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Tuesday, October 4, 2011

अरगला



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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका
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अनुसृजन

नीलाभ अश्क

अनिल पु. कवीन्द्र द्वारा नीलाभ अश्क का साक्षात्कार

अनिल पु. कवीन्द्र: कविता का अनुवाद एक कलात्मक विधा 'प्लास्टर ऑफ पेरिस' की तरह रूपांतरण है या कलात्मक सृजन है?
नीलाभ अश्क: असल में बात यह है कि, श्रीकांत वर्मा ने, वाज़्नेसेंस्की जो एक रूसी कवि हैं, उनकी कविताओं का अनुवाद किया था, 'फैसले का दिन' के नाम से. उसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि अनुवाद में पुनर्रचना के दौरान कविता नष्ट होती है. ये कथन थोड़ा अतिवादी सा लग सकता है लेकिन जाहिर है कि अनुवाद एक बहुत पेचीदा सा मामला है क्योंकि आपको एक दूसरी भाषा ही नहीं बल्कि दूसरी भाषा से जुड़े तमाम वे तत्व हैं जो कि चाहे वो लोगों का रहन-सहन या कि खानपान हो या कि उनकी कुछ खास बाते हों. एक तो उनकी जानकारी होनी बहुत जरूरी होती है. कई बार ठीक हूबहू वैसे ही चीज अपनी जबान में नहीं मिलती तो इसलिए जिसे मैं कहता हूँ - 'एस्से इन एप्रोक्सिमेशन' यानि कि जिसको कहें लगभग के करीब लाने की बात हो सकती है. भावार्थ हो सकता है लेकिन कई बार उनके यहाँ जो मुहावरा है वो शायद आप ला नहीं सकते. दूसरी चीज यह है कि जिस भाषा में आप अनुवाद कर रहे हों वो आपकी अपनी भाषा होनी चाहिए. मैं मानता हूँ कि ये एक बुनियादी जरूरत है. जिस भाषा से आप अनुवाद कर रहे हैं वो आपकी अपनी नहीं भी होगी तो चल जाएगा. लेकिन जिस भाषा में आप अनुवाद कर रहे हैं, वो आपकी अपनी होनी चाहिए.
हिंदी में परंपरा अंग्रेज़ी के माध्यम से अनुवाद करने की रही है. चाहे वह रूसी कविता हो, स्पेनिश कविता हो, या जर्मन कविता हो, चाहे लैटिन अमेरिकन कविता हो. ज्यादातर लोगों और मैंने भी जो अनुवाद किया है अंग्रज़ी के माध्यम से किया है. पहले कविताएँ अंग्रेज़ी में आईं, फिर वहाँ से हिंदी में आईं. ये अलग बात है कि उन कविताओं को अनुवाद करने के लिए मुझे कोई खास संदर्भ देखना पड़ा हो जिंदगी का, जिस क्षेत्र से वो आईं हैं तो वह हमने देख लिया. इस पर बहुत लोगों ने ऐतराज किया और हमारे मित्र प्रभाती नौटियाल जो बड़े जाने माने अनुवादक हैं या फिर वरयाम सिंह दोनों जे. एन. यू से जुड़े रहे हैं, ये लोग मूल भाषाओं से अनुवाद करते रहे हैं. लेकिन क्या कारण है कि उनके अनुवाद उतने लोक प्रचलित नहीं होते. मैं ये जानना चाहता हूँ, मतलब क्यों उनके अनुवादों में वो जान नहीं है. या तो उसकी वजह है कि वे खुद कवि नहीं हैं, उनको भाषा जरूर आती है लेकिन भाषा ज्ञान एक अच्छा अनुवादक बनने के लिए काफी नहीं है. आप भाषा ज्ञानी भी हों और आप अच्छे कवि भी हों क्योंकि मेरे पास जो अनुवाद की जो बहुत सी किताबें हैं जो अंग्रेज़ी में जिन लोगों अनूदित किया है उसमें आडेन जैसे लोग एज़रा पाउण्ड है जो जाने माने कवि हैं, जब वो अनुवाद करते हैं तो बहैसियत कवि ही हैं. इसलिए कवि होना एक पहली शर्त है. अगर आप कवि नहीं है और उस भाषा को आप जानते हैं और महज उस भाषा को जानते हैं इसलिए आप अच्छा अनुवाद नहीं कर सकते. अगर अच्छे कवि हैं या सिर्फ कवि हैं तो आप अंग्रेज़ी के माध्यम से भी अनुवाद कर देंगे.
एज़रा पाउण्ड के संग्रह में एक काली मोहन घोष द्वारा अंग्रेज़ी में अनूदित कबीर के अनुवाद की पुनर्रचना देखी, यानि काली मोहन घोष कोई सज्जन रहे होंगे, उन्होंने कबीर की एक रचना को अंग्रेज़ी में अनुवाद किया होगा. उनकी दृष्टि उन पर पड़ी, जाहिर है काली मोहन घोष ने कोशिश की होगी ज्यादा से ज्यादा कबीर के नज़दीक रहें. एज़रा पाउण्ड को लगा होगा कि नहीं इसका भाव बहुत अच्छा है इसकी पुनर्रचना करके एक बेहतर कविता बनाई जा सकती है. एज़रा पाउण्ड ने उसे पुनर्रचित कर दिया. और नाम दे दिया 'बेस्ड ऑन ए ट्रांसलेशन आफ़ कबीर' द्वारा काली मोहन घोष. यह बाक़ायदा छपी है. इसी तरह से एज़रा पाउण्ड ने बहुत सारा अनुवाद जापानी और चीनी कविताओं का किया है जबकि एज़रा पाउण्ड को चीनी नहीं आती थी. एर्नेस्ट फ्रांसिस्को फेनोलोसा करके एक सज्जन थे जिन्होंने उनकी कविताओं का अंग्रेज़ी का अनुवाद किया था और फिर उसके आधार पर एज़रा पाउण्ड ने उसकी पुनर्रचना की थी और वो अनुवाद एज़रा पाउण्ड के बहुत ही जाने माने और बहुत स्वीकृत अनुवाद हैं. तो इस तरह से, अगर आप को भाषा आती है और आप कवि हैं तो सोने में सुहागा वाली बात है लेकिन कम से कम आपका कवि होना जरूरी है, फिर आप चाहे अंग्रेज़ी से ही क्यों न अनुवाद करें.
अनिल पु. कवीन्द्र: मूल भाषा का जो कल्चर (संस्कृति) है, जो सोसाइटी (समाज) है अगर उसका हमें नॉलेज (ज्ञान) न हो और केवल लैंग्वेज (भाषा) का नॉलेज हो, तो क्या उसके आधार पर अनुवाद संभव है?
नीलाभ अश्क: लैंग्वेज का अगर आपको नॉलेज होगा तो आपको धीरे-धीरे उसकी संस्कृति का नॉलेज होगा. जैसे, मुझको बंगाल का नॉलेज है और मुझे बंगला भाषा भी थोड़ी-थोड़ी आती है तो मैंने अटक-अटक के ही सही, जीवनानंद दास की कविताएँ बंगला में पढ़ीं फिर उनका अनुवाद किया. उसमें एक-आध शब्द ऐसा फँस गया जो मुझे नहीं समझ में आता था तो उसके बारे में मैंने लोगों से पूछा कि यह क्या है. जैसे पूर्वी बंगाल की कुछ जगहों का जिक्र है तो वह पता करने से पता चल जाता है. वह पूरा स्ट्रक्चर है जीवनानंद दास का, जो उसको पूर्वी बंगाल के बारे में कोई नहीं है. आपको तो समझ नहीं आएगा कि सीरीस की डालों में चाँद के अटकने की बात क्या है, यह बात वो कैसे करते हैं. खेतों के खलिहानों के और वहाँ के पूरे प्राकृतिक दृश्य की बात करते हैं तो वो कैसे करते हैं. जैसे पंजाबी की ही बात लें, क्योंकि पंजाबी मेरी मातृ भाषा है, इससे मुझे कोई दिक्कत नहीं होती, तो वहाँ का कल्चर हमें पता है. तो अगर लैटिन अमरीका का कोई देश है और उसका कोई कल्चर हमें नहीं मालूम तो मैं कोशिश करूँगा कि अंग्रेज़ी से भी अनुवाद कर रहा हूँ तो उस देश के बारे में कम से कम कुछ जानकारी होनी चाहिए.
अनिल पु. कवीन्द्र: कवि कर्म के अलावा आपने कुछ महत्वपूर्ण अनुवाद भी किए हैं. जनता की चित्तवृत्तियों को अनुवादक किस सीमा तक संपृक्त करने में सक्षम होता है. क्या अनुवादक में कहीं न कहीं आत्म या स्व का भाव छिपा होता है?
नीलाभ अश्क: अब इसके बारे में मैं क्या बताऊँ, एक अनुवादक के तौर पर, अनुवादक पढ़ता है कुछ कविताएँ पाठक के लिए, तब वह अनुवाद नहीं कर रहा होता है. अनुवादक सबसे पहले तो यह कार्य अपने लिए करता है. श्रीकंस वाइक, एक बहुत मशहूर जर्मन लेखक हैं और उन्होंने एक जगह लिखा है कि एक पूरा पीरियड था मेरी जिंदगी का, ऐसा अरसा था वो जिसमें मैं बहुत काम नहीं कर पा रहा था, तो उस दौरान मैंने बहुत अनुवाद किये, उससे मुझे खुद अपनी भाषा को बेहतर तौर पर जानने में मदद मिली. तो कई बार अनुवाद आप इसलिए भी करते हैं कि आप खुद अपनी भाषा का पुनार्विष्कार करते हैं, परख सकें, और उसको पुन: आविष्कृत कर सकें, उसको तरोताजा कर सकें. तो कई बार अनुवाद इसलिए भी लोग करते हैं ताकि आप अपनी भाषा का पुनार्विष्कार कर सकें. फिर अगर लोगों को पसंद आता है तो यह बड़ी अच्छी बात है. अंततोगत्वा, फर्ज कीजिए, किसी एक कवि की कोई एक रचना पाँच कवियों को दे दें, कि आप इसका अनुवाद करें तो ये संभव है कि पाँचों के अलग-अलग प्रारूप होंगे, क्योंकि उनकी अपनी काव्य संवेदना, उनका अपना काव्य कर्म, कवि कौशल उसमें जाएगा. तो वह दूसरे की कविता को अपने अंदर से गुजार कर सामने पेश करने की बात करते हैं. रहेगी वो दूसरे की ही कविता. आप उसको अपनी कविता तो नहीं कहने जायेंगे, इसलिए अनुवाद में इस बात का भी पूरा अंश रहता ही है.
अनिल पु. कवीन्द्र: अनुवाद कर्म में स्वतंत्रता की सीमा का मानक क्या है? एक अनुवादक कविता के अनुवाद में किस सीमा तक यह छूट लेते हुए अनुसृजन करता है, उसमें कविता की मौलिकता का हनन होते हुए भी, क्या अस्तित्व बना रह सकता है?
नीलाभ अश्क: यह बहुत ही टेढ़ा प्रश्न है, यह अंततोगत्वा जो अनुवाद कर रहा है, उस कवि अनुवादक के विवेक पर निर्भर करता है, क्योंकि अगर आप शब्द दर शब्द अनुवाद करते हैं तो कई बार कविता इतनी खराब हो जाएगी कि वो पढ़ने के काबिल भी न रह पाएगी. क्योंकि कुछ मुहावरे ऐसे होते हैं जो भाषा के ही मुहावरे होते हैं, तो उनका बिल्कुल हूबहू अनुवाद करना संभव नहीं होता उसके लिए फिर मैंने आपको कहा जैसा कि ऐप्रोक्सिमेट या नजदीक जाने की कोशिश होनी चाहिए. पूरे तौर पर देखना चाहिए कि जो कविता है, उसकी संवेदना, उसका भाव बहुत न बदल जाए. थोड़ा बहुत तो बदलेगा ही. लेकिन बहुत न बदल जाए. और अगर आप ऐसा कर ले जाते हैं तो थोड़ी बहुत छूट ले भी सकते हैं, क्योंकि पूरी तरह मौलिक होना यानि एक मौलिक अनुवाद हो या मौलिक कविता हो, पूर्ण मौलिक जैसा कि ऐलियट कहते हैं, खराब होती है. जो पूरी तरह मौलिक होती है वो इतनी खराब होती है कि या इतनी मौलिक है कि वो किसी की समझ में नहीं आती, उसका एक अभिप्राय यह भी हो सकता है. आप कविता लेते हैं और उसको फिर से रचते हैं और उसमें थोड़ी बहुत छूट आप लेते ही हैं अब कितनी आप लेते हैं ये आपके विवेक पर निर्भर करता है. इसका मूल्यांकन कौन करेगा? इसका मूल्यांकन तो पाठक ही करेगा, क्योंकि अब लेखक तो है नहीं सामने और कई बार तो लेखक जिंदा भी नहीं होता, इसलिए अंततोगत्वा यह पाठक ही तय करते हैं, फर्ज कीजिए यह मेरा प्रयास ही है, मैंने कहा कि अनुवाद एक प्रयास है.
अनिल पु. कवीन्द्र: नवीनता सदा पुरातनता के गर्भ गृह में, नये समय की प्रतीक्षा में, नयी स्फूर्ति नये आयाम धारण किए आती है, यदि नयी कविता के साथ यह बात लागू होती है तो पुरानी पीढ़ी के काव्य मर्मग्य नई कविता के साथ सामंजस्य क्यों नहीं बना पा रहे हैं, आखिर जिस तरह की परिस्थितियों में नई कविता बनी, वह क्या पुरातनता और नवीनता के बीच, नवचेतना के अस्तित्व बोध और वैयक्तित्व वैशिष्ट्य को स्थायित्व प्रदान करने की थी?
नीलाभ अश्क: देखिए ये दोनों तरह से चलता है. जो पुरानी पीढ़ी के लोग हैं वो नई पीढ़ी से सामंजस्य नहीं बना पा रहे हैं, कई बार नहीं बैठा पाते हैं, तो ये कैसे होता है कि नई पीढ़ी के लोग पुरानी पीढ़ी से सामंजस्य बैठा लेते हैं. मेरा ख्याल है कि इसमें एक दुराग्रह भी कई बार काम करता है. ऐसे बहुत से कवि हैं जो नवकवि की कविता से सामंजस्य बैठा लेते हैं. ऐसे कम ही हैं जो सामंजस्य नहीं बैठा पाते हैं. ये उनका दुराग्रह ही होगा. मैं ऐसा नहीं मान सकता कि अगर हम पुरानी पीढ़ी की कविता समझ सकते हैं, हम उनके अच्छे अंश को सराह सकते हैं तो वह हमारे अच्छे अंश को न सराह पाए. क्योंकि उम्र के फर्क के बावजूद हम समकालीन तो हैं हीं. एक ही काल में जीवित हैं तो ये जो एक बनाया गया है कि पिछड़ी पीढ़ी किसी हद तक, ये काम भी करता है. भाव बदलता है, जमाना बदलता है, जमाने के साथ उसकी जरूरतें बदलती हैं, जमाने के साथ नई रचना भी आती है लेकिन यह कहना कि हम एक दूसरे की रचनाओं को समझ नहीं सकते, एप्रिसीएट (सराहना) नहीं कर सकते, यह मैं नहीं मानता. हमें भी लिखते हुए 30-35 साल हो गए और हम भी जो अच्छे लोगों की रचनाएँ हैं उनको भी सराहते हैं तो ये शुरू शुरू में हथकंडे के तौर पर तो हो सकता है. कुछ ऐसे काव्य मर्मज्ञ हैं रीतिकालीन जो इस तरह की भिन्नता रखते हैं. हाँ हैं जरूर, मैं इस बात से इंकार नहीं करता, पर शायद उन्होंने अपने आपको परिष्कृत नहीं किया है और अगर आप यूँ देखें तो जमाने के लिहाज से वो इस जमाने में जी ही नहीं रहे हैं. हो सकता है अब तक रीतिकाल में ही जी रहे हैं जहाँ बिहारी की नायिकाएँ और कदंब के पेड़ थे. और ये था, वो था.... हो सकता है वो मानसिक तौर पर उससे आगे बढ़ेंगे ही नहीं और अब हम उन लोगों से क्या कह सकते हैं जो मानसिक तौर से आगे नहीं बढ़ सके जबकि दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी है.
अनिल पु. कवीन्द्र: नयी कविता शब्दों का वैचित्रपूर्ण वाग्जाल है, यदि कविता में हृदय का उद्गार नहीं तो कवितापने का अतिक्रमण करती है. छंद के आवरण को तोड़कर कविता आज नग्न रूप में खड़ी है, यह बात कहाँ तक सार्थक है?
नीलाभ अश्क: एक तो पहली बात यह है कि, जिस शब्दावली में यह कहा गया है, वो शब्दावली अपने आप में खारिज कर देने लायक है क्योंकि यह हिंदी की शब्दावली है ही नहीं. मैं नहीं समझता कि जो नयी कविता है, वो हृदय से नहीं निकलती. छंद का शासन होना कोई बहुत जरूरी नहीं है, छंद में लिखा जाए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. बात आप क्या कह रहे हैं ये महत्वपूर्ण है और फिर हम अगर इस प्रश्न पर जाएंगे कि कविता दरासल है क्या, है कि नहीं, क्योंकि छंद में तो अगर आप आयुर्वेद का ग्रंथ लिख दें तो कविता नहीं मानी जाएगी. इसलिए वो मूर्ख हैं जो ऐसा कह रहे हैं कि छंद ही कविता बनाता है. कविता क्या है? जब आप इसको तय कर लेंगे तो आप पायेंगे कि न छंद की जरूरत है और न छंद से हटने की जरूरत है, आप जिस माध्यम से बात कहना चाहें, आप कहिए, कविता क्या है, पहले आपको यह तय करना होगा. ठीक है, तो उन लोगों के लिहाज से तुकबंदी ही कविता है तो अब हृदय की बात की जरूरत नहीं है. तुक मिला दीजिए फिर उसमें हृदय की बात आए न आए यह आग्रह रखना और दुराग्रह रखना कि नहीं छंद वो भी उसी समय का, छंद वो भी जो पिछला चल रहा था उसी में कविता कही जा सकती है. यह मेरे ख्याल से साहित्य को बहुत कम करके आँकने की बात है. साहित्य से मतलब इतनी चीजें हैं.
एक अमरीकन कवि है नीकानोर पाला चीनी, उसकी एक प्रसिद्ध कविता है - 'युवा कवियों के लिये'. उसमें उसने संबोधित किया है कि तुम जिस तरह चाहते हो लिखो, इतना ज्यादा खून बह चुका है नदी में पुल के नीचे इतना पानी बह चुका है, इतनी ज्यादा मारकाट हो चुकी है कि यह कहना बहुत मुश्किल है कि कौन सा रास्ता ज्यादा सही है, बस इतना ख्याल रखो कि ये जो कोरा पन्ना है इसको तुम बेहतर बना सको. तो अगर आपमें इतना माद्दा है कि पन्ने को बेहतर बना दे तो फिर छंद और नछंद की जरूरत ही नहीं है. और यह क्या नग्नता और इतनी नग्नता, इतना सब कुछ तो पहले के साहित्य में भी है, ऐसा नहीं है कि पहले के साहित्य में सब कुछ अच्छा है, यह दुराग्रह है, इसका मतलब है कि आप अपने कपाट, अपनी खिड़कियाँ, अपने गवाक्ष, सब कुछ बंद कर रखे हैं, तो ऐसे लोगों से तो कोई बात ही नहीं हो सकती. और फिर कहा भी गया है कि ऋषिकेश काव्य निवेदनम ना ही करना पड़े तो बेहतर है, तो ऐसे आरिशों के लिए आप काव्य थोड़े ही लिखते हैं, आप तो काव्य लिखते हैं रसिकों के लिए. रसिक कोई भी हो सकता है, एक रिक्शे वाला भी रसिक हो सकता है, आप उसके दिल की बात करेंगे तो वह मानेगा. वो चिंता थोड़े ही करेगा कि आपका तुक बैठा कि नहीं.
अनिल पु. कवीन्द्र: नई कविता में स्त्री की उपस्थिति से जो बदलाव आया है उससे स्त्री चेतना कितना प्रभावित हुई और कविता ने किन प्रतिमानों ने तोड़ा है और क्या कुछ नए प्रतिमान गढ़े गए?
नीलाभ अश्क: ये तो बड़ा लंबा चौड़ा प्रश्न है, यह तो किसी शोध करने वाले का विषय हो सकता है. पहली बात, स्त्री की उपस्थिति से क्या मतलब है कि स्त्री की उपस्थिति ज्यादा बढ़ गयी है या स्त्री लेखन, या जो पुरुष थे उन्होंने स्त्रियों के उपर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना शुरू किया है. ये दो अलग अलग बातें हैं. स्त्रियाँ पहले भी लिखती रहीं हैं, हम उनके बारे में ज्यादा नहीं जानते, हिंदी के लोग बहुत अपढ़, अनपढ़ हैं. उनको अपनी भाषा के बारे में ही नहीं मालूम. मैं आपको ऐसे 10-15 नाम कवियत्रियों के ले सकता हूँ जिनमें तारा पाण्डे, विद्यावती कोकिल, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, चंद्रमुखी ओझा और सुधा, जिन्होंने बहुत अच्छी कविताएँ लिखी हैं पर लोग उनको भूल गए, क्यों? क्योंकि जो आपके अंदर है वो है, चूँकि महादेवी आपको मिल गई, महादेवी जी को आपने स्थापित कर दिया, सुभद्रा कुमारी चौहान मिल गई, सुभद्रा कुमारी चौहान को बाकी अन्य तमाम रूपों में आप नहीं पढ़ते. आप सुभद्रा कुमारी चौहान को वीरों का कैसा हो वसंत कविता के आधार पर पढ़ते और पढ़ाते चल रहे हैं और हिंदी अध्यापकों को यह नहीं लगता कि हम इनकी कविताओं को भी देखें, तो इस तरह का कानापन मौजूद है. क्योंकि अध्यापन तो नहीं, लेकिन एक आँख को बंद रखने की प्रवृति हिंदी वालों मे आ गई.
स्त्रियों की उपस्थिति बढ़ गई हो ऐसी बात नहीं. एक जमाने में वह भी बहुत स्वीकृत थीं, जैसे रामेश्वरी देवी चकोरी, मुझे यह नाम भूल रहा था. ऐसी कवियत्रियाँ जो वाकई में स्वीकृत कवियत्रियाँ थीं, धीरे-धीरे आपने उनको उठा कर ताक में धर दिया और उनका उद्धार तब होगा, जब कोई ऐसा एक आदमी आएगा जिसका अपना स्वार्थ होगा तब वो उनको फिर से पुनर्स्थापित करेगा और जो वो लिख रहीं है. आज भी कवियत्रियों की चेतना में थोड़ा बहुत फर्क तो होगा ही मैं इससे इंकार नहीं करता हूँ. वो लिख रही हैं तो इससे अच्छी बात और क्या है क्योंकि आप यह सोचिए महादेवी जी ने 1935 में चाँद के संपादकीय लिखे हैं जो बहुत ही अच्छे हैं, जो शृंखला की कड़ियों में संकलित हैं. वो अपने जमाने के हिसाब से बहुत ही क्रांतिकारी लेख थे. और उतनी क्रांतिकारिता तो आपको आज की स्त्रियों में भी नहीं दिखती. तो स्त्रियों के आने से दुनिया का दूसरा पहलू हमारे सामने जरूर आया है जहाँ तक कि वो मुक्ति कारक है, कि कई बार ऐसा भी होता है आप परतंत्रता कारी विचार को खुद वो आदमी भी स्वीकार कर लेता है जो परतंत्र किया जा रहा है. जैसे स्त्री लेखन के बहुत से तत्व होंगे जिससे स्त्री को मुक्त होने की जरूरत है यानि की उन्होंने पुरुष प्रधान समाज से यथावत ग्रहण कर लिए हैं. लेकिन कात्यायनी, गगन गिल ऐसी बहुत कवित्रियाँ हैं जो बहुत कविताएँ लिखती हैं उनका स्वागत किया जाना चाहिए. नीलेश रघुवंशी, निर्मला पुतुल हैं, ये ऐसे स्त्री लेखन की वैरायटी (विविधता) है जो आ रही है. ये बहुत अच्छा है और जाहिर है ये चेतना को बदलेगा, स्त्री लेखन को स्त्री और पुरूष में बाँटना तो जरा मुश्किल ही लगता है. इन पंद्रह वर्षों में स्त्रियों ने महिला लेखन में अपनी भागीदारी निभाई है. आप इन पंद्रह वर्षों को कह रहे हैं, लेकिन अगर उन पंद्रह वर्षों को कह रहे हैं जो आज से 50 साल पहले के हैं उनमें ही स्त्रियाँ बहुत आगे आ गयी थीं, उस जमाने में जबकि स्त्रियों के लिए आगे आना इतना आसान नहीं था, तो उस जमाने में अगर 15 स्त्रियाँ आ गईं तो आज तो 50 आ जानी चाहिए थीं. 21वीं शताब्दी के अगर 20-30-40वें दशक में 15 स्त्रियाँ थीं और वे स्वीकृत थीं तो फिर आज उनकी तादाद बहुत ज्यादा हो जानी चाहिए थीं. उस अनुपात में स्त्रियाँ बहुत ज्यादा नहीं आईं, लेकिन फिर भी जो आईं हैं इन पंद्रह वर्षों में, उनके बारे में यकीनन यह कहा जा सकता है कि यह सार्थक संकेत है.
अनिल पु. कवीन्द्र: नई कविता की अंतर्वस्तु और रूप गठन, बदलते मानवीय मूल्यों और सरोकारों के साथ भूमंडलीकरण की साझेदारी में घुसपैठ कर सकने में कहाँ तक समर्थ हैं?
नीलाभ अश्क: देखिए, अगर आप यह सोचें कि कविता आप लिख देंगे और उससे भूमंडलीकरण में छेद हो जाएगा तो यह बहुत मुश्किल है, कविता से उस तरह के काम की उम्म्मीद नहीं की जानी चहिए जो काम वो नहीं कर सकती. कविता लोगों की चेतना को परिवर्तित कर सकती है. अगर आप कहें कि वो राजनैतिक परिवर्तन ला सकती है, ऐसा तो आज तक न किसी कवि ने माना है और न किसी सार्थक राजनेता ने. हाँ चेतना में परिवर्तन जरूर ला सकती है और तब वो ऐसी सच्चाईयाँ आपके सामने खोल सकती है जो अचानक लोगों के सामने उजागर होती होंगी. वो छिपे हुए पहलू आपको दिखा सकती है. उस नाते वह परिवर्तन का औजार, एक सहयोगी बन सकती है. अगर आप सीधे-सीधे कहें कि वह परिवर्तन का घटक बन जाएगी तो एक क्रांतिकारी लेखक रहे हैं जैसे लू सुंग, उन्होंने भी कहा है कि क्रातिकाल में साहित्य नहीं रचा जाएगा. क्रांतिकाल में क्रांति ही होगी. लू सुंग का यह बहुत प्रसिद्ध कथन है. वो चीनी क्रांति के एक बहुत बड़े दौर से गुजरे हैं और एक बड़े लेखक भी हैं. वो अपने अनुभव से कह रहे थे कि कविता क्रांतिकारी की सहायक तो हो सकती है लेकिन अगर आप यह कहें कि वह क्रांति कर देगी तो यह संभव नहीं. ये जो भूमंडलीकरण के खतरे हैं ये आपके सामने उजागर कर देगी और उनको भी अपने तरीके से उजागर करेगी. बिंबों, प्रतीकों के माध्यम से जो उसकी अपनी तकनीक है, उसके माध्यम से वो एक लेख, पोस्टर, कहानी नहीं है एक कविता है तो कविता अपने ढंग से काम करेगी, और आपको उन खतरों से आगाह कर देगी. इसके बाद भी अगर आप उसमें गिर ही पड़ते हैं तो कविता बेचारी उसमें क्या करेगी. लेकिन आपको यह मान लेना चाहिए कि सिर्फ कविता ही नहीं ऐज सच साहित्य जो है वो हमेशा एक जो दलित शोसित वर्ग है वो कोई भी हो, दलित से यह अर्थ मत लगाइए कि मतलब जाति से है. दलित से मतलब है, जो भी दलित वर्ग से है, जाति से है, वह हमेशा अंडर डॉग में ही रहेगा.
दूसरी चीज यह है हिंदी की कुछ अपनी प्रतिज्ञाएँ हैं, उन प्रतिज्ञाओं को यह बड़ी खुशी की बात है कि अभी हिंदी में ज्यादा नहीं है, उसमें यह है कि-उत्पीड़न और दमन के खिलाफ मनुष्य का जो संघर्ष है उसमें वह मनुष्य का साथ निभाएगी. दूसरी-यथा स्थिति में कभी समझौता न करेगी, तीसरी-सत्ता और उसके प्रलोभन से दूर रहे, जो हमारे सामने पलछिन बदलती वास्तविकता है उसको रूपांतरित करने का साहित्य में जो संघर्ष हो जिसको कि मुक्तिबोध कविता का और कवि का आत्मसंघर्ष कहते हैं तो उस आत्मसंघर्ष में वो हिस्सेदारी करेगी और कैसे उसको आप शब्दों के माध्यम से रूपांतरित कर सकते हैं रचना में क्योंकि सबसे बड़ा आपके सामने यह संकट रहता है कि साहित्यकार कैसे अपने समय की वास्तविकता को साहित्य में उजागर करे तो इसमें जो कविता है वो कैसे अपनी भूमिका निभाए ये प्रतिज्ञाएँ हैं.
हालाँकि 1951 के बाद हिंदी एक सत्ता से जुड़ी हुई भाषा हो गई है, जो कि नहीं थी, लेकिन फिर भी वह वंचितों की भाषा व वाणी है और प्रतिरोध की भाषा है वह अब भी है तो इतना उसमें अर्थ ज्यादा नहीं है. हमें लगता है जब तक यह प्रतिज्ञाएँ उसके सामने बनी रहेंगी, तब तक चाहे भूमंडलीकरण हो, उदारीकरण हो, शोषण हो उत्पीड़न हो, यदि इन सारी चीजें से और मनुष्य की बेहतरी जिस चीज में है इन सारी चीजों से ये गुजारिश या गुंजाइश तो रहेगी. यह गुजरिश या गुंजाइश तो आप इससे कर ही सकते हैं.
अनिल पु. कवीन्द्र: हर युग अपनी जरूरत के अनुरूप साहित्य पैदा करता है और हर संवेदनशील रचनाकार युग की जरूरतों की खातिर शोसकों के खिलाफ विरोध की भाषा बोलता है किंतु समकालीन साहित्य और युग के बीच एक गहरा फासला और गहरी चिंता की लकीरें खिंची हैं, रचनाकार के साथ रचनात्मक कर्म और व्यक्तिगत जीवन के बीच गत्यावरोध है यह किस तरह की द्वंद्वात्मक स्थिति का दौर है?
नीलाभ अश्क: कविता तलाश लेती है, या युग अपनी कविता तलाश लेता है, आप ऐसा भी कह सकते हैं कि एक युग की अपनी जरूरत अपनी माँग होती है, अगर समाज की माँग नहीं हो तो साहित्य में या समाज में कविता की जगह नहीं है, क्योंकि कविता और साहित्य एक सामाजिक गतिविधि है. यदि इसकी जरूरत समाज में नहीं है तो कोई क्यों उस गतिविधि में लिप्त होगा. तो अब भी समाज को साहित्य और कविता की जरूरत है इसलिए लोग साहित्य, कविता, कहानी रचते हैं. मैं ऐसे समाज की परिकल्पना नहीं करता हूँ जिसको कि कभी किसी भी प्रकार के कलाकर्म की जरूरत नहीं होगी. ऐसे समाज की कल्पना करना जरा मुश्किल है तो उसमें समाज अपने ढंग की वाणी तलाश लेगा ही. वो अपने कवि पैदा कर लेगा. वो विवश करेगा कि उस युग की जो वाणी है उसको वह अपनी वाणी में रचना में प्रकट करे. ये दोनों तरफ से प्रयास रहेगा क्योंकि इसमें जो पिछले जमाने के लोग हैं जैसे पिकासो हुए तो पिकासो जिस दौर में पेंटिंग शुरू करते हैं उसके बाद वो ब्लू पीरियड, पिंक पीरियड, क्यूबिज्म पीरियड हर दौर के साथ हर नये दौर में वो अपने को समृद्ध करते चलते है. तो कविता और कवि भी युग को तलाशते हैं और युग भी अपने तरह की रचनात्मकता को तलाशता है. एक द्वंद्वात्मक संबंध है दोनों में.
© 2009 Neelabh Ashk; Licensee Argalaa Magazine.
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