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Tuesday, October 4, 2011

नई धारा











बिहार, उत्तर परदेश, मध्य परदेश और दिल्ली के शिक्षा विभाग सहित हिन्दी निदेशालय एवं विदेश मंत्रालय द्वारा स्वीकृत नई धारा के ६० वर्ष 

दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र और इतिहास

पटना, २८-२९ नवंबर। पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग तथा साहित्य अकादमी
के संयुक्त तत्वावधान में ‘दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र और इतिहास लेखन की
समस्याएँ’ विषय पर राष्टंीय संगोष्ठी आयोजित की गई। यह दो दिवसीय कार्यक्रम
पाँच सत्रों में सम्पन्न हुआ। उद्घाटन सत्र में आरंभिक वक्तव्य देते हुए वरिष्ठ आलोचक
विश्वनाथ तिवारी ने इस संगोष्ठी को पटना में किए जाने को एक बड़ी घटना के रूप
में चिन्हित किया। पटना के प्रथम दलित कवि हीरा डोम का जिक्र करते हुए कहा कि
बुद्ध की इसी धरती से वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध पहली लड़ाई लड़ी गयी। इस अवसर
पर समारोह का उद्घाटन करते हुए प्रसिद्ध मराठी दलित लेखक लक्ष्मण गायकवाड़
ने कहा कि वर्गहीन समाज की स्थापना ही दलित साहित्य का मकसद है। इस व्यवस्था
ने दलितों को अलग किया लिहाजा दलित लेखन इस व्यवस्था को नकारता है। अभी
इस लेखन में बाढ़ के पानी जैसा शोर है, किन्तु थमने पर वही साफ जल बन जाएगा।
अपने अध्यक्षीय भाषण में पटना विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. श्यामलाल ने सामाजिक
व्यवस्था व दलित लेखन के ऐतिहासिक कारणों की पड़ताल की। कार्यक्रम का संचालन
प्रो. तरुण कुमार, अतिथियों का स्वागत साहित्य अकादमी के उपसचिव डाॅ. ब्रजेन्द्र
त्रिपाठी और धन्यवाद ज्ञापन हिन्दी विभागाध्यक्ष बलराम तिवारी ने किया।
कार्यक्रम का प्रथम सत्र ‘भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य’ विषय पर केन्द्रित था।
कन्नड़ लेखक तेजस्वी कट्टीमणी ने कहा कि दलित साहित्य अत्यंत समृद्ध है। यह
परंपरागत साहित्य बोध को चुनौती दे रहा है। कार्यक्रम में संवादी के रूप में बुद्धशरण
हंस उपस्थित थे। सत्र का अध्यक्षीय भाषण देते हुए मराठी साहित्यकार शरण कुमार
लिम्बाले ने कहा कि दलित भी इंसान हैं और उन्हें भी इंसानियत चाहिए। द्वितीय सत्र
‘हिन्दी दलित कथा साहित्य तथा काव्य’ पर केन्द्रित था, जिसकी अध्यक्षता रमणिका
गुप्ता ने की। इस सत्र के मुख्य वक्ता जयप्रकाश कर्दम, श्यौराज सिंह बेचैन और रत्न
कुमार सांभरिया ने इस बात पर जोर दिया कि दलित लेखक ही दलितों की पीड़ा की
ईमानदार व्याख्या कर सकते हैं।
तृतीय, चतुर्थ और पंचम सत्र २९ नवंबर को सम्पन्न हुआ। तृतीय सत्र ‘हिन्दी दलित
आत्मवृत्तांत’ की अध्यक्षता करते हुए खगेन्द्र ठाकुर ने दलित साहित्य के उत्पन्न होने
के कारणों को जानने की बात कही। इन्होंने यह स्वीकारा कि केवल दलितों द्वारा
लिखा गया साहित्य ही दलित साहित्य नहीं हैं, यह आत्मवृत्तांत कोई भी संवेदनशील
व्यक्ति लिख सकता है। इस सत्र में प्रो. भृगुनंदन त्रिपाठी, कालीचरण स्नेही तथा
हरिनारायण ठाकुर ने अपने आलेख पढ़। चतुर्थ सत्र ‘हिन्दी दलित साहित्य: सौदर्यशास्त्रीय


समस्याएँ’ में कर्मेन्दु शिशिर ने साहित्य और साहित्यिकता की बात उठाई। अगले
वक्ता कँवल भारती ने दलितों द्वारा झेली गयी यंत्रणा को काफी आक्रोशित भाव से
व्यक्त करते हुए प्रेमचंद की कहानियों को दलित विरोधी बताया। उन्होने परकाय-प्रवेश

का खंडन किया। दलित चेतना जन्मना हो सकती है। प्रो. शंभुनाथ ने अपने अध्यक्षीय
भाषण में कहा कि सबको मिलकर दलित सौंदर्य की रक्षा करनी होगी। पंचम और
आखिरी सत्र का विषय ‘दलित साहित्य के इतिहास लेखन की समस्याएँ’ रहा। इस
सत्र में डाॅ. श्री भगवान सिंह ने कहा कि दलित साहित्य का इतिहास तब लिखा जाए
जब इसकी अवधारणाएँ स्पष्ट हो जाएँ। संगोष्ठी में डाॅ. शिवनारायण ने धारणाओं के
टूटने का समर्थन किया। उनका मानना था कि जातीय अस्मिताओं का दलन, उत्पीड़न
दलित लेखन में है, जो दो स्तरों पर होता है एक सत्ता के प्रतिरोध में दूसरा जातीय
अस्मिताओं के प्रतिरोध में। वास्तव में दलित साहित्य के मूल्यांकन में सौंदर्यशास्त्र की
नहीं, समाजशास्त्र की आवश्यकता है।
इस पूरे कार्यक्रम का धन्यवाद ज्ञापन डाॅ. बलराम तिवारी ने किया। कार्यक्रम में
पटना सहित बिहार के विभिन्न शहरों के गणमान्य बुद्धिजीवी तथा साहित्यकार उपस्थित
थे।
 

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