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Tuesday, October 4, 2011

भारतीय भाषाओं की सम्पर्क-लिपि देवनागरी


भारतीय भाषाओं की सम्पर्क-लिपि देवनागरी
हमारा भारतवर्ष ऐसा एक विशाल देश है, जिसमें कई प्रकार की विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है । आचार-व्यवहार, वेशभूषा एवं भाषा की विवेचना जब की जाती है, तब पता चलता है कि विभिन्न प्रान्तों के अनुसार लोग विभिन्न प्रकार की भाषायें बोलते हैं और अपने जीवनयापन की व्यवस्था में एक स्वतन्त्र मर्यादा रखते हैं । ऐसे देखा जाये तो हर प्रान्त में अलग अलग भाषा के प्रयोग होने पर भी लोगों की चिन्तन-धारा में भारतीयता दृढ़ रूप से व्यवस्थित है । भारत में कई रुचियों और भाषाओं की विभिन्नता होने पर भी भारतीय यानी राष्ट्रीय एकता सभी भारतीयों के मन में बसी है, जो सभी भारतवासियों को एक ही सूत्र में बाँधती है ।

भारतीय संविधान में कई भारतीय भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है आधुनिक भारतीय भाषा के रूप में । इसके अलावा कई भाषायें प्रचलित हैं, जो मानक भाषा के रूप में अबतक स्वीकृतिप्राप्त नहीं हैं । मानक भाषाओं के प्रचार-प्रसार साहित्यिक दिशा से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । भारत में आर्य-परिवार एवं द्राविड़-परिवार की भाषायें प्रचलित हैं भाषाविज्ञान के दृष्टिकोण से । उत्तर भारत में विशेषतः आर्य-परिवार की भाषायें जैसे हिन्दी, ओड़िआ, बंगाली, असमिया, पञ्जाबी, गुजराटी, मराठी इत्यादि । दक्षिण भारत में प्रचलित भाषायें द्राविड़ परिवार के अन्तर्गत हैं, जैसे तेलगु, तमिल, कन्नड़, मलयालम इत्यादि । अधिकांश भारतीय भाषाओं का मूल आधार संस्कृत है । इसलिये संस्कृत ‘भाषा-जननी’ के नाम से सुपरिचित है ।

भाषा मुख से बोली जाती है । परन्तु लिखनेके लिये अर्थात्‌ भाषा में व्यक्त किये गये भाव को साकार रूप देने के लिये भाषा की ‘लिपि’ आवश्यक होती है । मुख से उच्चारित वर्ण-ध्वनियों को एक स्पष्ट रूप देने के लिये उस वर्ण-ध्वनि के द्योतक एक स्वतन्त्र वर्ण की आवश्यकता रहती है । वास्तव में देखा गया है कि कुछ भाषाओं की अपनी भाषानुगत स्वतन्त्र लिपि है और कुछ भाषाओं की अपनी स्वतन्त्र लिपि नहीं है । उदाहरण-स्वरूप, संस्कृत विश्व की प्राचीनतम भाषा है, परन्तु इसकी कोई संस्कृत लिपि नहीं है । इसकी लिपि है ‘देवनागरी’ । हिन्दी भाषा की कोई हिन्दी लिपि नहीं है । देवनागरी लिपि को ही हिन्दीभाषा की लिपि के रूप में अपनाया गया है । ओड़िआ, बंगाली, असमिया, गुजराटी, मराठी, पञ्जाबी आदि भाषाओं की अपनी अपनी स्वतन्त्र लिपियाँ हैं एवं देवनागरी लिपि के आधार पर वर्ण निर्धारित किये गये हैं । दक्षिण भारत की तेलगु, कन्नड़, मलयालम प्रभृति भाषाओं की अपनी अपनी स्वतन्त्र लिपियाँ हैं । जिस भाषा की एक स्वतन्त्र लिपि होती है, उसकी एक स्वतन्त्र पहचान होती है । परन्तु ऐसी स्थिति सर्वत्र नहीं है ।

भारत में कई जातियों, वर्णो, धर्मों, भाषा-भाषियों के लोग रहते हैं । अपने हृदय के भावों को प्रकट करनेवाली भाषा की लिपि भी अनेक प्रकार है । फिर भी भारत में एक ऐसी प्राचीन लिपि अबके आधुनिक युग में नित्य-नूतन लिपि के रूप में स्वीकृत है, वह है ‘देवनागरी’ लिपि । भारतवासियों को एक सूत्र में जोड़ने के लिये जैसे ‘भारतीयता’ एक अद्वितीय साधन है, वैसे सभी भारतीय भाषाओं के एक सूत्र में सम्पर्क स्थापन हेतु देवनागरी लिपि एकमात्र उपयोगी साधन है आजके भारतवर्ष में ।

भाषा की उत्पत्ति की तरह लिपि की उत्पत्ति के बारे में पर्याप्त मतभेद पाया जाता है । भावों को पूर्णतया अभिव्यक्त करनेके लिये भाषा सम्पूर्ण समर्थ नहीं रहती । उसी प्रकार लिपि भी सर्वत्र उच्चारित भाषा को पूर्णतया अभिव्यक्त नहीं कर पाती । जैसे काकु आदि के द्वारा उच्चारित ध्वनि-विशेषताओं को लिपि पूर्णतया प्रकाशित नहीं कर सकती । शब्द और अर्थ का सम्बन्ध सर्वत्र यौगिक न होकर रूढ़ होता है । उसी प्रकार ध्वनि या वर्ण (लिपि-संकेत) का सम्बन्ध भी रूढ़ होता है । एक ही ध्वनि के लिये विभिन्न लिपियों में अलग अलग संकेतों या लिपि-चिह्नों का प्रयोग होता है । उदाहरण-स्वरूप, देवनागरी लिपि के ‘क्‌’ व्यञ्जन वर्ण के लिये रोमन लिपि में ‘k’, ‘c’, ‘q’ आदि का प्रयोग देखा जाता है ।

लिपि का प्राचीनतम स्वरूप चित्रलिपि माना जाता है । चित्रलिपि में प्रत्येक स्थूल वस्तु के लिये उस वस्तु-जैसा चित्र बनाने के कारण उसमें अनगिन संकेतों की आवश्यकता रहती थी । लिपि-संकेतों की पृथक्‌ता, अधिक स्थान एवं समय की आवश्यकता रहती थी । परन्तु प्रेम, उत्साह, दुःख, आनन्द आदि सूक्ष्म भावों को व्यक्त करने में चित्रलिपि असमर्थ थी । चित्रलिपि के दोषों का निराकरण करने के लिये बाद में ऐसी एक लिपि का प्रयोग हुआ, जिसमें कुछ निश्‍चित चिह्नों द्वारा, जैसे कुछ बिन्दुओं या रेखाओं द्वारा निश्‍चित भावों को व्यक्त किया जा सके । मनुष्य ने उसी दिशा में आगे चलकर ध्वनि-लिपियों का व्यवहार किया, जो आज भी प्रचलित होती हैं । भाषा में व्यवहृत ध्वनियों के लिये ध्वनि-चिह्नों या वर्णो का प्रयोग किया जाता है और उन वर्णों द्वारा भावों को व्यक्त किया जाता है । देवनागरी, रोमन, अरबी आदि लिपियाँ ध्वनि-लिपि के अन्तर्गत हैं ।

भारत की प्राचीन लिपियाँ दो हैं , ब्राह्मी और खरोष्ठी । भाषाविज्ञानियों का मत है कि ब्राह्मी लिपि मूलरूप से भारतीय है । इस लिपि का अस्तित्व ख्रीष्टपूर्व ५०० से ख्रीष्टाब्द ३५० तक माना जाता है । उत्तरी शैली और दक्षिणी शैली के रूप में इस लिपि का द्विविध विकास हुआ था । विद्वानों का मत है कि ब्राह्मी लिपि से ही आधुनिक देवनागरी लिपि की उत्पत्ति हुई है । ब्राह्मी की उत्तरी शैली की अन्तर्गत गुप्त-लिपि और कुटिल-लिपि क्रमशः देवनागरी लिपि के रूप में विकसित हो गई हैं । इसका प्रयोग भारत में प्राय दशवीं शताब्दी से स्वीकृत है । प्रारम्भ में इसके वर्णों पर शिरोरेखा नहीं लगती थी । प्राचीन नागरी लिपि को सम्मान देने के लिये बाद में इसका नाम ‘देवनागरी’ दिया गया है ।

‘नागरी’ नाम के बारे में भी कुछ मतभेद हैं । नगर में प्रयुक्त होनेके कारण ‘नागरी’ लिपि का नामकरण कुछ मानते हैं । कुछ विद्वानों का मत है कि नागर ब्राह्मणों में प्रचलित होनेके कारण लिपि का नाम नागरी हुआ है । और कुछ विद्वानों का मत है कि तान्त्रिक यन्त्र देवनगर की आकृति से इस लिपि के वर्णों का साम्य होनेके कारण देवनागरी नाम हुआ है । ‘नागरी’ या ‘देवनागरी’ जो भी हो, आजकल की वैज्ञानिक भाषा-पद्धति में इस लिपि की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है ।

देवनागरी लिपि में लिपिगत उत्कृष्टता सभी प्रकार से विद्यमान है । किसी भी उपादेय और उत्कृष्ट लिपि में ध्वनि और वर्ण में सामञ्जस्य होना चाहिये । भाषा की ध्वनियों में और उन्हें अभिव्यक्त करनेवाले लिपि-चिह्नों में जितनी अधिक समानता होती है, वही लिपि उतनी ही अधिक उत्कृष्ट मानी जाती है । देवनागरी में यह विशेषता पूर्णतया उपलब्ध है । उच्चारण के अनुरूप ही वर्ण-निर्धारण किया जाता है । जो बोला जाता है, वह लिखा जाता है, और जो लिखा जाता है, वह बोला जाता है । देवनागरी की यही एक विशिष्ट पहचान है । दूसरा महत्त्वपूर्ण लक्षण है एक ध्वनि के लिये एक ही संकेत । एक ध्वनि के लिये अनेक संकेत या अनेक ध्वनियों के लिये एक ही संकेत लिपि का बड़ा दोष माना जाता है । रोमन्‌ आदि लिपि में ऐसा दोष दृष्टिगोचर होता है । जैसे रोमन्‌ लिपि में एक ही ‘क्‌’ ध्वनि उच्चारण करने के लिये एकाधिक संकेत हैं । उदाहरण–स्वरूप k (king), c (call), ck (cuckoo), ch (chemical), q (quick) इत्यादि । एक संकेत ‘u’ कहीं ‘अ’ रूप में उच्चारित होता है, जैसे ‘but’ (बट्‌), ‘cut’ (कट्‌), और कहीं कहीं ‘उ’ रूप में, जैसे ‘put’ (पुट्‌) । फिर एक संकेत ‘o’ कहिं ‘अ’ रूप में (pot, पट्‌) तो कहीं ‘उ’ के रूप में (to, टु), कहीं ‘ओ’ रूप में (note, नोट्‌) उच्चारित होता है । ऐसे अन्य अनेक उदाहरण मिल सकते हैं । परन्तु देवनागरी लिपि में यह दोष बिलकुल नहीं ।

उत्कृष्ट लिपि का और एक विशेष गुण है लिपि-संकेतों द्वारा समस्त ध्वनियों की अभिव्यक्ति । देवनागरी में यह सम्पूर्ण विद्यमान है । लिपि का और एक गुण है असन्दिग्‌धता । एक ध्वनि-संकेत में अन्य किसी ध्वनि का सन्देह नहीं होना चाहिये । अन्य लिपियों की अपेक्षा देवनागरी में ये उत्कृष्टतायें सर्वाधिक उपलब्ध होती हैं । इसमें कोई भ्रान्ति या संशय का अवकाश नहीं होता । इसप्रकार अनुशीलन से यह निष्कर्ष निकलता है कि देवनागरी वास्तव में एक उत्कृष्ट लिपि है । व्यावहारिक एवं भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह सर्वथा युगोपयोगी रूप में स्वीकृत है ।

भाषा एक प्रवहमान धारा है । समयानुसार नदी-जल की तरह इसमें परिवर्त्तन होता रहता है । लिपियों में भी आवश्यकतानुसार परिवर्त्तन होता है । परन्तु देवनागरी ऐसी एक भव्य सुन्दर और उत्तम लिपि है जो समस्त भारतीय भाषाओं के सम्पर्क-सूत्र के रूप में प्रयुक्त हो सकती है । उत्तरभारत में हिन्दी का विशेष प्रचलन है, लेकिन दक्षिण भारत में हिन्दी को ग्रहण करने के लिये सर्वसम्मति प्राय नहीं है, चूँकि दक्षिण में प्रचलित तमिल, कन्नड़ आदि द्रविड़ भाषाओं की स्वतन्त्र लिपियाँ तथा प्रयोग हैं ।

आज की परिस्थिति में भाषा-जननी संस्कृत जैसे सभी भाषाओं को जोड़नेवाला एक सम्पर्क-सूत्र रूप में उपयोगी है, उसी प्रकार देवनागरी लिपि सभी भारतीय भाषा-लिपियों को जोड़नेवाला सम्पर्क-सूत्र के रूप में अत्यन्त उपादेय है । आर्य परिवार एवं द्रविड़ परिवार की अन्तर्गत सभी भाषाओं की लिपियों की अभिव्यक्ति एक महाभारतीय लिपि देवनागरी में प्रस्तुत की जा सकती है । आजकल आन्तर्जातिक स्तर पर रोमन्‌ लिपि के साथ सम्पर्क स्थापन करनेमें देवनागरी लिपि का ही ग्रहण किया जा रहा है । इससे किसी भी भाषा-भाषी को भ्रम या सन्देह का अवसर नहीं रहता । देवनागरी में लिखनेसे भारतीय स्तर पर एक स्वतन्त्र पहचान होती है, जो सभी भाषा-भाषियों के लिये सरल है और प्रान्तीय स्तर पर अपनी ही लिपि रहनेसे व्यवहार में सौकर्य होता है । इसप्रकार देवनागरी लिपि भारतीय स्तर पर सभी भाषाओं की लिपियों का सर्वोत्कृष्ट सम्पर्क सूत्र बनकर अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है । आधुनिक वैज्ञानिक युग में अन्तर्जाल पर देवनागरी लिपि का व्यापक प्रयोग उसकी विशेषता का एवं सार्थकताका सुपरिचायक है । इण्टर्नेट्‌ के अतिरिक्त कम्प्युटर और मोबाइल्‌ फोन्‌ आदि में भी देवनागरी लिपि की स्थिति एवं प्रयोग इस लिपि के महत्त्व को बढ़ानेमें बहुत सहायक सिद्ध हैं ।
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1 comment:

Dr. Harekrishna Meher said...

Please mention the name of the author and source of this article. It is my original article taken from my blog. Please see Link :
http://hkmeher.blogspot.com/2011/02/blog-post.html

It has also been published in Hindi e-magazine 'Srijangatha' : Link :
http://www.srijangatha.com/?pagename=HindiWishwa_11Feb2011

Please make the necessary additions.
Posting other's article without mentioning source is not desirable.
Harekrishna Meher