-उससे भी अधिक रूपक अलंकार की योजना प्राप्त होती है। अन्य अलंकारों में इन कवियों की विषेष आस्था नहीं- करण यही हो सकता है कि अन्य अलंकारों की योजना तब तक नहीं हो सकती जब तक कवि स्वयं उसके लिए कुछ यत्न और उद्योग न करें। उपमा और रूपक तो स्वभावतः अनाहूत जैसे काव्य सौंदर्यवर्द्धन लिये दौड़े चले आते है।
मीलितः- जहाँ पर किसी समान लक्षणवाली वस्तु से क्रिसी दूसरी वस्तु के गोपन का वैचित्र्य हो वहाँ मीलित अलंकार होता है। 1
प्रसादजी नायिका के सौन्दर्य का चित्रण करते हुये चन्द्रगुप्त नाटक में कहते हैं-
त्ुाम कनक किरण के अन्तराल में लुक छिपकर चलते हो क्यों
हे लाज भरे सौनदर्य बता दो मौन बने रहते हो क्यों
यहाँ पर नायिका की सुनहली कांति को कनक-कांति में निमज्जित दिखाया गया है। कनक कान्ति तथा कामिनी की कान्ति समान लक्षण वाली है अतः दोनों का एकमेक लय स्वाभाविक है।
त्ुलसी ने मीलित अलंकार का इस रूप् में प्रयोग किया है -
च्ंापक हरवा अंग मिलि अधिक, सुहाइ ।
जनि परै सिय हियरे जब कुंभिलाइ।।
यहाँ पर चम्पा का रंग तथा सीता का गौर रंग सम लक्षण हैं।

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